

सुलखान सिंह पूर्व डीजीपी यूपी
इधर कुछ दिन पहले मैं धातुकर्म (metallurgy) के बारे में पढ़ रहा था। आज जब मैं इसी विषय पर मनन कर रहा था तो ‘मिश्रधातु’ (alloy) ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मिश्रधातु कुछ रासायनिक तत्वों का मिश्रण होती है जिसमें कम-से-कम एक ‘धातु’ हो। दो या अधिक धातुएं भी हो सकती हैं।
इस प्रकार के मिश्रण से एक अलग ही धातु बनती है। इसमें धातु के सभी गुण मौजूद रहते हैं जैसे विद्युत-चालकता (electrical conductivity), लचीलापन (ductility), अ-पारदर्शिता (opacity), आभा (Luster) इत्यादि। मिश्रधातु बनने से ये गुण थोड़ा कम-ज्यादा हो सकते परंतु कुछ गुण, खासकर बाह्य कारकों से लड़ने की क्षमता, अद्भुत रूप से बढ़ जाते हैं। यह नयी ताकत बहुत महत्वपूर्ण है।
जो गुण बढ़ जाते हैं उनपर ज़रा ग़ौर करें –
*दबाव एवं तनाव सहने की शक्ति (compressive and tensile strength)
*ऐंठने के खिलाफ शक्ति (tortional strength)
*कठोरता (hardness)
*जंग क्षरण का प्रतिरोध (resistance to corrosion)
*तालमेल (synergistic properties)
वगैरह वगैरह।
सबसे खास बात यह है कि नयी बनने वाली यह धातु वास्तव में एक ‘ठोस-घोल’ (solid solution) होती है। अर्थात इसमें सभी तत्व आपस में रासायनिक क्रिया करके कोई नया तत्व नहीं बनाते हैं बल्कि अपनी-अपनी स्वतंत्र पहचान (identity) बरकरार रखते हैं। ये स्वतंत्र पहचान अंदरूनी तौर पर तो बनी रहती है परंतु यह नई धातु बनने के फलस्वरूप इसकी ‘उपयोगिता’ (usefulness) बहुत बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त बाहरी हमलों से लड़ने की क्षमता अद्भुत रूप से बढ़ जाती है।
मिश्रधातु (Metal Alloys) के बनने में कुछ अन्य तत्व भी अपनी भूमिका अदा करते हैं जो यद्यपि कम मात्रा में होते हैं परन्तु इस प्रक्रिया में सहायक होते हैं और रंग-रूप/चमक जैसे कुछ गुण भी प्रदान करते हैं।
मिश्रधातु के कुछ उदाहरण देना उपयुक्त रहेगा।
- इस्पात (steel) – यह लोहा और कार्बन की मिश्रधातु है। यह बहुत शक्तिशाली एवं सर्वगुणसंपन्न है। सारे निर्माण कार्यों में यही इस्तेमाल होता है। भवन, पुल, हथियार आदि के निर्माण में यही स्टील इस्तेमाल होता है।
- स्टेनलेस स्टील – यह मुख्यतः लोहा और क्रोमियम की मिश्रधातु है। यह स्ट्रक्चरल स्टील से अधिक कठोर है और जंग-प्रतिरोधक है।
- कांसा (bronze)- यह तांबे और टिन की मिश्रधातु है। इसके बर्तन में भोजन राजसिक प्रभाव उत्पन्न करता है। और भी बहुत से औद्योगिक उपयोग कांसे के हैं।
मौलिक रूप में जो काम ये धातुएं नहीं कर सकतीं, वे काम बेहतर ढंग से इनकी मिश्रधातु कर सकती है।
शायद प्रकृति ने मिश्रधातु का नमूना हमारे समक्ष इसीलिए रखा है कि हम भी स्त्री-पुरुष मिलकर समाज के लिए अधिक उपयोगी इकाई बनायें। स्त्री एवं पुरुष की अलग-अलग भी उपयोगिता है लेकिन स्त्री-पुरुष मिलकर समाज के लिए और अधिक उपयोगी बन जाते हैं। वे अपने लिए भी, अलग-अलग के मुकाबले अधिक उपयोगी हो जाते हैं। यह जरूरी है क्योंकि दुनिया वैयक्तिक स्वार्थ एवं सामाजिक उपयोगिता पर आधारित है।
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मिश्रधातु की तरह, विवाह के उपरांत भी आंतरिक तौर पर स्त्री-पुरुष की वैयक्तिकता (identity) काफी हद तक बनी रहती है परंतु बाह्य जगत में गुण-धर्म अधिक सक्षम और प्रभावी हो जाते हैं। वे मिलकर बाह्य कारकों हमलों का अधिक प्रभावी मुकाबला कर सकते हैं। इसलिए पति-पत्नी को निजी तौर पर एक-दूसरे की स्वतंत्रता और वैयक्तिकता स्वीकार करनी चाहिए परंतु दोनों को यह स्वीकार करना चाहिए कि बाह्य तौर पर उन्हें अधिक एकरूपता प्रस्तुत करनी चाहिए और अपनी वैयक्तिकता एवं स्वतंत्रता पर काफी अधिक अंकुश रखना चाहिए।
निजी तौर पर स्वतंत्रता और वैयक्तिकता के परिणामस्वरूप दोनों को एक-दूसरे को भावनात्मक सहारा देना होगा, कोई बाहरी नहीं देगा। यह अपेक्षा करेगा कि भावनात्मक रूप से पूर्ण समानता का आपसी व्यवहार रखा जाये। यह मिश्रधातु के घटकों की अपेक्षाएं हैं।
जो तत्व उत्प्रेरक एवं रंग चमक आदि के कारक रहे हैं, उनका भी संरक्षण और ख्याल रखना आवश्यक है। अर्थात् परिवार समाज की अपेक्षाओं को भी नजरंदाज नहीं करना चाहिए। मिश्रधातु की तरह विवाह की संस्था भी उपयोगिता की कसौटी पर खरी उतरनी चाहिए। विवाह नितांत निजी मामला नहीं है।
यह मनन करने योग्य विषय है क्योंकि समय-समय पर विवाह और समाज के आपसी टकराव के मामले सुनने में आते रहते हैं। कुदरत कितने पाठ हमारे समक्ष रोज प्रस्तुत करती है! लेकिन क्या हम उनपर ध्यान देते हैं? क्या हम जागरूक और चैतन्य रहकर व्यवहार करते हैं? प्रमाद रहित आचरण ही योग नहीं है क्या?
हमारी संस्कृति में, दीक्षांत समारोह में आचार्य कहता था – “— स्वाध्यायान्मा प्रमदः” । कितना मौलिक उपदेश है!! क्या हम स्वाध्याय, चिंतन और मनन की आदत स्वीकार करते हैं?