
Displaced villagers of Palla in Chamoli after THDC tunnel blasting caused massive land subsidence.
टीएचडीसी टनल ब्लास्टिंग का कहर: पल्ला गांव दरका, आंदोलन की चेतावनी
पल्ला गांव की त्रासदी,ग्रामीण बोले – “घर उजड़े, अब इंसाफ चाहिए
चमोली के पल्ला गांव में टीएचडीसी की टनल ब्लास्टिंग से भू-धंसाव, 30 परिवार बेघर। ग्रामीणों में आक्रोश और विस्थापन की मांग तेज।
~रणबीर नेगी
Chamoli, (Shah Times)। उत्तराखंड का चमोली जिला एक बार फिर प्राकृतिक आपदा और इंसानी गतिविधि की टकराहट का गवाह बना है। अंबेडकर बस्ती, पल्ला गांव में 30 परिवारों के घर दरारों में तब्दील हो चुके हैं। ग्रामीणों का इल्ज़ाम साफ़ है—टीएचडीसी की विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना के तहत हो रही भारी ब्लास्टिंग ने उनकी ज़मीन और छत छीन ली। सवाल सिर्फ़ भू-धंसाव का नहीं, बल्कि विकास बनाम विस्थापन का है।
विकास की सुरंगें और उजड़े घर
444 मेगावाट की इस हाइड्रो पावर टनल से सरकार “ग्रीन एनर्जी” का दावा करती है।
मगर जमीनी हकीकत ये है कि स्थानीय लोग बेघर हो रहे हैं।
जखोला ग्राम पंचायत के पल्ला गांव में मकानों की नींव हिल गई, दीवारें फट गईं और ज़िंदगी सड़कों पर आ गई।
ग्राम प्रधान लक्ष्मी देवी का बयान बेहद अहम है:
“टनल ब्लास्टिंग से हमारी ज़मीन खिसक रही है। 30 परिवार उजड़ चुके हैं, और खतरा अभी भी बरकरार है। कंपनी को जिम्मेदारी लेनी होगी।”
प्रशासन की तात्कालिक प्रतिक्रिया
तहसील प्रशासन ने प्रभावित परिवारों को बारात घर और स्कूल में शरण दी है।
लेकिन यह समाधान नहीं बल्कि एक “एड-हॉक अरेंजमेंट” है।
ग्रामीणों की मांग है कि उन्हें स्थायी रूप से पुनर्वास (Resettlement) दिया जाए, केवल राहत सामग्री से ज़िंदगी नहीं चलेगी।
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विकास और विनाश का दार्शनिक टकराव
भारत में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स को हमेशा से राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा का हिस्सा माना गया है। मगर सवाल यह है कि—
क्या विकास का मतलब हमेशा स्थानीयों का विस्थापन होगा?
क्या Environmental Impact Assessment (EIA) महज़ औपचारिकता रह गई है?
क्या “सतत विकास” का मॉडल, “स्थानीय समाज की बर्बादी” पर खड़ा किया जा सकता है?
टीएचडीसी प्रोजेक्ट उत्तराखंड में ऊर्जा का स्रोत है, पर क्या यह स्थानीयों के लिए “Energy Poverty” पैदा नहीं कर रहा?
ग्रामीणों का आक्रोश और आंदोलन की चेतावनी
प्रभावित लोग साफ़ कह रहे हैं: अगर उनकी मांगें पूरी नहीं हुईं तो वे जन आंदोलन छेड़ देंगे।
स्थानीय संगठनों का समर्थन भी धीरे-धीरे मिल रहा है।
यह सिर्फ़ पल्ला गांव का मुद्दा नहीं, बल्कि पूरे हिमालयी क्षेत्र का सवाल है।
काउंटरपॉइंट्स: कंपनी और सरकार का पक्ष
कंपनी का तर्क: बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन से राज्य और देश दोनों को फायदा।
सरकार का तर्क: जल विद्युत परियोजना से रोजगार और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास।
तकनीकी बचाव: कंपनियां अक्सर कहती हैं कि “भू-धंसाव प्राकृतिक प्रक्रिया है”, जिसे सीधे ब्लास्टिंग से जोड़ना वैज्ञानिक रूप से सिद्ध नहीं है।
➡ लेकिन सवाल है: अगर यह प्राकृतिक है, तो सिर्फ़ उन्हीं इलाक़ों में क्यों होता है जहाँ भारी निर्माण और ब्लास्टिंग हो रही है?
विशेषज्ञ दृष्टिकोण
पर्यावरणविदों का कहना है कि हिमालय की भौगोलिक संरचना बेहद संवेदनशील है।
सिस्मिक जोन IV & V में आने वाले क्षेत्र में भारी ब्लास्टिंग ज़मीन को अस्थिर बना देती है।
सुरंगों से पानी का प्राकृतिक प्रवाह रुकता है और भू-स्खलन की आशंका बढ़ जाती है।
2013 के केदारनाथ हादसे से लेकर 2021 के ऋषिगंगा-धौलीगंगा त्रासदी तक कई उदाहरण सामने हैं।
सामाजिक-आर्थिक असर
बेघरपन: जिन परिवारों ने जीवन भर की कमाई से मकान बनाए, आज खुले आसमान के नीचे हैं।
मनोवैज्ञानिक असर: आँसू और डर ने लोगों की नींद छीन ली है।
आर्थिक नुकसान: खेतीबाड़ी और रोज़गार दोनों पर सीधा असर।
संस्कृतिक चोट: सदियों से बसे गांव उजड़ रहे हैं, सामाजिक ताना-बाना टूट रहा है।
जन-जन की आवाज़ और मीडिया की भूमिका
इस तरह के मामलों में अक्सर स्थानीय आवाज़ें राष्ट्रीय मीडिया तक नहीं पहुँच पातीं।
अगर यह खबर सिर्फ़ “स्थानीय दुर्घटना” समझकर छोड़ दी गई तो सच सामने नहीं आएगा।
पत्रकारिता का फ़र्ज़ है कि “विकास की कीमत” पर सवाल उठाए।
निष्कर्ष: रास्ता क्या?
स्वतंत्र जांच: भू-धंसाव के वैज्ञानिक कारणों की निष्पक्ष जांच हो।
तत्काल पुनर्वास: प्रभावितों को स्थायी घर और मुआवज़ा मिले।
उत्तरदायित्व तय: कंपनी और प्रशासन दोनों जवाबदेह हों।
नीति सुधार: हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स में Community Consent & Risk Assessment को अनिवार्य किया जाए।





