
जब सफ़र मौत बन गया: हैदराबाद-बेंगलुरु बस हादसे ने छोड़े सवाल
📍कर्नूल, आंध्र प्रदेश🗓️ 24 अक्टूबर 2025 ✍️आसिफ़ ख़ान
कर्नूल ज़िले के चिन्ना टेकुरु गांव में तड़के एक भयानक बस हादसे में 32 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई। आग इतनी तेज़ी से फैली कि बस कुछ ही मिनटों में राख बन गई। ये हादसा सिर्फ एक दुर्घटना नहीं, बल्कि हमारी ट्रैवल सुरक्षा व्यवस्था पर गहरा सवाल है।
रात का सन्नाटा, हाइवे की तेज़ रफ़्तार और एक पल की चूक—बस, इतना काफ़ी था कि दर्जनों ज़िंदगियाँ आग में तब्दील हो गईं। कर्नूल के चिन्ना टेकुरु गांव के पास शुक्रवार तड़के हुआ ये हादसा सिर्फ़ एक “Accident” नहीं, बल्कि उस सिस्टम की नाकामी का आईना है जो हर बार सबक़ भूल जाता है।
कावेरी ट्रैवल्स की यह प्राइवेट बस हैदराबाद से बेंगलुरु जा रही थी। सुबह करीब साढ़े तीन बजे, नेशनल हाईवे 44 पर एक मोटरसाइकिल से टकराई। चश्मदीदों का कहना है कि बाइक बस के नीचे फँस गई और फ़्यूल टैंक से टकराने के बाद धमाका हुआ। आग ने पलक झपकते पूरी बस को लपेट लिया। अंदर 44 मुसाफ़िर थे—सपनों, उम्मीदों और अपनों के पास लौटने की ख़ुशी में सोए हुए। कुछ ही सेकंड में वह नींद मौत की आगोश में बदल गई।
दमकल विभाग और स्थानीय लोग मौके पर पहुंचे, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। 12 लोग किसी तरह बाहर निकलने में कामयाब हुए, बाक़ी सब आग की लपटों में घिर गए। बस की खिड़कियों से आती चीख़ें और मदद के लिए पुकारें कुछ ही मिनटों में ख़ामोश हो गईं।
यह हादसा हमें याद दिलाता है कि भारत में रोड ट्रैफिक सिर्फ़ इंजन और पहिए की कहानी नहीं, बल्कि इंसानी ज़िंदगी के साथ खेला जाने वाला जुआ है। हर बार हादसे के बाद बयान आते हैं—“मुआवज़ा दिया जाएगा, जांच होगी।” मगर असल सवाल यह है कि “कब तक?”
आज का शाह टाइम्स ई-पेपर डाउनलोड करें और पढ़ें
सुरक्षा नियम और उनका मज़ाक़
साल दर साल ऐसे हादसे होते हैं, फिर भी प्राइवेट बस ऑपरेटर्स पर कोई सख़्त निगरानी नहीं। अधिकतर AC स्लीपर बसों में सेफ्टी एग्ज़िट नहीं, फ़ायर एक्सटिंग्विशर पुराना या ख़राब होता है। कई बार बसें ओवरलोड होती हैं और ड्राइवर डबल शिफ्ट में बिना आराम के गाड़ी चलाते हैं।
क्या यह लापरवाही महज़ हादसा है या एक सुनियोजित लापरवाही? ट्रांसपोर्ट विभाग को सिर्फ़ फ़ाइलों की जांच से नहीं, ज़मीनी हक़ीक़त देखने की ज़रूरत है। हर बस जो लंबी दूरी तय करती है, उसे रूट सेफ़्टी ऑडिट, GPS मॉनिटरिंग और आपातकालीन प्रशिक्षण से गुज़रना चाहिए। लेकिन सच यह है कि यह सब सिर्फ़ काग़ज़ों में होता है।
हादसे की इंसानी कहानी
एक बचे हुए यात्री, 28 वर्षीय रवि रेड्डी ने कहा, “हम सब सो रहे थे। अचानक धुआँ और चीख़ें सुनाई दीं। किसी ने खिड़की तोड़ी, मैं भागकर बाहर आया। पीछे मुड़ा तो बस जल रही थी।”
यह बयान सिर्फ़ डर नहीं, बल्कि बेबसी का साक्ष्य है। कोई इमरजेंसी अलार्म नहीं, कोई इग्रेस गेट काम नहीं कर रहा था।
ज़रा सोचिए, जिन परिवारों ने अपने बच्चों को उस बस में विदा किया था, अब उन्हें सिर्फ़ राख और यादें मिलीं। हादसे की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुईं — लेकिन वायरल दर्द कभी नीति नहीं बदलता।
राजनीतिक प्रतिक्रिया और वास्तविकता
मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने ट्वीट किया, “मैं हादसे से गहरा दुखी हूं। मृतकों के परिवारों को संवेदना और घायलों को हरसंभव सहायता मिलेगी।”
लेकिन सवाल यही है — क्या संवेदना व्यवस्था को सुधार सकती है? पिछले हफ़्ते ही राजस्थान के जैसलमेर-जोधपुर हाइवे पर ऐसा ही हादसा हुआ था, जिसमें 22 लोग मारे गए थे। रिपोर्ट में एसी यूनिट के शॉर्ट सर्किट और गैस रिसाव को वजह बताया गया। यानी कहानी वही है—लापरवाही और मौत का सिलसिला जारी।
Systemic Failure या Human Error?
अगर एक बाइक बस के नीचे फँस सकती है और ईंधन टैंक तुरंत फट सकता है, तो इसका मतलब है कि डिज़ाइन और इंजन सुरक्षा दोनों पर सवाल हैं। क्यों नहीं ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी बस डिज़ाइन और फ़्यूल टैंक की पोज़िशनिंग पर सख़्त गाइडलाइन जारी करती?
ये हादसे सिर्फ़ मानवीय गलती नहीं, बल्कि Institutional Negligence का नतीजा हैं। भारत में हर साल 1.5 लाख से ज़्यादा लोग सड़क हादसों में मरते हैं। और इनमें से 40% हादसे प्राइवेट ट्रांसपोर्ट वाहनों से जुड़े होते हैं।
मानवता बनाम मशीन की लापरवाही
जब हम सस्ते टिकट, जल्दी पहुँचने या आरामदेह AC सीट की बात करते हैं, तो कभी सोचते हैं क्या उस बस में अग्निशमन यंत्र काम करता है? क्या ड्राइवर प्रशिक्षित है? क्या रूट पर मेडिकल इमरजेंसी प्रोटोकॉल है?
नहीं। क्योंकि हम सब उस “कुछ नहीं होगा” मानसिकता के शिकार हैं।
सामाजिक दृष्टि से
ये हादसे समाज की संवेदनहीनता को भी उजागर करते हैं। लोग वीडियो बनाते हैं लेकिन आग बुझाने नहीं दौड़ते। सोशल मीडिया पर “RIP” लिख देना आसान है, पर असली बदलाव तभी आएगा जब लोग सुरक्षा को अधिकार समझें, लक्ज़री नहीं।
आगे का रास्ता
सड़क सुरक्षा सिर्फ़ नियम नहीं, एक संस्कृति है। स्कूली शिक्षा से लेकर ड्राइविंग लाइसेंस तक सुरक्षा पर व्यवहारिक प्रशिक्षण होना चाहिए। हर राज्य को अपने स्तर पर “Road Safety Audit Board” बनाना चाहिए।
और हाँ — प्राइवेट बस कंपनियों को लाइसेंस तभी मिलना चाहिए जब वे फायर और सेफ्टी टेस्ट पास करें।
सड़कें विकास का प्रतीक हैं, लेकिन अगर उन पर सफ़र करना मौत का जोखिम बन जाए, तो वो विकास नहीं, विनाश है।







