
Jamiat Ulama-e-Hind petition on madrasa sealing; High Court issues notice to Uttarakhand Government
मौलाना अरशद मदनी बोले: मदरसों को बंद करना हमारी तहज़ीब पर हमला
उत्तराखंड में मदरसों की सीलिंग पर रोक, हाईकोर्ट में नई कानूनी जंग
जमीयत उलमा-ए-हिंद की याचिका पर हाईकोर्ट ने उत्तराखंड सरकार से जवाब मांगा। मदरसों की सीलिंग पर सियासी और संवैधानिक जंग गहराई।
New Delhi,( Shah Times) । भारत की तालीमी और तहज़ीबी विरासत में मदरसे सिर्फ़ धार्मिक तालीम के मरकज़ नहीं बल्कि सामाजिक-इंसानी ख़िदमत के भी गवाह हैं। लेकिन हाल के बरसों में मदरसों पर सरकारों की सख़्त कार्रवाई और सीलिंग के फ़ैसले ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बना दिया है। उत्तराखंड में मदरसों को सील करने के खिलाफ जमीयत उलमा-ए-हिंद की ताज़ा याचिका ने एक बार फिर सवाल खड़ा किया है कि क्या अल्पसंख्यकों को मिला संवैधानिक हक़ महज़ काग़ज़ी है या उसका ज़मीनी हक़ीक़त से भी वास्ता है।
अदालत का रुख़ और कानूनी पेचीदगियाँ
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप
अक्टूबर 2024 में तत्कालीन चीफ़ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने मदरसों के खिलाफ कार्रवाई पर रोक लगाते हुए साफ़ कहा था कि जब तक अदालत से नया हुक्म न आए, किसी भी राज्य को मदरसों को निशाना बनाने का हक़ नहीं। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा और उत्तराखंड में मदरसों की सीलिंग और नोटिस का सिलसिला जारी रहा।
मदरसों की सीलिंग पर रोक, हाईकोर्ट में नई कानूनी जंग
उत्तराखंड हाईकोर्ट में सुनवाई
जमीयत उलमा-ए-हिंद ने इसी कार्रवाई को चुनौती दी और कहा कि मदरसा एजुकेशन बोर्ड एक्ट 2016 में कहीं भी अनिवार्य रजिस्ट्रेशन की बात नहीं कही गई है। साथ ही राइट टू एजुकेशन (2012 संशोधन) में धार्मिक संस्थानों को स्पष्ट छूट दी गई है। यानी बिना रजिस्ट्रेशन मदरसों को गैर-क़ानूनी करार देना संविधान के खिलाफ़ है।
बहस: मदरसे सिर्फ़ मज़हबी तालीम के मरकज़ या उससे आगे?
जमीयत का पक्ष
वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने अदालत में कहा कि यह मामला सिर्फ़ रजिस्ट्रेशन का नहीं बल्कि अल्पसंख्यकों के संवैधानिक हक़ का है। संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19, 25, 26 और 30 साफ़ तौर पर अल्पसंख्यकों को अपने तालीमी इदारों की हिफ़ाज़त का हक़ देता है।
सरकार का जवाब
राज्य सरकार ने दलील दी कि जमीयत इस मामले की प्रत्यक्ष प्रभावित पार्टी नहीं है। लेकिन अदालत ने सरकार से छह हफ़्ते में जवाब दाख़िल करने का आदेश दिया।
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मौलाना अरशद मदनी का बयान: “मदरसे हमारी धड़कन हैं”
जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि मदरसों को गैर-क़ानूनी ठहराना आज़ादी की जंग में उलमा की भूमिका को भुलाने की कोशिश है। उन्होंने याद दिलाया कि दारुल उलूम देवबंद की बुनियाद अंग्रेज़ों से जंग-ए-आज़ादी के लिए रखी गई थी और आज उसी विरासत को बदनाम करने की कोशिश हो रही है।
उनका कहना है कि मदरसों को निशाना बनाना दरअसल मुसलमानों के दीन और तालीमी हक़ को मिटाने की साज़िश है।
राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव
धार्मिक अल्पसंख्यकों में बेचैनी
मदरसे केवल मज़हबी तालीम के मरकज़ नहीं बल्कि करोड़ों बच्चों की बुनियादी तालीम का ज़रिया हैं। कार्रवाई से यह संदेश गया कि राज्य सिर्फ़ एक तबक़े की तालीमी विरासत को टारगेट कर रहा है।
सियासी रणनीति या असल सुधार?
कुछ हलक़े इसे सुधार की मुहिम बता रहे हैं ताकि शिक्षा को आधुनिक धारा से जोड़ा जा सके। लेकिन आलोचकों का कहना है कि अगर सुधार ही मक़सद होता तो वैदिक पाठशालाओं और गुरुकुलों पर भी यही सख़्ती होती।
संवैधानिक सवाल
क्या सरकार को यह हक़ है कि वह धार्मिक तालीमी संस्थानों की बुनियादी पहचान पर सवाल उठाए? यह वही सवाल है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट के कई फ़ैसले पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि राज्य की दख़लंदाज़ी सीमित होनी चाहिए।
विपक्ष और सामाजिक संगठनों की प्रतिक्रिया
विपक्षी दलों ने इसे अल्पसंख्यकों के हक़ पर सीधा हमला बताया। कई सिविल सोसाइटी ग्रुप्स का कहना है कि यह कार्रवाई न सिर्फ़ धार्मिक स्वतंत्रता बल्कि शिक्षा के अधिकार की भी तौहीन है।
अदालत की अगली सुनवाई तय करेगी रुख़
यह मामला अब सिर्फ़ मदरसों का नहीं बल्कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और शिक्षा की स्वायत्तता की जाँच की कसौटी बन चुका है। अगर अदालत जमीयत की दलीलें मान लेती है तो यह फैसला अल्पसंख्यकों के हक़ की मज़बूत सुरक्षा बनेगा। लेकिन अगर सरकार का पक्ष भारी पड़ता है, तो यह मिसाल भविष्य में दूसरे अल्पसंख्यक संस्थानों को भी प्रभावित कर सकती है।
नतीजा
भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब में मदरसों की बुनियादी भूमिका रही है। इन्हें सील करना केवल इमारतें बंद करना नहीं बल्कि तालीम और तहज़ीब की नसों को काटने जैसा है। लोकतंत्र की मजबूती इसी में है कि हर तबक़े को उसका हक़ मिले और संविधान की हिफ़ाज़त सिर्फ़ किताबों तक सीमित न रहे। अदालत का अगला फ़ैसला इस बहस की असल दिशा तय करेगा।