
Devotees bid farewell to Nanda Devi during Kailash Bidai at Chamoli – Shah Times
नंदा लोकजात: कैलाश विदाई संग आस्था और संस्कृति का संगम
मां नंदा की वार्षिक लोकजात पूर्ण, कैलाश विदाई पर भावुक श्रद्धालु
~ रणबीर नेगी
हिमालयी नंदा लोकजात यात्रा का समापन कैलाश विदाई संग हुआ। आस्था, संस्कृति, समाज सेवा और ग्रामीण सहयोग की अद्भुत मिसाल।
हिमालय की बर्फ़ीली चोटियों, बुग्यालों और लोकधुनों में जब मां नंदा की वार्षिक लोकजात गूंजती है, तो यह सिर्फ़ एक धार्मिक यात्रा नहीं होती बल्कि यह आस्था, सामाजिक सहयोग और सामूहिक स्मृति का जीवंत उत्सव बन जाती है। “जा मेरी गौरा तू, चौखम्भा उकाली..” जैसे लोकगीत सिर्फ़ देवी विदाई नहीं, बल्कि बेटियों की विदाई का भावुक प्रतीक भी हैं। इस वर्ष चमोली से शुरू हुई यह यात्रा, भक्ति, संस्कृति और समाज सेवा का संगम बनकर समाप्त हुई।
नंदा लोकजात का सांस्कृतिक महत्व
नंदा लोकजात को “हिमालय की सबसे बड़ी लोकयात्रा” माना जाता है।
यह सिर्फ़ धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं, बल्कि ग्रामीण समाज के लिए “सामाजिक एकजुटता” का भी प्रतीक है।
महिलाएं अपनी “ध्याण” यानी बेटी के प्रतीक स्वरूप नंदा देवी को विदा करती हैं। आँसुओं में छिपी यह विदाई मातृत्व और स्त्री संवेदना की गहरी झलक है।
यात्रा के दौरान श्रद्धालु “समौण” (खाजा, चूड़ा, बिंदी, चूड़ी, मुंगरी आदि) अर्पित करते हैं, जो “लोक-समर्पण” की परंपरा है।
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लोकगीतों और जागरों का स्वर
जब डोलियां कैलाश विदाई के लिए उठती हैं तो पूरे वातावरण में “जागर” गूंजने लगते हैं।
“मेरी मैत की धियाणी तेरू बाटू हेरदू रोली..” जैसे गीत न सिर्फ़ धार्मिक स्वर, बल्कि “लोकमाताओं की पीड़ा” भी व्यक्त करते हैं।
जागरों में पौराणिक कथाएं, लोककथाएं और देव-आह्वान का अद्भुत संगम मिलता है।
संगीत यहाँ “समाज की आत्मा” का रूप है।
धार्मिक आस्था और लोकमान्यता
मान्यता है कि नंदा देवी कैलाश जाकर “भगवान शिव की संगिनी” के रूप में विराजमान होती हैं।
लोकविश्वास यह भी है कि नंदा लोकजात समाप्त होते ही ठंड की दस्तक शुरू हो जाती है और “पालसी” यानी भेड़-बकरी पालने वाले मैदानी इलाकों की ओर लौटने लगते हैं।
इस यात्रा को “हिमालयी कैलेंडर” का एक मोड़ माना जाता है।
समाज सेवा का आयाम
इस लोकजात यात्रा का एक अनकहा पक्ष “सामाजिक सेवा” भी है।
ग्रामीण क्षेत्रों में हजारों लोग इस दौरान एक-दूसरे के लिए भोजन, आश्रय और सहायता उपलब्ध कराते हैं।
गाँव-गाँव में “लंगर” और “सामूहिक भोज” की परंपरा समाजिक समानता का प्रतीक है।
स्थानीय युवाओं की टोली यात्रियों को मार्गदर्शन, दवाई और पानी उपलब्ध कराती है।
कई सामाजिक संगठन इस यात्रा को “क्लीन ग्रीन लोकजात” के रूप में मनाने लगे हैं, ताकि हिमालयी पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सके।
विश्लेषण: नंदा लोकजात और आधुनिक समाज
नंदा लोकजात का गहरा रिश्ता “हिमालयी पहचान” से है। परंतु आधुनिक समय में इसका स्वरूप बदल रहा है।
पर्यटन दृष्टिकोण: यात्रा में आने वाले लोग अब सिर्फ़ श्रद्धालु नहीं, बल्कि पर्यटक और शोधार्थी भी हैं। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को मज़बूती मिलती है।
डिजिटल दस्तावेज़ीकरण: सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर लोकगीत, डोली यात्रा और बुग्याल के दृश्य साझा हो रहे हैं। इससे यह उत्सव “ग्लोबल ऑडियंस” तक पहुँच रहा है।
चुनौतियाँ: भीड़ प्रबंधन, कचरा, प्लास्टिक प्रदूषण और बुग्याल पारिस्थितिकी पर दबाव बढ़ रहा है।
प्रतिवाद और विमर्श
कुछ लोगों का मानना है कि
अत्यधिक पर्यटन और मीडिया कवरेज से इस लोकजात की आध्यात्मिक गंभीरता कम हो रही है।
कुछ आलोचकों का तर्क है कि यह यात्रा “सिर्फ़ धार्मिक” न होकर “राजनीतिक मंच” भी बन रही है।
वहीं, पर्यावरणविद चेतावनी देते हैं कि अगर बुग्यालों में असंतुलन बढ़ा तो यह लोक-आस्था के साथ पर्यावरणीय संकट भी पैदा कर सकता है।
लेकिन इसके उलट, कई सामाजिक विचारक कहते हैं कि इस तरह की यात्राएँ ही “लोकसंस्कृति को जीवित” रखती हैं और आने वाली पीढ़ियों तक “गाँव-देवता की परंपरा” को पहुँचाती हैं।
निष्कर्ष
नंदा लोकजात सिर्फ़ एक यात्रा नहीं, बल्कि यह “हिमालयी जीवन-दर्शन” है। इसमें धर्म, लोकगीत, स्त्री-शक्ति, समाज सेवा और पर्यावरण चेतना सब कुछ शामिल है।
“जा मेरी गौरा तू…” के साथ जब महिलाएँ माँ नंदा को विदा करती हैं, तो यह लोक-भावना हमें बताती है कि पर्वत, संस्कृति और इंसान का रिश्ता केवल आस्था का नहीं, बल्कि जीवन का है।
आधुनिक समय में ज़रूरत है कि इस यात्रा को “संस्कृति-संरक्षण और पर्यावरण-संतुलन” के साथ आगे बढ़ाया जाए, ताकि नंदा लोकजात आने वाले समय में भी “आस्था और सामाजिक सहयोग” की मिसाल बनी रहे।




