
सत्ता, सियासत और साख: आज़म खां की रिहाई के बाद सपा पर उठते सवाल
आज़म खां की वापसी का असर रामपुर का बदलता मिज़ाज और सियासी तकरार
📍रामपुर | 03 अक्तूबर 2025 ✍️ आसिफ़ ख़ान
तकरीबन दो साल जेल में रहने के बाद जब आज़म खां बाहर निकले तो रामपुर फिर से सियासी चर्चा का मरकज बन गया। उनके बयानों में तल्ख़ी भी दिखी और पुरानी यादों की कसक भी। उन्होंने मुलायम सिंह यादव को याद करते हुए माना कि सियासत उन्हें पहले ही छोड़ देनी चाहिए थी, लेकिन अधूरे कामों ने रोक लिया। अब सवाल यह है कि उनकी वापसी रामपुर और सूबे की सियासत को किस दिशा में ले जाएगी।
रामपुर की फिज़ाओं में हमेशा से सियासत की महक रही है। कभी नवाबों की रियासत के नाम पर, तो कभी समाजवादी दौर में अपनी ताक़त के चलते। आज़म खां का नाम रामपुर की पहचान का हिस्सा रहा है। उनकी बेबाक़ी, तंज़ और सियासी स्टाइल ने उन्हें हमेशा सुर्खियों में रखा। मगर जब वो लंबे समय तक सलाखों के पीछे रहे, तो हालात ने करवट बदल ली।
जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने जो बयान दिए, उनमें दर्द भी झलकता है और नाराज़गी भी। उन्होंने खुलकर कहा कि मुलायम सिंह यादव के इंतकाल के बाद उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिए थी। लेकिन अधूरे काम और अवाम का दर्द उन्हें वापस खींच लाया। यही जज़्बा उन्हें जेल की कठिनाइयों के बावजूद मैदान में बनाए रखता है।
उनकी ये बात— “ओखली में सिर दे दिया है तो मूसल से क्या डरना”— दरअसल उनके सियासी सफर की दास्तान है। कई मुक़दमे, कई इल्ज़ाम, कभी बकरी-डकैत तो कभी मुर्ग़ी-डकैत का ताना, सब उन्होंने सहा। मगर इसके बावजूद उनकी आवाज़ दबाई नहीं जा सकी।
रामपुर का सियासी नक्शा
रामपुर केवल एक ज़िला नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की सियासत में एक प्रतीक भी है। यहां का मुसलमान वोट बैंक, यहां की तालीम और तहज़ीब, और यहां की पुरानी अदावतें सब मिलकर इसे अलग पहचान देती हैं। समाजवादी पार्टी के दौर में रामपुर एक छोटे सत्ता केंद्र की तरह उभरा। यहां का हर फ़ैसला लखनऊ तक असर डालता था।
आजम खां की वापसी ने इस नक्शे पर नई लकीरें खींच दी हैं। उनके पुराने समर्थक अब भी वफ़ादार नज़र आते हैं, मगर सवाल ये है कि बदली हुई राजनीति में क्या वही असर बचा है?
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सपा और आज़म के रिश्ते
सपा के साथ आज़म खां का रिश्ता उतार-चढ़ाव भरा रहा है। मुलायम सिंह यादव के दौर में उनका स्थान बेहद मज़बूत था। मगर वक्त के साथ दरारें भी आईं। अखिलेश यादव के नेतृत्व में पार्टी का रुख़ बदलता दिखा और टिकट बंटवारे में हुए मतभेद ने इन्हें और गहरा कर दिया।
रामपुर की लोकसभा सीट इसका बड़ा उदाहरण है। आज़म खां चाहते थे कि अखिलेश यहां से चुनाव लड़ें, लेकिन पार्टी ने मोहिबुल्लाह नदवी को उतार दिया। नतीजा ये हुआ कि चुनाव में खटास साफ़ नज़र आई और अब जब आज़म खां बाहर आए हैं तो उनके बयान इसी दर्द की झलक हैं।
बयानबाज़ी और सियासी पैग़ाम
हाल के बयानों में उन्होंने कहा कि “हमें ताबेदारी से निज़ात मिले।” यह बात सीधी-सीधी पार्टी नेतृत्व की ओर इशारा करती है, भले ही उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया। मगर सियासी हलकों में इसे अखिलेश यादव से जोड़कर देखा जा रहा है।
यहां दिलचस्प बात यह है कि वे अपनी बेगुनाही पर भी डटे रहे। उनका कहना है कि सभी मुक़दमे राजनीतिक साज़िश का हिस्सा हैं। उनके अनुसार उन पर भ्रष्टाचार का कोई इल्ज़ाम साबित नहीं हुआ, बल्कि तुच्छ मामलों में फंसाया गया।
अवाम का नज़रिया
रामपुर की अवाम आज भी उन्हें अपना नेता मानती है। जेल से बाहर आने पर उनका भव्य स्वागत हुआ। छोटे कस्बों और गलियों में लोग कहते सुने गए कि “ख़ान साहब ही हमारे मसाइल का हल हैं।” हालांकि यह भी सच है कि नई पीढ़ी का एक हिस्सा अब उन्हें पुराने दौर का नेता मानने लगा है।
युवा वोटर का झुकाव बदल रहा है। सोशल मीडिया की राजनीति में उनकी पकड़ उतनी मज़बूत नहीं दिखती। यही वजह है कि उनके सामने सबसे बड़ा चैलेंज जनता से जुड़ाव बनाए रखना है।
सियासी प्रतिद्वंद्विता
रामपुर हमेशा से सियासी टकराव का मैदान रहा है। चाहे कांग्रेस का दौर हो या भाजपा का, या फिर समाजवादी पार्टी का, यहां की राजनीति में प्रतिद्वंद्विता का रंग हमेशा गाढ़ा रहा है। आज़म खां की वापसी इस प्रतिद्वंद्विता को और तीखा बना सकती है।
उनके पुराने प्रतिद्वंद्वी अब भी सक्रिय हैं। भाजपा की कोशिश रहेगी कि मुसलमान वोट बैंक में सेंध लगाई जाए। वहीं बसपा भी इस सियासी खाली जगह को भुनाने की कोशिश में है। ऐसे में आज़म खां के लिए मैदान आसान नहीं होगा।
बदलते हालात और भविष्य
सवाल यही है कि क्या आज़म खां अब भी वही ताक़त रखते हैं जो कभी रामपुर की पहचान थी? जेल की सज़ा, लंबी ग़ैरमौजूदगी और पार्टी नेतृत्व से तल्ख़ रिश्तों ने उनकी सियासी पकड़ को ढीला किया है। मगर यह भी सच है कि उनकी करिश्माई शख़्सियत और बेबाक़ अंदाज़ अब भी लोगों को आकर्षित करता है।
अगर वे अपनी सेहत संभालते हुए सक्रिय राजनीति में लौटते हैं तो आने वाले चुनावों में उनकी भूमिका अहम हो सकती है। मगर अगर वे केवल बयानों तक सीमित रहेंगे तो सियासत का पलड़ा उनके खिलाफ़ भी जा सकता है।
नज़रिया
रामपुर की राजनीति हमेशा से नाटकीय रही है। यहां की जंग केवल चुनावी नहीं, बल्कि अस्मिता और असर की भी रही है। आज़म खां की वापसी ने इस जंग को एक बार फिर तेज़ कर दिया है। उनके बयान पार्टी के भीतर असंतोष का इशारा करते हैं और प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी चेतावनी हैं।
आने वाला वक्त यह तय करेगा कि उनका सियासी सफर नई रफ़्तार पकड़ता है या अतीत की परछाइयों में सिमट जाता है। लेकिन इतना तय है कि रामपुर की सियासत का नया दौर फिर से पूरे प्रदेश का ध्यान अपनी ओर खींच चुका है।