पश्चिमी यूपी की सियासत में नया मोड़: अमीर आलम खान का सियासी दांव

अमीर आलम खान का रालोद से किनारा और आसपा में नई सियासी पारी

पूर्व सांसद अमीर आलम खान और उनके बेटे नवाजिश आलम खान ने जयंत चौधरी की रालोद से नाता तोड़कर चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी (आसपा) का दामन थामा। इस कदम से पश्चिमी यूपी में दलित-मुस्लिम गठजोड़ की राजनीति को नई दिशा मिलने की संभावना बढ़ गई है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया मोड़ आया है। पूर्व सांसद अमीर आलम खान और उनके बेटे नवाजिश आलम खान ने जयंत चौधरी की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) से नाता तोड़कर चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी (आसपा) का दामन थाम लिया। इस कदम ने क्षेत्र की राजनीति में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। क्या यह बदलाव किसी व्यक्तिगत नाराजगी का नतीजा है, या फिर पश्चिमी यूपी में एक नए दलित-मुस्लिम गठजोड़ की शुरुआत हो रही है?

राजनीतिक हाशिए पर धकेले जाने की नाराजगी

अमीर आलम खान और उनके बेटे नवाजिश आलम ने रालोद में रहते हुए 2019, 2022 और 2024 के चुनावों में टिकट के लिए दावा किया, लेकिन उन्हें मौका नहीं मिला। विशेष रूप से मीरापुर विधानसभा उपचुनाव में जब भाजपा समर्थित उम्मीदवार को टिकट दिया गया, तो उनकी नाराजगी और बढ़ गई। यह साफ संकेत था कि रालोद में उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को जगह नहीं मिल रही थी। यही वजह रही कि उन्होंने जयंत चौधरी से दूरी बना ली और चंद्रशेखर आजाद की पार्टी को नया मंच बनाया।

क्या मजबूत होगा दलित-मुस्लिम गठबंधन?

चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में आसपा खुद को दलित राजनीति की धुरी के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रही है। अमीर आलम के शामिल होने से पार्टी को पश्चिमी यूपी में मुस्लिम समुदाय का समर्थन मिलने की संभावना है। सवाल यह है कि क्या यह गठजोड़ वास्तव में राजनीतिक समीकरण बदल सकता है?

राजनीतिक हकीकत: यूपी की राजनीति में दलित और मुस्लिम समुदायों का गठबंधन नया नहीं है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने कई बार इस समीकरण को अपनाने की कोशिश की, लेकिन चुनावी सफलता नहीं मिली। क्या चंद्रशेखर इस फॉर्मूले को नई मजबूती दे पाएंगे?

क्षेत्रीय प्रभाव: अमीर आलम खान चार दशकों से पश्चिमी यूपी की राजनीति में सक्रिय हैं। उनका प्रभाव शामली, मुजफ्फरनगर और आसपास के जिलों में रहा है। लेकिन क्या यह प्रभाव इतना मजबूत है कि वह रालोद और भाजपा जैसी पार्टियों को चुनौती दे सकें?

क्या यह सिर्फ चुनावी रणनीति है?

अमीर आलम का यह फैसला केवल 2027 के विधानसभा चुनावों की तैयारी के रूप में देखा जा रहा है। यह भी संभव है कि यह रालोद पर दबाव बनाने की रणनीति हो, ताकि भविष्य में वे बेहतर सौदेबाजी कर सकें।

अमीर आलम और चंद्रशेखर आजाद का यह गठबंधन एक नए राजनीतिक समीकरण की ओर इशारा करता है, लेकिन इसका वास्तविक असर आने वाले चुनावों में ही साफ होगा। क्या यह गठबंधन सिर्फ नाराज नेताओं की राजनीतिक शरण बनेगा, या फिर यह दलित-मुस्लिम गठजोड़ को नई ताकत देगा? यह सवाल अभी खुला है।

चंद्रशेखर आजाद का बयान

आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने जनसभा में कहा कि अमीर आलम और नवाजिश आलम के शामिल होने से पश्चिमी यूपी में दलित-मुस्लिम गठजोड़ को मजबूती मिलेगी और उनके हक की लड़ाई को नई ताकत मिलेगी।

 

 क्या कहती है खबर?

पूर्व सांसद अमीर आलम खान और उनके बेटे नवाजिश आलम खान ने रालोद (राष्ट्रीय लोकदल) छोड़कर आसपा (आजाद समाज पार्टी) का दामन थाम लिया। यह घटनाक्रम उत्तर प्रदेश, खासकर पश्चिमी यूपी की राजनीति में हलचल पैदा कर सकता है।

मुख्य बिंदु:

अमीर आलम खान और नवाजिश आलम ने 2018 में रालोद ज्वाइन किया था लेकिन पिछले कुछ चुनावों में उन्हें टिकट नहीं मिला।

2019, 2022, और 2024 के चुनावों में टिकट के लिए प्रयास किए लेकिन सफलता नहीं मिली।

मीरापुर उपचुनाव में भी रालोद ने उन्हें टिकट नहीं दिया, जिससे नाराजगी बढ़ी।

गढ़ीपुख्ता (शामली) में भारी भीड़ के बीच दोनों नेताओं ने चंद्रशेखर आजाद की मौजूदगी में आसपा की सदस्यता ग्रहण की

चंद्रशेखर आजाद ने इसे “दलित-मुस्लिम गठबंधन की मजबूती” बताया।

 इस घटनाक्रम के मायने क्या हैं?

1. व्यक्तिगत नाराजगी या सियासी रणनीति?

अमीर आलम खान रालोद में आठ साल तक रहे लेकिन उन्हें चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिला। यह उनके पार्टी छोड़ने का मुख्य कारण रहा। सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ व्यक्तिगत नाराजगी थी, या फिर इसके पीछे कोई राजनीतिक रणनीति छिपी हुई है?

अगर यह नाराजगी होती, तो वह किसी अन्य मजबूत क्षेत्रीय दल (जैसे सपा या बसपा) में भी जा सकते थे।

लेकिन उन्होंने चंद्रशेखर आजाद की पार्टी को चुना, जो बताता है कि वह एक नए दलित-मुस्लिम गठबंधन की संभावना तलाश रहे हैं

2. क्या दलित-मुस्लिम गठबंधन सफल होगा?

पश्चिमी यूपी में मुस्लिम वोट बैंक लंबे समय से सपा और बसपा के बीच बंटता रहा है।

बसपा का दलित-मुस्लिम गठबंधन पहले भी देखा गया था लेकिन लंबे समय तक नहीं चल पाया।

सपा को मुस्लिमों का समर्थन मिलता रहा है, लेकिन वह दलितों को अपने पक्ष में करने में असफल रही।

चंद्रशेखर आजाद दलित राजनीति का नया चेहरा बनना चाहते हैं, और अगर मुस्लिम वोट बैंक भी उनकी ओर जाता है, तो यह रालोद, बसपा और सपा के लिए खतरा बन सकता है

3. रालोद के लिए झटका या मामूली नुकसान?

रालोद को जाट समुदाय का समर्थन प्राप्त है, लेकिन वह मुस्लिम और दलितों के वोट बैंक को जोड़ने में असफल रहा है।

अमीर आलम खान और नवाजिश आलम खान मुस्लिम समुदाय से आते हैं, इसलिए उनका जाना रालोद के मुस्लिम वोट बैंक को प्रभावित कर सकता है

हालांकि, रालोद का मुख्य आधार जाट वोटर हैं, इसलिए यह देखना होगा कि अमीर आलम के जाने से रालोद पर कितना असर पड़ता है

4. 2027 के यूपी चुनाव पर असर?

अगर चंद्रशेखर आजाद की आसपा को मुस्लिमों का समर्थन मिलता है, तो यह पश्चिमी यूपी की विधानसभा सीटों पर असर डाल सकता है

अमीर आलम खान के साथ स्थानीय मुस्लिम नेता भी आसपा से जुड़ते हैं, तो यह भविष्य में रालोद और बसपा के लिए चिंता का विषय हो सकता है

हालांकि, यह गठबंधन कितना प्रभावी होगा, यह आने वाले उपचुनावों और राजनीतिक समीकरणों पर निर्भर करेगा

अमीर आलम खान का रालोद छोड़कर आसपा में शामिल होना केवल दल-बदल की खबर नहीं है, बल्कि यह पश्चिमी यूपी की राजनीति में एक बड़े बदलाव की ओर संकेत करता है। अगर चंद्रशेखर आजाद और अमीर आलम खान मुस्लिम-दलित वोटों को एकजुट करने में सफल होते हैं, तो यह भविष्य में यूपी की राजनीति में एक नया समीकरण बना सकता है। हालांकि, इसके लिए स्थानीय और जमीनी स्तर पर मजबूत संगठन खड़ा करना जरूरी होगा

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