
National Ulama Council protest demanding SC reservation for Dalit Muslims
राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल का प्रदर्शन – Article 341 से धार्मिक प्रतिबंध हटाने की मांग
लखनऊ में ‘अन्याय दिवस’ पर ओलमा कौंसिल का प्रदर्शन
राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल ने ‘अन्याय दिवस’ पर अनुच्छेद 341 से धार्मिक प्रतिबंध हटाकर पसमांदा मुसलमानों को SC आरक्षण देने की मांग की।
लखनऊ,( Shah Times)। राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल (Rashtriya Ulama Council) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग की है कि अगर भारतीय जनता पार्टी (BJP) सच में पसमांदा मुसलमानों की हितैषी है, तो वह संविधान के अनुच्छेद 341 (Article 341) से धार्मिक प्रतिबंध हटाए और मुस्लिम व ईसाई दलितों को भी अनुसूचित जाति (SC) आरक्षण प्रदान करे।
यह मांग 10 अगस्त को ‘अन्याय दिवस’ (Anyay Diwas) के अवसर पर विभिन्न राज्यों में आयोजित कार्यक्रमों में उठाई गई। कौंसिल के अनुसार, 10 अगस्त 1950 को तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने एक विशेष अध्यादेश लाकर संविधान में संशोधन किया था, जिसके तहत अनुच्छेद 341 में धार्मिक प्रतिबंध जोड़े गए और मुस्लिम व ईसाई दलितों को आरक्षण से वंचित कर दिया गया।
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क्यों मनाया गया ‘अन्याय दिवस’?
राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल का कहना है कि यह दिन भारतीय दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों के लिए एक काला दिन है, क्योंकि इस संशोधन के बाद से उन्हें संवैधानिक अधिकारों और SC कोटे से बाहर कर दिया गया।





कौंसिल ने कहा कि यह केवल धार्मिक आधार पर भेदभाव है, जबकि भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता (Secularism) और सभी नागरिकों के लिए समान अवसर की गारंटी देता है।
देशभर में प्रदर्शन
‘अन्याय दिवस’ के अवसर पर आसाम, दिल्ली, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में प्रदर्शन और ज्ञापन कार्यक्रम आयोजित किए गए।
इनमें लखनऊ, आज़मगढ़, जौनपुर, कुशीनगर, बहराइच, कानपुर, फिरोजाबाद, शाहजहांपुर, अलीगढ़, चंदौली, जालौन-उरई, हमीरपुर, सहारनपुर समेत कई जगहों पर कौंसिल के कार्यकर्ताओं ने जिलाधिकारी कार्यालय पर पहुंचकर प्रधानमंत्री को संबोधित ज्ञापन सौंपा।
कौंसिल की मुख्य मांगें
अनुच्छेद 341 से धार्मिक प्रतिबंध हटाना।
मुस्लिम और ईसाई दलितों को SC आरक्षण में शामिल करना।
धर्म के आधार पर भेदभाव समाप्त करना।
सभी भारतीय नागरिकों को समान संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित करना।
कौंसिल के नेताओं का बयान
राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल के नेताओं ने कहा —
“अगर BJP सच में पसमांदा मुसलमानों की हितैषी है तो उसे केवल भाषणों से आगे बढ़कर ठोस कदम उठाने होंगे। अनुच्छेद 341 से धार्मिक प्रतिबंध हटाना ही असली न्याय होगा।”
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
अनुच्छेद 341 भारत में अनुसूचित जातियों की सूची निर्धारित करता है।
मूल रूप से इसमें किसी भी धर्म का प्रतिबंध नहीं था, लेकिन 10 अगस्त 1950 को तत्कालीन सरकार ने संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश में संशोधन कर SC आरक्षण का लाभ केवल हिंदू दलितों तक सीमित कर दिया।
बाद में इसे 1956 में सिखों और 1990 में बौद्धों के लिए विस्तारित किया गया, लेकिन मुस्लिम और ईसाई दलितों को आज तक इससे बाहर रखा गया।
राजनीतिक पहलू
पिछले कुछ वर्षों में पसमांदा मुसलमानों का मुद्दा भारतीय राजनीति में चर्चा का विषय रहा है। BJP सहित कई पार्टियों ने इस वर्ग के साथ राजनीतिक संवाद बढ़ाया है, लेकिन SC आरक्षण की बहाली का मुद्दा अब भी लंबित है।
कौंसिल का कहना है कि अगर सरकार इस दिशा में कदम उठाती है, तो यह ऐतिहासिक सुधार होगा और लाखों पसमांदा मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार आएगा।
राष्ट्रीय ओलमा कौन्सिल बुंदेलखंड यूनिट ने पीएम को सौंपा ज्ञापन: मुस्लिम पसमांदा का छीना हुआ आरक्षण लागू करो

राष्ट्रीय ओलमा कौन्सिल बुंदेलखंड यूनिट ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक अहम ज्ञापन सौंपा है जिसमें 1950 के अनुच्छेद 341(3) में हुए धार्मिक प्रतिबंधों को वापस लेकर मुस्लिम पसमांदा समाज को उनका छीना हुआ SC आरक्षण तुरंत लागू करने की मांग की गई है।
एडवोकेट मुबारक खान, जो कि कौंसिल के बुंदेलखंड प्रभारी हैं, ने कहा कि 1950 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अनुच्छेद 341(3) में धार्मिक प्रतिबंध लगाकर केवल हिन्दू समुदाय को आरक्षण दिया, जबकि उस वक्त तक सभी धर्मों के गरीब और दलित वर्गों को आरक्षण उपलब्ध था।
‘पसमांदा मुसलमानों की हितैषी हो तो कांग्रेस की गलती सुधारो’
मुबारक खान ने साफ़ कहा,
“यदि केंद्र सरकार सच में मुस्लिम पसमांदा की भलाई चाहती है, तो 1950 में हुई इस संवैधानिक गलती को सुधारना होगा। यह मौका ‘सबका साथ, सबका विकास’ के सिद्धांत को सच करने का सबसे सही वक्त है।”
उन्होंने आगे कहा कि राजनीतिक दल ज़्यादातर मुस्लिम वोट बैंक को भुनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनके असली मुद्दों पर कोई ठोस कदम नहीं उठाते।
“अगर बीजेपी सरकार काम करना चाहती है, तो महंगाई, शिक्षा, रोजगार जैसे मुद्दों पर ध्यान दें, न कि देश में नफ़रत फैलाने में।”
अनुच्छेद 341(3) का ऐतिहासिक सच
1936 तक ब्रिटिश शासन और स्वतंत्रता के बाद तक अनुसूचित जातियों (SC) के तहत सभी धर्मों के गरीब लोगों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण मिलता था। लेकिन 10 अगस्त 1950 को संविधान के अनुच्छेद 341(3) में एक विशेष संशोधन हुआ, जिसमें ‘हिंदू’ शब्द शामिल कर मुस्लिम और क्रिश्चियन दलितों को आरक्षण से वंचित कर दिया गया।
बाद में 1956 में सिखों और 1990 में बौद्धों को भी SC में शामिल किया गया, लेकिन मुस्लिम दलित आज तक इस सूची से बाहर हैं।
सामाजिक और न्यायिक रिपोर्टें: मुस्लिम दलितों की हालत
जस्टिस सच्चर समिति (2006) और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग (2007) की रिपोर्टें स्पष्ट करती हैं कि मुस्लिम पसमांदा वर्ग की सामाजिक-आर्थिक हालत अनुसूचित जातियों से भी बदतर है।
दोनों समितियों ने मुस्लिम दलितों को अनुसूचित जाति श्रेणी में शामिल करने और सरकारी मदद देने की सिफारिश की, लेकिन तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की।
वर्तमान सरकार की भूमिका
वर्तमान भाजपा सरकार ने 2023 में जस्टिस के.जी. बालकृष्णन आयोग गठित किया, लेकिन इस मुद्दे पर कोई प्रभावी कदम नहीं लिया गया।
मुबारक खान ने कहा,
“सामाजिक न्याय की बात करने वाले राजनीतिक दल मुस्लिम समाज को वोट बैंक तक सीमित कर देख रहे हैं, उनकी भलाई के लिए कोई गंभीर नीति नहीं बना रहे।”
राष्ट्रीय ओलमा कौन्सिल बुंदेलखंड की मांग
कौंसिल ने प्रधानमंत्री से निवेदन किया है कि वे संवैधानिक आदेशों के अनुरूप मुस्लिम पसमांदा को अनुसूचित जाति सूची में शामिल करें और उन्हें सरकारी नौकरियों व शिक्षा में आरक्षण का लाभ तुरंत प्रदान करें।
ज्ञापन जिलाधिकारी, जालौन को सौंपा गया, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि संविधान की मूल भावना के अनुसार सभी धर्मों के गरीब दलितों को समान अधिकार मिलना चाहिए।
समाज में प्रभाव
मुस्लिम पसमांदा वर्ग के लिए आरक्षण की बहाली से न केवल उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार होगा, बल्कि यह भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्षता और समानता के सिद्धांत को भी सशक्त बनाएगा।
यह कदम देश के उन वंचित वर्गों को न्याय देगा, जिन्हें सालों से धार्मिक भेदभाव के कारण मुख्यधारा से अलग रखा गया है।
नतीजा
राष्ट्रीय ओलमा कौन्सिल की यह पहल एक महत्वपूर्ण आवाज है, जो केंद्र सरकार से मुस्लिम दलितों के प्रति न्याय और संवैधानिक अधिकारों की बहाली की मांग कर रही है।
अब देखना होगा कि केंद्र सरकार इस संवेदनशील मुद्दे पर क्या कदम उठाती है और कब तक पसमांदा मुसलमानों को उनके अधिकार वापस मिलते हैं।
‘अन्याय दिवस’ केवल एक विरोध दिवस नहीं, बल्कि संवैधानिक न्याय की मांग का प्रतीक बन चुका है। अब यह देखना बाकी है कि केंद्र सरकार और BJP इस संवेदनशील मुद्दे पर क्या रुख अपनाती है।