
-श्रवण गर्ग
आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जाना चाहिए अगर हिमाचल और कर्नाटक (Himachal-Karnataka) की पराजयों से निराश हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) मध्यप्रदेश (MP) और अन्य राज्यों (राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना) में लड़ाई तो विधानसभा चुनावों के लिए लड़ते दिखाई दे रहे हों पर अपने लिए रणनीतिक हथियारों का ज़ख़ीरा छह महीने बाद ही होने वाले लोकसभा के महासंग्राम के लिए जमा कर रहे हों ! देश को पता है मोदी के लिए दोनों में ज़्यादा महत्वपूर्ण क्या है !
अक्टूबर 1951 में अखिल भारतीय जनसंघ और अप्रैल 1980 में भारतीय जनता पार्टी (BJP) की स्थापना के बाद पहला अवसर है जब इतनी बड़ी संख्या में केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों की विधानसभा चुनाव की लड़ाई के लिए जबरन भर्ती की गई है। ‘जबरन’ इसलिए कि एक-दो को छोड़ इन सभी को लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) भी लड़ना पड़ सकता है। यानी छह महीनों में दो चुनाव लड़ने पड़ेंगे !
प्रधानमंत्री और पार्टी का संकट निश्चित ही बड़ा होना चाहिए जो कि 2014 के बाद हुए देश के किसी भी विधानसभा चुनाव-उपचुनाव (Assembly elections-by-elections) में नहीं नज़र आया ! साल 2018 में भी नहीं जब भाजपा तीनों राज्यों में पराजित हो गई थी। तब तो राहुल गांधी भी भाजपा के लिए ‘पप्पू’ थे और उनकी कोई ‘भारत जोड़ो यात्रा’ (Bharat Jodo Yatra) भी नहीं हुई थी। भाजपा को तब जनता ने ही हरा दिया था। इस समय राहुल भी हैं, संगठित विपक्ष भी और जनता भी !
प्रधानमंत्री को 2018 तक एक यक़ीन था ! वह यह कि शिवराज सिंह (Shivraj Singh), रमन सिंह (Raman Singh) और वसुंधरा राजे (Vasundhara Raje) के ख़िलाफ़ विरोध की लहर (Anti-Incumbency) के चलते चाहे तीनों विधानसभाओं में पार्टी हार जाए, लोकसभा (2019) में तो ‘घर-घर मोदी’ ही होने वाले हैं। ऐसा तब हुआ भी पर इस समय पीएमओ को खुटका बैठ गया है कि मामला अलग है। सरकार अगर डबल इंजन की है तो विरोध की लहर भी ‘डबल’ ही है।
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जो दिखाई दे रहा है वह यह कि प्रधानमंत्री के सामने संकट विधानसभा चुनावों (Assembly elections) का उतना नहीं है जितना उस नव-निर्मित लोकसभा भवन में 2014 और 2019 जैसे बहुमत के साथ स्वयं के पुनर्प्रवेश का है जिसकी सीटें 543 से 888 कर दीं गईं हैं। कांग्रेस (Congress) ने इरादा प्रकट कर दिया है कि केंद्र में अगर विपक्ष की हुकूमत क़ायम हो गई तो सारे सांसद नए भवन से पुरानी इमारत में पुनः प्रवेश के लिए मार्च करने वाले हैं।
हिमाचल और कर्नाटक (Himachal-Karnataka) के परिणामों का भाजपा के लिए सार सिर्फ़ इतना है कि दोनों ही राज्यों में प्रधानमंत्री सिर्फ़ हिंदुत्व और अपने व्यक्तित्व के तिलिस्म के बल पर ही चुनाव जीतकर दिखाना चाहते थे। हिमाचल (Himachal) में हिंदुओं की आबादी 95 प्रतिशत और कर्नाटक में 84 प्रतिशत है। दोनों ही स्थानों पर मतदाताओं से मोदी की अपील यही थी कि वे सिर्फ़ ‘उन्हें’ और ‘कमल’ को देखें। मतदाताओं ने प्रधानमंत्री की मर्ज़ी के मुताबिक़ देखने से इंकार कर दिया।
हिमाचल (Himachal) की सभी चारों और कर्नाटक (Karnataka) की 28 में से 25 लोकसभा सीटों के सांसद भाजपा के पास थे पर प्रधानमंत्री को अपनी छवि पर इतना ज़्यादा भरोसा था कि एक भी सांसद या केंद्रीय मंत्री को चुनावी मैदान में नहीं उतारा गया। प्रधानमंत्री शायद संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ में छपे आलेख की इस चेतावनी को ग़लत साबित करना चाहते थे कि अकेले उनकी छवि और हिंदुत्व से ही अब काम नहीं चलेगा।
साल भर के दौरान एक दर्जन से ज़्यादा सफल-असफल चुनावी यात्राएँ/सभाएँ कर लेने, पहली सूची में तीन केंद्रीय मंत्रियों सहित सात सांसदों को मैदान में उतार देने और चौथी सूची जारी होने के पहले तक शिवराज सिंह (Shivraj Singh) को साँस रोककर प्रतीक्षा करवा लेने के बाद शायद महसूस किया गया कि विरोध की लहर इस बार दिल्ली को भी गिरफ़्त में ले सकती है और असंभव नहीं कि 2019 तरह का ‘हर-हर मोदी’ 2024 में नहीं हो।
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शिवराज सिंह का टिकिट लटकाकर केंद्र के ख़िलाफ़ वाली लहर का मुँह बंद करने की कोशिशों को ताबड़तोड़ विराम लगाया गया। ‘सारे चेहरों को बदल दूँगा’ का गर्व अपने ही ‘सारे फ़ैसलों को बदल देने’ में तब्दील किया गया। प्रधानमंत्री की मतदाताओं के नाम चिट्ठी शिवराज सिंह (Shivraj Singh) की तारीफ़ में बदल गई। प्रधानमंत्री सिंधिया स्कूल के कार्यक्रम में भाग लेने ग्वालियर पहुँचे भी पर यात्रा प्रदेश के खाते में दर्ज नहीं हुई ।
जिन दिग्गज मंत्री-सांसदों को (मालवा-निमाड़, ग्वालियर-चंबल , महालकोशल ,विंध्य आदि क्षेत्रों में ) उतारा गया है उनकी परेशानी टिकिटों के बँटवारे को लेकर सड़कों पर उपजे राज्यव्यापी असंतोष से लगाकर शिवराज सिंह (Shivraj Singh) तक फैली नाराज़गी ने बढ़ा दी है। अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए पिछले साढ़े चार साल से शिवराज सिंह (Shivraj Singh) के कामकाज पर ही निर्भर रहने वाले इन दिग्गज उम्मीदवारों के सामने चुनौती विधानसभा जीतने के साथ-साथ प्रधानमंत्री के लिए लोकसभा की ज़मीन तैयार करने की भी है।
भाजपा में नीचे तक जानकारी है कि पार्टी के गड्ढे हिमाचल, कर्नाटक और बिहार (कुल 72 लोकसभा सीटें) ने गहरे कर दिये हैं। ऐसी स्थिति में पार्टी मध्यप्रदेश (MP) और अन्य दो राज्यों में कोई और क्षति बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। तीनों राज्यों की कुल 65 सीटों में भाजपा के पास अभी 62 हैं। हक़ीक़त यह भी है कि प्रधानमंत्री ही नहीं ,राहुल गांधी के लिए भी कांग्रेस का चुनाव जीतना उतना ही ज़रूरी हो गया है। भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए लड़ाई 2018 और 2019 से अलग बन गई है।
अंत में यह कि तमाम मंत्री-सांसदों को जो पिछले चुनावों तक दूसरों को टिकिट बाँटा करते थे, उनसे बग़ैर पूछे विधानसभा चुनावों (Assembly elections) में उतार देने के नतीजे अगर उल्टे पड़ गए तब क्या सीन बनेगा ? सवाल यह भी है कि ये दिग्गज अगर प्रधानमंत्री की उम्मीदों के मुताबिक़ परिणाम नहीं दे पाए तो मोदी इनसे ज़्यादा भारी उम्मीदवार लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) के लिये कहाँ से लाएँगे ? क्या विधानसभा चुनाव में इन दिग्गजों की हार-जीत और हरेक के संसदीय क्षेत्र में प्राप्त होने वाले मतों की गिनती से ही लोकसभा चुनावों की तारीख़ें और प्रधानमंत्री की जय-पराजय तय होने वाली है ? हाल-फ़िलहाल तो ऐसा ही नज़र आ रहा है !