
आखिर दशहरे पर क्यों खाई जाती है जलेबी और क्या है इसका इतिहास?
जलेबी का नाम सुनते ही लोगों के मुंह में पानी आ जाता है। कुछ मीठा खाना हो तो जलेबी लोगों की पहली पसंद है। देश के हर गली-मोहल्ले में जलेबी खूब मिलती है। दिखने में एकदम गोल, खाने में करारी, लाल जलेबी बच्चों से लेकर बड़ों तक की पसंदीदा है। देश का शायद ही कोई ऐसा शहर होगा जहां जलेबी नहीं मिलती हो। देश के लगभर हर शहर में आपको जलेबी मिल जाएगी। कहीं जलेबी के साथ रबड़ी खाई जाती है तो कहीं जलेबी को दूध और दही के साथ खाना पसंद करते हैं। भारत के अलावा यह पाकिस्तान, बांग्लादेश और ईरान के साथ-साथ तमाम अरब मुल्कों का भी एक लोकप्रिय व्यंजन है। वैसे तो इस मिठाई को भारत की राष्ट्रीय मिठाई माना जाता है, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि जलेबी भारतीय मिठाई नहीं है। यह विदेश से आई मिठाई है, जो आज भारत के हर कोने में फेमस है। जलेबी का इतिहास भी इसकी तरह ही घुमावदार है।
दरअसल हम सब की जिंदगी में कई उलझनें होती हैं।कभी कैरियर की, तो कभी रिश्तों को लेकर उलझन। लेकिन हर उलझन की एक फिलॉसफी होती है, जो हमें उस उलझन में भी मीठा अहसास करवाती है, बिल्कुल जलेबी की तरह उलझी हुई मगर मीठी। जलेबी दुनिया की सबसे प्रसिद्ध मिठाईयों में से एक है। इसे भारत की राष्ट्रीय मिठाई का भी दर्जा दिया गया है। जलेबी से हमारा नाता सिर्फ स्वाद का ही नहीं है, बल्कि मेला, बाजार , हाट, उत्सव-महोत्सव, उत्साह और उल्लास में हमारी भावनाओं की चाशनी में जलेबी हमेशा मिठास घोलती है।
दशहरे पर क्यों खाई जाती है जलेबी।
2 नवंबर को दशहरा है और इस त्योहार में दूध और जलेबी खाने की परंपरा है। इसके पीछे ऐसी मान्यता है कि भगवान राम को जलेबी बेहद पसंद थी। इसलिए इस दिन घरों में दूध और जलेबी लाया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये जलेबी कहां से आई है। इसको सबसे पहले किसने बनाया था। तो चलिए जानते हैं जलेबी की कहानी जो स्वाद ही नहीं बल्कि रिश्तों में भी मिठास घोली है। मुगल काल में यह मिठाई दरबारों से निकलकर मंदिरों तक पहुँची, जहाँ इसे प्रसाद के रूप में भी अपनाया गया। आइए जानते हैं जलेबी के इतिहास के बारे में?
क्या है जलेबी का इतिहास।
जलेबी की कहानी सदियों पुरानी है। जिस तरह से जलेबी की बनावट घुमावदार है उसी तरह इसका इतिहास भी बेहद घुमावदार है। आपको बता दें कि जलेबी सिर्फ भारत की मिठाई नहीं है, इसकी जड़ें दुनिया के दूसरे हिस्सों से भी जुड़ी हैं। प्राचीन मध्य-पूर्व की गलियों में एक मिठाई की खुशबू फैली हुई है। ये जलेबी 10वीं शताब्दी के फारस की है, जहाँ इसे ‘जुलाबिया’ के नाम से जाना जाता था। ये मिठाई कैसे भारतीयों के दिल पर राज करने लगी, ये सफर इसकी बनावट की तरह ही बड़ा दिलचस्प है!
ऐसा माना जाता है कि मध्यकाल में ये फ़ारसी और तुर्की व्यापारियों के साथ यह मिठाई भारत आई और इसके बाद से हमारे देश में भी इसे बनाया जाने लगा। यूं तो जलेबी को कई लोग विशुद्ध भारतीय मिठाई मानने वाले भी हैं। शरदचंद्र पेंढारकर में जलेबी का प्राचीन भारतीय नाम कुंडलिका बताते हैं। वे रघुनाथकृत ‘भोज कुतूहल’ नामक ग्रंथ का हवाला भी देते हैं जिसमें इस व्यंजन के बनाने की विधि का उल्लेख है।भारतीय मूल पर जोर देने वाले इसे ‘जल-वल्लिका’ कहते हैं। रस से भरी होने की वजह से इसे यह नाम मिला और फिर इसका रूप जलेबी हो गया।
देश में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जलेबी को।
उत्तर भारत में यह जलेबी नाम से जानी जाती है, जबकि दक्षिण भारत में यह ‘जिलेबी’ नाम से जानी जाती है। बंगाल में यही नाम बदलकर ‘जिल्पी’ हो जाता है। गुजरात में दशहरा और अन्य त्यौहारों पर जलेबी को फाफड़ा के साथ खाने का भी चलन है। जलेबी की कई किस्म अलग-अलग राज्यों में मशहूर हैं। इंदौर के रात के बाजारों से बड़े जलेबा, बंगाल में ‘चनार जिल्पी, मध्य प्रदेश की मावा जंबी या हैदराबाद का खोवा जलेबी, आंध्र प्रदेश की इमरती या झांगिरी, जिसका नाम मुगल सम्राट जहांगीर के नाम पर रखा गया है। इंदौर शहर में 300 ग्राम वज़नी ‘जलेबा’ मिलता है। जलेबी के मिश्रण में कद्दूकस किया पनीर डालकर पनीर जलेबी बनती है, जबकि ‘चनार जिल्पी’ दूध और मावा को मिलाकर जलेबी के मिश्रण में डालकर मावा जलेबी तैयार की जाती है। जलेबी सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि कई दूसरे देशों में भी खाई जाती है। लेबनान में ‘जेलाबिया’ एक लंबे आकार की पेस्ट्री होती है। ईरान में इसे जुलुबिया, ट्यूनीशिया में ज’लाबिया, और अरब में जलेबी को जलाबिया के नाम से जानते हैं।