
Asaduddin Owaisi advocated stronger ties with the Taliban amid the Afghan Foreign Minister's visit to India.
अफगान विदेश मंत्री की यात्रा पर ओवैसी का बयान: क्या बदलेगा काबुल के साथ दिल्ली का रिश्ता?
भारत–अफगान ताल्लुकात पर नई बहस: ओवैसी ने रखी सियासी चिंगारी
📍नई दिल्ली🗓️12 अक्टूबर 2025✍️आसिफ़ ख़ान
असदुद्दीन ओवैसी ने भारत को अफगानिस्तान के तालिबानी शासन के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित करने की सलाह दी है। उन्होंने कहा कि भारत को केवल बातचीत से आगे बढ़कर काबुल के साथ रणनीतिक साझेदारी करनी चाहिए ताकि सुरक्षा और भू-राजनीतिक हित मज़बूत हों। यह बयान ऐसे समय आया है जब अफगान विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुत्ताक़ी भारत दौरे पर हैं और पाकिस्तान इस साझेदारी से बेचैन नज़र आ रहा है।
भारत–तालिबान रिश्तों पर ओवैसी का बयान: क्या बदल रही है दक्षिण एशिया की रणनीतिक सियासत?
कभी अफगानिस्तान का ज़िक्र होते ही लोगों के ज़ेहन में जंग, तालिबान और आतंक का ख़याल आता था। मगर आज तस्वीर बदलती दिख रही है। काबुल में बैठा वही तालिबान अब दिल्ली के साथ संवाद कर रहा है — और AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी इस रिश्ते को “आवश्यक” बता रहे हैं। सवाल है, क्या ओवैसी की यह बात व्यावहारिक है, या सिर्फ़ एक सियासी बयान?
ओवैसी का बयान और उसका सियासी वजन
ओवैसी ने कहा, “भारत को तालिबान से सिर्फ बातचीत नहीं, बल्कि पूर्ण राजनयिक रिश्ते कायम करने चाहिए।”
ये बात उन्होंने तब कही जब अफगान विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुत्ताक़ी भारत के छह दिवसीय दौरे पर हैं। दिलचस्प यह है कि ओवैसी ने यह दावा भी किया कि उन्होंने 2016 में संसद में ही कहा था कि “तालिबान वापस आएगा और भारत को उससे बातचीत करनी पड़ेगी।”
उनका यह बयान अचानक नहीं, बल्कि एक सटीक सियासी समय पर आया है — जब भारत, अफगानिस्तान के साथ रिश्तों को लेकर आंतरिक समीक्षा में है और पाकिस्तान इस निकटता से परेशान है।
तालिबान से संबंध: सुरक्षा या जोखिम?
भारत के लिए तालिबान से रिश्ता दोधारी तलवार जैसा है। एक तरफ़ अफगानिस्तान का भौगोलिक महत्व है — जो भारत के लिए मध्य एशिया तक पहुंच का दरवाज़ा है। दूसरी तरफ़ तालिबान का पुराना इतिहास, जिसमें भारत विरोधी समूहों को पनाह देने के आरोप रहे हैं।
ओवैसी का मानना है कि बातचीत से दूरी बनाकर भारत अपना रणनीतिक स्पेस खो रहा है। मगर क्या ऐसा रिश्ता सुरक्षित होगा?
इस सवाल पर रणनीतिक विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है। कुछ कहते हैं, “राजनयिक रिश्ते होना मतलब मान्यता देना, जो भारत की नीतिगत स्थिति के खिलाफ़ होगा।”
दूसरी ओर, व्यावहारिक सोच यह कहती है कि अगर भारत मैदान छोड़ देगा तो चीन और पाकिस्तान उस खाली जगह को भर देंगे।
अफगानिस्तान में भारत की मौन मौजूदगी
पिछले कुछ वर्षों में भारत ने अफगानिस्तान में मानवीय सहायता, गेहूं, वैक्सीन और मेडिकल मदद भेजी। यानी भारत ने अपनी “सॉफ्ट पावर” को ज़िंदा रखा है, भले ही दूतावास बंद रहे।
तालिबान के साथ बातचीत के कई दौर “बैक चैनल” के ज़रिए हो चुके हैं, लेकिन ओवैसी अब चाहते हैं कि यह अनौपचारिक रिश्ता औपचारिक रूप ले।
उनका कहना है, “जब उनके विदेश मंत्री हमारे यहां हैं, तो हमें पीछे क्यों रहना चाहिए? हमारे भू-राजनीतिक हित वहीं हैं। हमें अपनी उपस्थिति मज़बूत करनी चाहिए।”
पाकिस्तान की बेचैनी और नया भू–राजनीतिक समीकरण
भारत–अफगानिस्तान के साझा बयान में जम्मू–कश्मीर के आतंकी हमले का ज़िक्र होते ही पाकिस्तान भड़क उठा।
इस्लामाबाद ने अफगान राजदूत को तलब कर कड़ा विरोध जताया। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने कहा कि “कश्मीर को भारत का हिस्सा बताना संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों का उल्लंघन है।”
दरअसल, अफगानिस्तान का भारत के प्रति यह रुख तालिबान शासन के अब तक के व्यवहार से अलग है। यह दिखाता है कि काबुल अब अपने हितों के लिए पाकिस्तान की छाया से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है।
यही वह बिंदु है जहाँ ओवैसी का बयान एक नया अर्थ लेता है — वह इसे भारत के लिए रणनीतिक अवसर के रूप में देख रहे हैं।
चाबहार पोर्ट: भारत की ‘साइलेंट स्ट्रैटेजी’
ओवैसी ने ईरान के चाबहार बंदरगाह का ज़िक्र भी किया।
उन्होंने कहा कि भारत वहां से अफगानिस्तान तक नया मार्ग बना सकता है, जिससे पाकिस्तान और चीन दोनों पर दबाव बनेगा।
दरअसल, चाबहार भारत की ‘शांत लेकिन असरदार चाल’ है। इससे भारत को सेंट्रल एशिया तक बिना पाकिस्तान के रास्ते पहुंच मिलती है।
अगर तालिबान शासन इसके लिए सहमति देता है, तो भारत की लॉजिस्टिक और स्ट्रैटेजिक ताकत बढ़ जाएगी। यही वजह है कि ओवैसी इस रिश्ते को सिर्फ सियासी नहीं बल्कि आर्थिक और सामरिक ज़रूरत मानते हैं।
ओवैसी का राजनीतिक नज़रिया या रणनीतिक सोच?
कुछ लोग कहते हैं कि ओवैसी हर मसले पर सरकार के विपरीत बोलते हैं।
लेकिन इस बार उनका बयान सिर्फ सियासी विरोध नहीं, बल्कि रणनीतिक यथार्थ पर आधारित लगता है।
उनकी बात में तर्क है कि अगर भारत खुद तालिबान से बातचीत नहीं करेगा तो वही ताकतें इस स्पेस में भरेंगी जो भारत के हितों के खिलाफ़ हैं।
मगर आलोचक यह भी पूछते हैं कि क्या भारत एक ऐसे शासन से राजनयिक संबंध बना सकता है जिसने महिलाओं की शिक्षा और मानवाधिकारों को सीमित कर दिया है?
यानी सवाल सिर्फ सुरक्षा का नहीं, बल्कि वैल्यू–बेस्ड डिप्लोमेसी का भी है।
भारत की नीति अब दो राहों पर
भारत एक ऐसे मोड़ पर है जहाँ उसे यह तय करना होगा कि वह आदर्शवाद की राह पर चले या यथार्थवाद की।
ओवैसी यथार्थवादी नज़रिये की वकालत कर रहे हैं — वे कहते हैं, “सिर्फ निंदा करने से कुछ नहीं होगा। हमें मैदान में उतरना होगा।”
भारत के रणनीतिकार भी मानते हैं कि अगर काबुल में भारत की मौजूदगी रहेगी तो पाकिस्तान के लिए सीमांत अस्थिरता फैलाना मुश्किल होगा।
जनता की नज़र में ओवैसी का बयान
आम लोगों के बीच ओवैसी का यह बयान दो हिस्सों में बंट गया है।
एक वर्ग कहता है कि यह पाकिस्तान को अप्रत्यक्ष जवाब है — “जब तालिबान खुद भारत के साथ खड़ा दिख रहा है, तो पाकिस्तान की नीति फेल हो रही है।”
दूसरा वर्ग मानता है कि ओवैसी एक ऐसे शासन को वैधता दे रहे हैं जो मानवाधिकारों पर खरा नहीं उतरता।
लेकिन जो बात स्पष्ट है, वो यह कि ओवैसी ने इस बहस को हवा दे दी है — और यह चर्चा अब सिर्फ सियासी नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी जारी है।
सच्चाई, सियासत और रणनीति के बीच भारत की भूमिका
भारत के सामने चुनौती यह है कि वह अफगानिस्तान में अपनी ऐतिहासिक साख बनाए रखे, मगर उन सिद्धांतों से भी समझौता न करे जो उसकी विदेश नीति की नींव हैं।
ओवैसी की बात में कुछ यथार्थ झलकता है, लेकिन उसमें जोखिम भी है।
भारत के लिए यह वक्त “स्मार्ट एंगेजमेंट” का है — न पूरी दूरी, न पूरी निकटता, बल्कि ऐसा रिश्ता जो हितों की रक्षा करे और मानवीय मूल्यों को भी सम्मान दे।
अगर दिल्ली ने यह संतुलन साध लिया, तो शायद आने वाले समय में भारत–अफगान ताल्लुकात एक नई दिशा ले सकते हैं — जहाँ राजनीति से ज़्यादा हकीकत की अहमियत होगी।