
The exemplary virtue of Muharram and the story of the sacrifice of Imam Hussain @Shah Times
मोहर्रम: इस्लामी साल की इबादत से भरी शुरुआत
कर्बला की कुर्बानी, यजीद का फितना और हुसैन की कामयाबी
मोहर्रम की फज़ीलत और इमाम हुसैन की शहादत
जब भी नया साल आता है, तो ज़्यादातर इंसानों के ज़ेहन में खुशियां, जश्न और उम्मीद की लहरें दौड़ती हैं। लेकिन मज़हबे-इस्लाम का नया साल कुछ अलग पैग़ाम लेकर आता है। हिजरी साल का पहला महीना मोहर्रम ना सिर्फ इस्लामी कैलेंडर का पहला पन्ना है, बल्कि यह महीना इबादत, सब्र और कुर्बानी की बे-मिसाल मिसाल बन चुका है।
🔹 मोहर्रम: एक पवित्र और मोअतबर महीना
मोहर्रम को इस्लाम के चार मोअतबर (सम्मानित) महीनों में शुमार किया गया है जिनमें लड़ाई झगड़े से सख्त मना किया गया है। यह महीना खुदा की रहमतों और सब्र की तरबियत का पैगाम देता है।
🔹 इतिहास की दो अज़ीम घटनाएं
इस्लामी इतिहास में मोहर्रम का महीना दो अहम वाक़ियात की वजह से हमेशा यादगार रहेगा:
- हज़रत मूसा अलैहि सलाम की फतह: जब उन्होंने फिरऔन की ताकत को शिकस्त दी।
- कर्बला की शहादत: 61 हिजरी में इमाम हुसैन (अलै.) ने इस्लाम की हिफाजत में अपने पूरे परिवार के साथ करबला के मैदान में कुर्बानी दी।
🔹 कर्बला का पैग़ाम: हक़ और बातिल की जंग
हुकूमत की लालच और इस्लामी उसूलों की तौहीन के खिलाफ इमाम हुसैन (अलै.) ने यज़ीद इब्न मुआविया की बैअत से इंकार कर दिया। यज़ीद एक फासिक और जालिम शासक था जो इस्लामी उसूलों को पामाल कर रहा था।
इमाम हुसैन (अलै.) ने कहा:
“मैं अपने नाना की उम्मत की इस्लाह के लिए कयाम कर रहा हूं।”
उन्होंने करबला में तीन दिन की भूख-प्यास के बावजूद इस्लाम के उसूलों को झुकने नहीं दिया। उनका मकसद दुनिया नहीं, रज़ा-ए-इलाही था।
🔹 जंग या इस्लाम की हिफाज़त?
कुछ लोग सवाल करते हैं: क्या यह जंग हुकूमत के लिए थी या दीन के लिए? पैग़म्बरे इस्लाम की हदीसें और कुरान की आयतें इस बात को साफ करती हैं कि यह जंग रब की राह में थी।
पैग़म्बर-ए-इस्लाम ने फ़रमाया:
“हसन और हुसैन जन्नत के नौजवानों के सरदार हैं।”
जिनकी रूहानी पाकीज़गी की गवाही खुद कुरआन देता है, वो हुकूमत के लिए नहीं, हक़ के लिए खड़े हुए थे।
🔹 पैग़ाम-ए-कर्बला: हर दौर के लिए
कर्बला सिर्फ 1400 साल पहले का वाकिया नहीं, यह हर दौर का पैगाम है। यह बताता है कि जब भी बात हक़ और बातिल की हो, तो चुप नहीं बैठना चाहिए। हुसैन ने सिर झुकाना नहीं सिखाया, बल्कि सिर कटवा कर भी हक़ पर अडिग रहने की मिसाल कायम की।
🔹 यज़ीद हार गया, हुसैन जीत गए
इतिहास गवाह है कि हुसैन (अलै.) को शहीद करके भी यज़ीद अपनी जालिम ताकत को अमर नहीं कर सका, जबकि हुसैन का नाम हर मज़लूम की आवाज़ और हर इंसाफ पसंद दिल की धड़कन बन गया।
लखनऊ के मशहूर शिया धर्मगुरु डॉ. सिब्तेन नूरी को मिला पिता का अनमोल पोर्ट्रेट
