
Akhilesh Yadav addressing press conference on farmers, corruption, and economy
किसान बनाम विकास : सपा का नया एजेंडा
अखिलेश यादव ने उठाए महंगाई,भ्रष्टाचार और जाति और अंतरराष्ट्रीय व्यापार से जुड़े गंभीर सवाल
📍 Lucknow | 25 सितम्बर 2025
समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने गुरुवार को प्रेसवार्ता में किसानों, महंगाई, भ्रष्टाचार, सामाजिक न्याय और अंतरराष्ट्रीय व्यापार से जुड़े गंभीर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि नोएडा के किसान अब भी मुआवज़े की मांग कर रहे हैं जबकि उनकी ज़मीन पर बड़े कारोबारी साम्राज्य खड़े हो रहे हैं। लद्दाख में स्टेटहुड का वादा टूटा, महंगाई ने आम लोगों की कमर तोड़ी और मेक इन इंडिया विदेशी दबावों में पिछड़ गया। यह विश्लेषण दिखाता है कि कैसे राजनीति और अर्थशास्त्र आज एक-दूसरे में घुलमिल गए हैं और चुनावी विमर्श को नया आकार दे रहे हैं।
भारतीय लोकतंत्र में हमेशा से दो ध्रुव रहे हैं – विकास और न्याय।
नोएडा का उदाहरण इस टकराव को बहुत स्पष्ट करता है। अखिलेश यादव ने कहा कि दिल्ली से सटे इस औद्योगिक इलाके में बड़े निवेशक तो आ रहे हैं, लेकिन किसान जिन्हें अपनी ज़मीन गंवानी पड़ी, वे अब भी मुआवज़े और अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं।
यह सवाल केवल आर्थिक नहीं है। यह सवाल लोकतंत्र की जड़ों को छूता है। जब विकास की गाड़ी तेज़ भागती है और पीछे छूटे किसान धूल खाते रह जाते हैं, तो जनता के भीतर असमानता और आक्रोश गहराता है।
किसानों की पुकार और भूमि का संघर्ष
“ज़मीन हमारी, मुनाफ़ा तुम्हारा।”
यह जुमला सिर्फ़ एक नारा नहीं, बल्कि किसानों के दिल की आवाज़ है।
नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना एक्सप्रेसवे प्राधिकरण क्षेत्रों में हजारों एकड़ ज़मीन अधिग्रहित की गई। किसान कहते हैं कि उन्हें वाजिब मुआवज़ा नहीं मिला। वहीं, इन्हीं ज़मीनों पर बड़े–बड़े आईटी पार्क, हाउसिंग सोसायटियां और औद्योगिक हब खड़े हो गए।
अखिलेश यादव ने वादा किया कि उनकी सरकार आने पर किसानों को सर्किल रेट से अधिक मुआवज़ा दिया जाएगा।
यह दावा राजनीतिक रूप से ताक़तवर है क्योंकि किसान सिर्फ़ वोट बैंक नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं।
इतिहास गवाह है कि भूमि अधिग्रहण और किसानों की नाराज़गी ने कई सरकारों की किस्मत बदली है।
नंदीग्राम और सिंगूर का आंदोलन पश्चिम बंगाल में वामपंथी शासन के पतन का कारण बना।
दिल्ली से सटे क्षेत्रों में 2011–12 में किसानों के बड़े आंदोलन ने यूपी की राजनीति को हिला दिया था।
आज वही मुद्दा फिर से सिर उठा रहा है।
महंगाई और “दाम बांधो” नीति
अखिलेश यादव ने कहा कि 2027 में सपा की सरकार बनने पर नेताजी और डॉ. लोहिया की “दाम बांधो” नीति लागू की जाएगी।
यह नीति पुरानी समाजवादी सोच से जुड़ी है। विचार यह है कि जरूरी वस्तुओं के दाम एक सीमा से ऊपर न बढ़ें, ताकि आम आदमी की जेब पर बोझ न पड़े।
लेकिन आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था अलग है। जब अमेरिका भारतीय निर्यात पर टैरिफ लगाता है और चीन सस्ते सामान से हमारे बाज़ार को भर देता है, तो केवल घरेलू स्तर पर दाम बांधना मुश्किल हो जाता है।
फिर भी, जनता को यह ऐलान भरोसा देता है कि महंगाई की समस्या से निपटने का कोई रास्ता तलाशा जा सकता है।
क्योंकि जब टमाटर 150 रुपये किलो बिकता है या सिलेंडर की कीमत 1200 रुपये पार करती है, तो नारा नहीं, बल्कि समाधान चाहिए।
भ्रष्टाचार और जनता की नाराज़गी
अखिलेश ने कहा कि यूपी में “भ्रष्टाचार के सारे रिकॉर्ड टूट गए हैं।”
उन्होंने आरोप लगाया कि विधायक मंच से कहते हैं – “10% कमीशन है, उस पर बोलना मत।”
यह कथन जनता की उस नाराज़गी को सामने लाता है जो हर रोज़ सरकारी दफ्तरों और ठेकों में महसूस होती है।
कभी स्कूल में भर्ती, कभी पुलिस पोस्टिंग, कभी निर्माण कार्य – हर जगह कमीशन और दलाली की चर्चा आम है।
राजनीतिक अर्थशास्त्र की भाषा में इसे Rent Seeking कहा जाता है – यानी ऐसी कमाई जो उत्पादन से नहीं, बल्कि भ्रष्ट नेटवर्क से आती है।
लंबे समय तक ऐसा माहौल बने तो निवेशक भी भरोसा खो देते हैं और विकास की गति थम जाती है।
जाति, आरक्षण और सामाजिक न्याय
अखिलेश यादव ने जाति को “पहला इमोशनल कनेक्ट” बताया और कहा कि संविधान ने भी आरक्षण जाति के आधार पर दिया है।
उन्होंने पूछा – “एसटीएफ में कितने पिछड़े वर्ग के लोग हैं?”
यह सवाल सिर्फ़ भावनात्मक नहीं है। यह सीधा सामाजिक न्याय और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बहस से जुड़ा है।
भारत का इतिहास बताता है कि मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद राजनीति का पूरा समीकरण बदल गया।
आज भी पिछड़े वर्ग, दलित और आदिवासी वोट किसी भी चुनाव का फैसला कर सकते हैं।
इसलिए अखिलेश का बयान एक तरफ़ सामाजिक संदेश है, तो दूसरी तरफ़ आर्थिक हक़ की लड़ाई भी।
क्योंकि जब किसी वर्ग को अवसर नहीं मिलता, तो उनकी आर्थिक स्थिति और पीछे रह जाती है।
अपराध, पुलिस और जनता की सुरक्षा
कानपुर का उदाहरण देते हुए अखिलेश ने कहा कि “अपराधी, बीजेपी और पुलिस मिलकर जनता को परेशान कर रहे हैं।”
उन्होंने आरोप लगाया कि पुलिस खुद किडनैपिंग और फिरौती में शामिल है।
यह बयान केवल कानून-व्यवस्था का मुद्दा नहीं, बल्कि आर्थिक गतिविधियों से भी जुड़ा है।
जहां अपराध और भ्रष्टाचार बढ़ते हैं, वहां कारोबारी निवेश करने से कतराते हैं।
छोटे उद्योग और व्यापारियों को डर का माहौल सबसे पहले प्रभावित करता है।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार और लद्दाख का सवाल
अखिलेश यादव ने कहा कि लद्दाख को स्टेटहुड का वादा किया गया था, जो पूरा नहीं हुआ।
साथ ही उन्होंने आरोप लगाया कि “चीन हमारे बाज़ार पर कब्ज़ा कर चुका है।”
यह टिप्पणी सीधे विदेशी नीति और व्यापारिक संतुलन से जुड़ी है।
आज हर भारतीय बाज़ार में चीनी मोबाइल, खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और यहां तक कि पूजा–सामग्री तक मौजूद है।
मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने की बातें ज़रूर होती हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि आयात पर निर्भरता कम नहीं हुई।
लद्दाख का सवाल सिर्फ़ सुरक्षा का नहीं, बल्कि सीमा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का भी है।
यदि वहां के लोग अपने को उपेक्षित मानेंगे तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी असर डालेगा।
सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रतीकवाद
अखिलेश ने अपने भाषण में बाबा साहेब आंबेडकर, डॉ. लोहिया और नेताजी (मुलायम सिंह यादव) का ज़िक्र किया।
यह केवल नाम लेना नहीं, बल्कि प्रतीकों की राजनीति है।
हर नाम एक विचारधारा, एक सामाजिक वर्ग और एक ऐतिहासिक संघर्ष को दर्शाता है।
राजनीतिक अर्थशास्त्र में प्रतीकों का महत्व इसलिए है क्योंकि ये जनता के भरोसे और वोटिंग पैटर्न को गहराई से प्रभावित करते हैं।
नज़रिया
अखिलेश यादव के भाषण को अगर ध्यान से देखें तो यह केवल चुनावी बयान नहीं, बल्कि एक विस्तृत राजनीतिक–आर्थिक विमर्श है।
नोएडा के किसानों से लेकर लद्दाख की सीमा तक, महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार तक, आरक्षण से लेकर वैश्विक व्यापार तक – हर मुद्दा आपस में जुड़ा हुआ है।
यह दिखाता है कि भारतीय लोकतंत्र में आर्थिक न्याय और सामाजिक न्याय अब अलग–अलग नहीं रहे।
विकास तभी टिकाऊ है जब वह न्यायपूर्ण हो।
अन्यथा गगनचुंबी इमारतें खड़ी होंगी, लेकिन उनके नीचे असंतोष की आग सुलगती रहेगी।