
तमिलनाडु से दिल्ली तक: राधाकृष्णन का सियासी सफ़र
उपराष्ट्रपति पद पर एनडीए का दांव: राधाकृष्णन की एंट्री का मतलब
एनडीए ने सीपी राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया। उनके चयन से भाजपा की साउथ इंडिया रणनीति और राजनीतिक संकेतों पर गहराई से पढ़ें।
भारत की सियासत में उपराष्ट्रपति का पद सिर्फ़ एक Constitutional responsibility नहीं बल्कि Symbolic authority भी है। उपराष्ट्रपति राज्यसभा के सभापति होते हैं और भारतीय लोकतंत्र के parliamentary framework में उनका किरदार अहम माना जाता है। हाल ही में जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफ़े के बाद यह पद खाली हो गया और अब एनडीए ने अपने उम्मीदवार के तौर पर सीपी राधाकृष्णन के नाम की घोषणा कर दी है। यह चयन महज़ एक नामांकन नहीं बल्कि BJP और NDA की Long-term political strategy का हिस्सा प्रतीत होता है।
सीपी राधाकृष्णन का सियासी सफ़र
तमिलनाडु से ताल्लुक रखने वाले चंद्रपुरम पोन्नुसामी राधाकृष्णन का सियासी जीवन काफ़ी लंबा और विविधतापूर्ण रहा है। किशोरावस्था से ही वो RSS के स्वयंसेवक रहे और 1974 में जनसंघ की राज्य कार्यकारिणी में शामिल हुए। 1996 में तमिलनाडु भाजपा के सचिव बने और 1998 व 1999 में कोयंबटूर से लोकसभा सांसद चुने गए। 2004 से 2007 तक तमिलनाडु भाजपा अध्यक्ष के रूप में उन्होंने नदियों को जोड़ने और सामाजिक मुद्दों पर लंबी यात्राएं कीं। उनके समर्थक उन्हें “तमिलनाडु का मोदी” कह कर बुलाते हैं।
राज्यपाल के तौर पर भी राधाकृष्णन ने झारखंड, तेलंगाना और पुड्डुचेरी में काम किया और मौजूदा समय में वो महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं। प्रशासनिक अनुभव, संगठनात्मक क्षमता और भाजपा के प्रति unwavering loyalty उन्हें एनडीए का स्वाभाविक विकल्प बनाती है।
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राजनीतिक संकेत और संदेश
NDA का यह फ़ैसला केवल एक vacancy को भरने भर तक सीमित नहीं है बल्कि यह broader political messaging का हिस्सा है। तमिलनाडु जैसे राज्य में जहां भाजपा अभी भी एक marginal शक्ति है, वहां से किसी नेता को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना साफ़ तौर पर South India में अपनी political positioning मज़बूत करने की कोशिश है।
यह BJP के लिए Double Advantage की स्थिति है। एक तरफ़ वो यह साबित कर सकती है कि पार्टी national representation में South को भी अहमियत देती है और दूसरी तरफ़ regional aspirations को integrate करने का संदेश भी देती है।
विपक्ष की प्रतिक्रिया और संभावित समीकरण
जेपी नड्डा ने अपने बयान में साफ़ कहा कि NDA विपक्ष से भी support मांगेगा ताकि निर्विरोध चुनाव संभव हो सके। यह अपील एक तरह का Political Outreach है, लेकिन Indian politics की bitter realities को देखते हुए यह निर्विरोध चुनाव practically कठिन नज़र आता है। विपक्ष अपनी राजनीतिक ground खोना नहीं चाहता और संभव है कि वे अपना उम्मीदवार मैदान में उतारें।
फिर भी, numbers का खेल NDA के पक्ष में है। Lok Sabha और Rajya Sabha के मिलाकर 788 सांसद वोट डालते हैं और इसमें NDA comfortably ahead है। ऐसे में अगर विपक्ष उम्मीदवार खड़ा भी करता है तो outcome largely predictable है।
भारतीय लोकतंत्र में उपराष्ट्रपति की भूमिका
Vice President का constitutional role भले ही limited हो लेकिन symbolic importance बहुत बड़ी होती है। राज्यसभा की कार्यवाही संभालना, parliamentary decorum को बनाए रखना और सरकार व विपक्ष के बीच Balance बनाना उपराष्ट्रपति की अहम जिम्मेदारी होती है।
राधाकृष्णन का प्रशासनिक अनुभव और लंबे राजनीतिक करियर उन्हें इस पद के लिए एक संतुलित और सक्षम विकल्प बनाता है। अगर वह निर्वाचित होते हैं तो राज्यसभा के संचालन में उनका अनुभव और संगठनात्मक क्षमता निश्चित तौर पर मददगार साबित होगी।
दक्षिण भारत में भाजपा की रणनीति
BJP का सबसे बड़ा political challenge South India में अपनी जड़ें मजबूत करना है। कर्नाटक को छोड़कर पार्टी अभी तक Tamil Nadu, Kerala, Telangana और Andhra Pradesh में decisive success हासिल नहीं कर पाई है। ऐसे में उपराष्ट्रपति पद के लिए एक South Indian face का चयन symbolically महत्वपूर्ण है।
यह selection NDA के लिए electoral arithmetic से भी ज़्यादा political optics का हिस्सा है। भाजपा South में अपनी relevance को showcase करना चाहती है और यह निर्णय उसी larger canvas का एक छोटा पर अहम हिस्सा है।
व्यक्तिगत और सामाजिक छवि
राधाकृष्णन न सिर्फ़ एक seasoned politician हैं बल्कि उनकी social image भी काफी clean मानी जाती है। RSS से ideological roots और BJP संगठन में deep involvement उन्हें core cadre में लोकप्रिय बनाता है। उनके leadership under विभिन्न campaigns और social causes, जैसे समान नागरिक संहिता और नशामुक्ति अभियान, उनकी बहुआयामी छवि को मज़बूत करते हैं।
संभावित चुनौतियां
हालांकि उपराष्ट्रपति चुनाव का outcome लगभग तय है, लेकिन राधाकृष्णन के सामने वास्तविक challenge उनके कार्यकाल के दौरान आएगा। भारतीय संसद में अक्सर सत्ता और विपक्ष के बीच तनाव बढ़ता है, और ऐसे में राज्यसभा की proceedings को handle करना आसान काम नहीं होता। Jagdeep Dhankhar ने भी अपने कार्यकाल में frequent tussle देखा था।
राधाकृष्णन को neutrality, assertiveness और democratic spirit का संतुलन बनाना होगा ताकि वे उपराष्ट्रपति की constitutional dignity को intact रख सकें।
निष्कर्ष
NDA का सीपी राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना केवल एक procedural announcement नहीं बल्कि एक सोची-समझी political strategy है। यह फैसला South India में अपनी presence दर्ज कराने की कोशिश भी है और party loyalty के लिए एक reward भी।
विपक्ष अगर चाहे तो symbolic contest कर सकता है, मगर parliamentary arithmetic NDA के favor में है। ऐसे में राधाकृष्णन का उपराष्ट्रपति बनना लगभग तय है।
Indian democracy में यह बदलाव उस larger narrative का हिस्सा है जहां BJP धीरे-धीरे अपनी national identity को और inclusive बनाने की कोशिश कर रही है। आने वाले सालों में यह निर्णय भाजपा को South India में कितना political dividend देगा, यह देखना दिलचस्प होगा।