
उत्तराखण्ड आंदोलन: बलिदान की नींव पर बने सपनों का राज्य
शहीदों की याद और वर्तमान राजनीति का आईना
📍 रामपुर तिराहा, मुजफ्फरनगर | 3 अक्तूबर 2025
✍️ आसिफ़ ख़ान
रामपुर तिराहा गोलीकांड केवल इतिहास का काला अध्याय नहीं है, बल्कि यह उत्तराखण्ड राज्य निर्माण की नींव है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी द्वारा शहीदों को श्रद्धांजलि और नई घोषणाएँ उस संघर्ष को सम्मान देने का प्रयास हैं, जिसने एक नए राज्य को जन्म दिया। सवाल यह है कि क्या आज का उत्तराखण्ड शहीदों के सपनों को सच कर पाया है?
Muzaffarnagar, (Shah Times)। इतिहास कभी केवल किताबों में कैद नहीं रहता। वह ज़िन्दा रहता है लोगों की यादों में, उनके ज़ख़्मों में और उनकी उम्मीदों में। रामपुर तिराहा गोलीकांड ऐसा ही एक प्रसंग है, जो केवल आँकड़ा नहीं, बल्कि एक सामूहिक दर्द, संघर्ष और बलिदान का प्रतीक है। 2 अक्तूबर 1994 की वह रात जब पुलिस की गोलियों ने आंदोलनकारियों को छलनी किया, तब लोकतंत्र के चेहरे पर सबसे गहरे घाव अंकित हुए।
आज, जब उत्तराखण्ड अलग राज्य के रूप में स्थापित होकर 25 वर्ष से अधिक का सफ़र तय कर चुका है, तो रामपुर तिराहा की स्मृति हमें दोबारा सोचने पर मजबूर करती है – क्या हम वास्तव में उन बलिदानों के योग्य भविष्य बना पाए हैं?
शहीदों की अमर स्मृति
रामपुर तिराहा गोलीकांड का नाम सुनते ही हर उत्तराखण्डी के भीतर से एक हूक उठती है। यह घटना याद दिलाती है कि इस राज्य की नींव खून से सींची गई है। जिन्होंने अपने जीवन का बलिदान दिया, उन्होंने केवल राजनीतिक माँग नहीं रखी थी, बल्कि अपने पहाड़, अपनी संस्कृति और अपनी अस्मिता के लिए आवाज़ उठाई थी।
इस बलिदान की महक आज भी हर मोड़, हर घाटी और हर स्मारक में महसूस की जा सकती है। श्रद्धांजलि केवल फूल चढ़ाने से पूरी नहीं होती, बल्कि नीतियों और व्यवहार में उस भावना को उतारना ही सच्ची श्रद्धांजलि है।
राजनीति और प्रतीक
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस वर्ष रामपुर तिराहा शहीद स्थल पर पहुंचकर पुष्पांजलि अर्पित की और कहा कि इस स्थान का पुनर्विकास किया जाएगा। संग्रहालय को भव्य बनाया जाएगा, कैंटीन और बस स्टॉप विकसित होंगे। यह घोषणाएँ काग़ज़ पर आकर्षक लगती हैं, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या शहीदों की स्मृति केवल इमारतों से ज़िंदा रहेगी?
सच्चा सवाल यह है कि क्या उनकी कुर्बानी से प्रेरित होकर शासन और प्रशासन आज भी वैसा ही न्यायसंगत और पारदर्शी है जैसा सपना आंदोलनकारियों ने देखा था।
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बलिदान से राज्य तक
उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की पूरी कहानी बलिदानों की श्रृंखला है। हज़ारों युवाओं ने जेलें भरीं, सैकड़ों घायल हुए, और कई शहीद हो गए। उनके संघर्ष का नतीजा यह हुआ कि आज हमारे पास एक अलग राज्य है। लेकिन यह राज्य कैसा है? क्या यह सच में उनके सपनों का उत्तराखण्ड है?
आंदोलनकारियों का सपना था कि इस राज्य में पारदर्शी शासन हो, भ्रष्टाचार पर अंकुश हो, शिक्षा और रोज़गार में न्याय हो और पहाड़ों का पलायन रुके। आज की स्थिति देखें तो इन सपनों को पूरा करने की दिशा में बहुत काम हुआ है, लेकिन चुनौतियाँ अब भी कायम हैं।
सामाजिक और राजनीतिक सुधार
मुख्यमंत्री धामी ने कहा कि इस राज्य ने समान नागरिक संहिता लागू करने वाला पहला प्रदेश बनकर इतिहास रचा है। नकल माफिया पर सख़्त क़ानून लागू किया गया, धर्मांतरण विरोधी क़ानून बनाए गए और मदरसा बोर्ड को ख़त्म करने का निर्णय लिया गया।
ये सुधार निश्चित रूप से चर्चित और ऐतिहासिक हैं, लेकिन इनकी सफलता तभी है जब उनका असर आम जनता तक पहुँचे। क़ानून का मक़सद डर पैदा करना नहीं, बल्कि न्याय और समानता सुनिश्चित करना होना चाहिए।
आंदोलनकारियों के लिए नीतियाँ
सरकार ने आंदोलनकारियों और उनके परिवारों के लिए पेंशन, आरक्षण और नौकरी की सुविधाएँ लागू की हैं। मासिक पेंशन योजनाएँ, सरकारी बसों में निःशुल्क यात्रा और पहचान पत्र जैसी सुविधाएँ इस बात का प्रतीक हैं कि शासन उनकी कुर्बानी को मान्यता देता है।
फिर भी, जमीनी स्तर पर यह शिकायत बार-बार उठती है कि सही लाभार्थी तक ये सुविधाएँ नहीं पहुँच पातीं। कई वास्तविक आंदोलनकारी आज भी पहचान और सम्मान के लिए दर-दर भटकते हैं।
महिलाओं की भूमिका
उत्तराखण्ड आंदोलन की आत्मा महिलाओं का योगदान है। गाँव-गाँव से निकली मातृशक्ति ने इस आंदोलन को नई ऊर्जा दी। आज जब सरकार महिलाओं के लिए आरक्षण और अवसर की बात करती है, तो यह उनके ऐतिहासिक योगदान को सम्मान देने जैसा है।
लेकिन आज भी पहाड़ की महिलाएँ पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत ज़रूरतों के लिए संघर्ष कर रही हैं। यह अंतर बताता है कि नीतियाँ बनीं, लेकिन ज़मीन पर अमल अधूरा है।
स्मृति और वर्तमान
रामपुर तिराहा की याद केवल एक स्मारक या सालाना आयोजन तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि लोकतंत्र में जनता की आवाज़ कितनी कीमती है। जब भी सत्ता जनता की आवाज़ दबाने की कोशिश करती है, तो रामपुर तिराहा की गूँज हमें चेताती है।
चुनौतियाँ और संभावनाएँ
आज उत्तराखण्ड के सामने पलायन, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और पर्यावरण संरक्षण जैसी चुनौतियाँ हैं। अगर इन मुद्दों पर गंभीरता से काम किया जाए तो शहीदों का सपना साकार हो सकता है।
यह केवल सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह इस राज्य को वैसा बनाए जैसा आंदोलनकारियों ने चाहा था – न्यायपूर्ण, सुरक्षित और समृद्ध।
निष्कर्ष
रामपुर तिराहा गोलीकांड हमें हमेशा यह याद दिलाता रहेगा कि लोकतंत्र जनता के खून और पसीने से सिंचा जाता है। शहीदों का सम्मान केवल श्रद्धांजलि देने में नहीं, बल्कि उनकी भावना को नीतियों और जीवन में उतारने में है।
आज जब मुख्यमंत्री धामी श्रद्धांजलि देते हैं और नई योजनाओं की घोषणा करते हैं, तो यह एक सकारात्मक पहल है। लेकिन असली इम्तिहान तभी होगा जब हर उत्तराखण्डी महसूस करे कि यह राज्य सच में उसके बलिदान की विरासत पर खड़ा है।