
“Bombay High Court reopens Malegaon 2008 blast case – symbolic visual showing victims’ plea for justice against accused.”
मालेगाँव 2008 धमाका: बॉम्बे हाईकोर्ट ने साध्वी प्रज्ञा और NIA को भेजा नोटिस
पीड़ितों की अर्जी पर सुनवाई मंज़ूर, साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और अन्य पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने आरोपियों को किया तलब
मालेगाँव 2008 बम धमाका केस में बॉम्बे हाईकोर्ट ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और अन्य आरोपियों को नोटिस जारी किया। पीड़ितों की याचिका पर सुनवाई छह हफ्ते बाद होगी।
भारत का न्यायिक तंत्र अक्सर इस सवाल से जूझता है कि क्या आतंकवाद और सांप्रदायिक हिंसा जैसे मामलों में अदालतें समय रहते पीड़ितों को न्याय दिला पाती हैं। मालेगाँव 2008 बम धमाका उसी बहस का एक अहम हिस्सा है। इस केस ने सिर्फ़ महाराष्ट्र की सरज़मीं को ही नहीं, बल्कि पूरे मुल्क की अदालतों, सियासत और समाज को झकझोरा।
लगातार सत्रह साल से चल रहा यह मुक़दमा आज एक नए मोड़ पर है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने आखिरकार धमाके में मारे गए और घायल हुए पीड़ितों की अर्जी पर सुनवाई के लिए हामी भर दी है और साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल पुरोहित समेत सभी सात आरोपियों और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) को नोटिस जारी कर दिया है।
मुकदमे का ताज़ा अपडेट
तीन दिनों तक चली लंबी सुनवाई के बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने पीड़ितों की याचिका को मान्यता दी। अदालत ने यह माना कि पीड़ितों को निचली अदालत के फ़ैसले के खिलाफ अपील करने का अधिकार है।
अगली सुनवाई छह हफ्ते बाद तय हुई है।
जमीयत उलमा-ए-हिंद (मौलाना अरशद मदनी) की लीगल कमेटी इस केस की पैरवी कर रही है।
अदालत ने स्पष्ट किया कि अब आरोपियों को अदालत में पेश होकर अपने तर्क देने होंगे।
यह आदेश पीड़ितों के लिए एक उम्मीद की किरण है।
पृष्ठभूमि: 2008 का वह काला दिन
29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के नासिक ज़िले के मालेगाँव शहर में भिक्कू चौक पर विस्फोट हुआ।
धमाके में 6 लोग मारे गए और 100 से ज़्यादा ज़ख़्मी हुए।
धमाके का निशाना मुख्य रूप से मुस्लिम इलाक़ा था।
शुरुआती जांच में मामला हिंदुत्ववादी संगठनों और कुछ सैन्य पृष्ठभूमि वाले लोगों से जुड़ा पाया गया।
इस केस ने उस दौर में “हिंदू आतंकवाद” और “सांप्रदायिक आतंकवाद” जैसे विवादित शब्दों को जन्म दिया, जिसने भारत की सियासत में गहरा असर छोड़ा।
आरोपियों और मुक़दमे की जटिलता
NIA की विशेष अदालत ने जुलाई 2025 में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित, समीर कुलकर्णी और अन्य आरोपियों को अपर्याप्त सबूतों के आधार पर बरी कर दिया था।
323 सरकारी गवाहों में से 39 ने अदालत में बयान बदल दिए।
बचाव पक्ष ने 8 गवाह पेश किए।
सबूतों की कमी और गवाहों के पलटने के कारण अदालत ने आरोपियों को क्लीन चिट दे दी।
यहीं से पीड़ितों और उनके परिवारों की निराशा और बढ़ी।
न्यायपालिका पर सवाल
इस केस ने कई अहम सवाल खड़े किए हैं:
गवाह क्यों पलटे?
क्या उन पर दबाव था, या जांच एजेंसी ने मुक़म्मल सबूत पेश करने में विफलता दिखाई?
NIA की भूमिका
पीड़ित पक्ष बार-बार आरोप लगाता रहा है कि NIA ने निष्पक्ष जांच नहीं की।
राजनीतिक दखल
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर आज भारतीय राजनीति का हिस्सा हैं और लोकसभा सदस्य भी हैं। क्या इस राजनीतिक हैसियत ने केस पर असर डाला?
न्याय में देरी
17 साल से मुक़दमा चल रहा है। सवाल यह है कि क्या इंसाफ़ में इतनी देरी, इंसाफ़ से इनकार नहीं है?
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पीड़ितों की आवाज़
हाईकोर्ट में याचिका दाख़िल करने वाले सभी पीड़ित सामान्य नागरिक हैं, जिनकी ज़िंदगी धमाके के बाद हमेशा के लिए बदल गई।
किसी ने अपनों को खोया।
किसी ने रोज़गार और स्वास्थ्य गँवाया।
किसी का अब तक मनोवैज्ञानिक संतुलन पूरी तरह बहाल नहीं हुआ।
इन लोगों ने अदालत से गुहार लगाई है कि BNSS की धारा 391 के तहत गवाहों को फिर से बुलाया जाए और निचली अदालत के फ़ैसले पर पुनर्विचार हो।
जमीयत उलमा-ए-हिंद की भूमिका
मौलाना अरशद मदनी के नेतृत्व में जमीयत उलमा-ए-हिंद ने इस केस में कानूनी मदद का बीड़ा उठाया है।
देश के नामी क्रिमिनल वकीलों की टीम खड़ी की जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले का हवाला दिया जाएगा जिसमें पीड़ितों को अपील का अधिकार दिया गया है।
पीड़ित परिवारों को भरोसा दिलाया गया है कि मुक़दमा पूरी गंभीरता से लड़ा जाएगा।
आतंकवाद और न्याय: एक व्यापक परिप्रेक्ष्य
आतंकवाद सिर्फ़ बम धमाकों से जुड़ा अपराध नहीं है। यह समाज की नसों में ज़हर घोलता है।
यह लोगों के बीच भरोसे की दीवार को तोड़ देता है।
समाज को सांप्रदायिक खांचों में बाँट देता है।
राजनीति इसे अपने हित में इस्तेमाल करती है।
इस केस की अहमियत सिर्फ़ इसलिए नहीं है कि कुछ लोग बरी हुए या दोषी ठहराए जाएंगे, बल्कि इसलिए भी है कि इससे तय होगा कि भारतीय न्यायपालिका किस हद तक पीड़ितों के पक्ष में खड़ी हो सकती है।
मालेगाँव केस की लंबी सुनवाई यह साबित करती है कि भारत का न्यायिक तंत्र जटिल और धीमा है। लेकिन साथ ही यह भी साफ़ है कि अदालतें अब भी पीड़ितों की अर्जी सुनने को तैयार हैं।
यहाँ कुछ ज़रूरी बिंदु हैं:
NIA को अपनी विश्वसनीयता बहाल करनी होगी।
गवाहों के पलटने की संस्कृति पर रोक लगानी होगी।
राजनीतिक प्रभाव से मुक़दमों को दूर रखना होगा।
पीड़ितों को सिर्फ़ कानूनी लड़ाई नहीं, बल्कि सामाजिक सहारा भी चाहिए।
नतीजा
मालेगाँव 2008 बम धमाका मुक़दमा भारत के न्यायिक इतिहास का एक लंबा अध्याय है। यह मुक़दमा सिर्फ़ आरोपियों और पीड़ितों का नहीं, बल्कि पूरे मुल्क की अदालत, सरकार और समाज की इंसाफ़ देने की क्षमता की परीक्षा है।
आने वाले हफ़्तों में बॉम्बे हाईकोर्ट की सुनवाई से यह तय होगा कि क्या 17 साल बाद भी न्याय की उम्मीद ज़िंदा रखी जा सकती है या फिर यह मामला भी उन तमाम मुकदमों की तरह अधूरा रह जाएगा जिनमें इंसाफ़ बहुत देर से मिलता है और कभी-कभी बिल्कुल नहीं मिलता।




