
Samajwadi Party internal rivalry analysis between Azam Khan and Mohibullah Nadvi – Shah Times
रामपुर की रूह में सियासी खामोशी: आज़म बनाम नदवी की तकरार का असल मायना
क्या सपा में बढ़ रही है फूट या नया चेहरा खोज रही है पार्टी?
📍रामपुर🗓️ 11 अक्टूबर 2025✍️आसिफ़ ख़ान
समाजवादी पार्टी के भीतर उठी तकरार अब केवल व्यक्तिगत बयानबाज़ी का मसला नहीं रही, बल्कि पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र और नेतृत्व की दिशा का आईना बन चुकी है। आज़म ख़ान और मौलाना मोहिबुल्ला नदवी के दरमियान का मतभेद केवल रामपुर तक सीमित नहीं, बल्कि ये सवाल उठाता है कि सपा क्या अपने पुराने नेताओं की विरासत और नए चेहरों की उम्मीदों के बीच संतुलन बना पाएगी?
रामपुर की गलियों में जब भी सियासत का ज़िक्र होता है, एक नाम हमेशा उभरता है — आज़म ख़ान। और अब उसी शहर में एक नया सियासी चेहरा, मौलाना मोहिबुल्ला नदवी, अपनी पहचान बना चुका है। दोनों का रिश्ता कभी पार्टी के साझा मंच पर था, मगर आज उनके बीच संवाद की जगह दूरी है।
यह दूरी सिर्फ़ दो शख्सियतों के बीच नहीं, बल्कि एक पीढ़ी और सोच के बीच की खाई को बयान करती है।
आज़म ख़ान उस दौर के नेता हैं, जिन्होंने संघर्ष, जेल और आंदोलन की राजनीति को जिया। वहीं, नदवी आधुनिक सियासी और धार्मिक शिक्षा से निकला एक नया चेहरा हैं — जो मस्जिद के मिम्बर से निकलकर संसद के गलियारों तक पहुँचा।
🔹 सपा की परंपरा और चुनौती
सपा हमेशा अपने ‘मूल समाजवादी ढाँचे’ पर गर्व करती रही है। लेकिन वक्त के साथ पार्टी को यह समझना पड़ा कि अब राजनीति सिर्फ़ बिरादरी और पुराने जनाधार पर नहीं टिक सकती। अखिलेश यादव की नई टीम ऐसे चेहरों को सामने ला रही है जो क्लासरूम से नहीं, कम्युनिटी से संवाद करते हैं। नदवी उसी रणनीति का हिस्सा हैं।
मगर आज़म ख़ान जैसे वरिष्ठ नेताओं के लिए ये बदलाव सहज नहीं। पार्टी के भीतर पुराने गार्ड और नए चेहरे के बीच की यह खींचतान अब खुलकर दिख रही है। आज़म का यह कहना कि “अखिलेश अकेले आएं, कोई तीसरा न हो” — संकेत है कि भरोसा अब धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
🔸 नदवी की आवाज़ में आत्मविश्वास या प्रतिक्रिया?
नदवी का यह कहना कि “मेरी शराफ़त को कमजोरी न समझा जाए” केवल एक बयान नहीं था, बल्कि यह आत्मसम्मान और पहचान की घोषणा थी। उन्होंने जनता की ओर इशारा कर कहा — “मुझे 25 लाख लोगों ने चुना है, यही मेरा गर्व है।”
यह बात दिखाती है कि सपा की नई जमात अब अपने राजनीतिक अस्तित्व को ‘नेता’ के भरोसे नहीं, जनता के जनादेश से जोड़कर देखना चाहती है।
उर्दू में कहें तो —
“अब सियासत की रहगुज़र पर ख़ुदी का इम्तिहान है,
जो कल पेरो में था, आज वही क़दमों की पहचान है।”
🔹 सपा नेतृत्व की भूमिका
अखिलेश यादव इस पूरी बहस के केंद्र में हैं। एक तरफ़ वो आज़म ख़ान जैसे पुराने साथी को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते, दूसरी तरफ़ उन्हें नदवी जैसे नेताओं की भी ज़रूरत है जो ग्राउंड पर सक्रिय हैं।
यही सपा की सबसे बड़ी कसौटी है — क्या अखिलेश इस अंतर्विरोध को संतुलित रख पाएंगे?
राजनीति में रिश्ते हमेशा स्थायी नहीं होते। पर जिस तरह से नदवी ने खुलकर कहा कि “रामपुर में अब आज़मवादी गैंग ख़त्म हो गया” — यह संकेत देता है कि संगठन के भीतर नया ‘पावर सर्कल’ आकार ले रहा है।
🔸 समाजवादी राजनीति में नेतृत्व की पुनर्परिभाषा
सपा का मूल दर्शन हमेशा से ‘जनता सर्वोपरि’ रहा है। पर जब नेताओं के बीच यह सवाल उठे कि “कौन किसे जानता है” या “किसकी विरासत बड़ी है,” तो पार्टी का आत्मा ही कमज़ोर होती है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि नेतृत्व और विचार की दिशा का प्रतीक है।
कई विशेषज्ञों ने कहा कि अखिलेश यादव अब “एक संतुलित नई समाजवादी पार्टी” बनाना चाहते हैं, जहाँ पर विरासत और विज़न दोनों साथ चलें।
🔹 रामपुर की जनता का दृष्टिकोण
रामपुर ने हमेशा ऐसे नेताओं को पसंद किया जो न सिर्फ़ बात करते हैं, बल्कि सुनते भी हैं।
नदवी का इमाम से सांसद बनना एक बड़ा संकेत है — जनता अब धार्मिक और सामाजिक प्रतिनिधित्व को राजनीतिक मंच पर स्वीकार कर रही है।
लेकिन, जनता यह भी देख रही है कि क्या यह बदलाव स्थायी है या अस्थायी प्रयोग।
🔸 आज़म ख़ान की भूमिका और छवि
आज़म ख़ान का योगदान सपा के इतिहास में असंदिग्ध है — अलीगढ आंदोलन से लेकर मौलाना मोहम्मद अली जौहर यूनिवर्सिटी तक, उन्होंने अपनी वैचारिक उपस्थिति दर्ज कराई। मगर जब वही नेता “नए चेहरों” को स्वीकारने में हिचकिचाते हैं, तो यह स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या पार्टी में वैचारिक संवाद घट गया है?
कई जानकार मानते हैं कि यह संघर्ष अंततः सत्ता से ज़्यादा सम्मान का है।
आज़म के लिए सपा एक ‘भावना’ है, जबकि नदवी के लिए यह ‘जिम्मेदारी’। और जब भावना और जिम्मेदारी टकराते हैं, तो राजनीति में हलचल होना लाज़मी है।
🔹 नदवी का व्यावहारिक दृष्टिकोण
नदवी ने यह भी कहा कि “जो लोग मुझे जानते नहीं, मैं साफ कर दूं कि मेरी सात पीढ़ियों की कब्रें रामपुर में हैं।”
इस कथन में गहराई है — यह महज़ जवाब नहीं, बल्कि अपनी ‘जड़ों’ से जुड़ाव का बयान है।
उन्होंने सियासत में “ख़िदमत” का नारा दिया, जो शायद सपा को पुराने जनाधार से फिर जोड़ सके।
🔸 अखिलेश की रणनीति: परंपरा और परिवर्तन का संगम
अखिलेश यादव का मौजूदा रुख यह दर्शाता है कि वो पार्टी को नई दिशा देना चाहते हैं।
उनके लिए यह विवाद एक चुनौती नहीं बल्कि अवसर भी हो सकता है — जहां वो साबित कर सकते हैं कि सपा में संवाद और असहमति दोनों के लिए जगह है।
अगर वे आज़म जैसे सीनियर नेता को सम्मान देते हुए नदवी जैसे नए चेहरों को उभारते हैं, तो सपा आने वाले चुनावों में एक “Balanced Left-of-Center” विकल्प के रूप में उभर सकती है।
🔹 अंतिम निष्कर्ष
इस पूरे विवाद को केवल व्यक्ति-विशेष की लड़ाई मानना गलत होगा।
असल में, यह एक “संगठनात्मक संक्रमण काल” है — जहाँ पुरानी राजनीति की सोच नई राजनीति की ज़रूरत से टकरा रही है।
सवाल यही है कि क्या सपा इस संक्रमण से मज़बूत होकर निकलेगी या विभाजन के खतरे में पड़ेगी?
“हर इख़्तिलाफ़ के पीछे एक नई राह होती है,
सवाल ये नहीं कि कौन सही है, बल्कि कौन सलीक़े से सुनता है।”




