
SIR Controversy : राहुल गांधी बनाम आयोग: सियासी टकराव की नई रेखा
“SIR पर संग्राम: चुनाव आयोग बनाम विपक्ष”
“वोटर लिस्ट का पुनरीक्षण या राजनीतिक पुनर्संरचना?”
देश के 12 राज्यों में शुरू हो रही वोटर लिस्ट की विशेष गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया (SIR) को लेकर राजनीति गरमाई हुई है। विपक्ष इसे ‘वोटर हटाओ अभियान’ बता रहा है, जबकि चुनाव आयोग इसे लोकतांत्रिक सुधार कह रहा है। सवाल उठता है — क्या यह कदम मतदाता सूची को शुद्ध करेगा या मतदाताओं में अविश्वास बढ़ाएगा?
📍नई दिल्ली🗓️ 27 अक्तूबर 2025✍️आसिफ़ ख़ान
“वोटर लिस्ट की नई जंग: क्या SIR लोकतंत्र को मज़बूत करेगा या शक में इजाफा करेगा ?”
भारत का लोकतंत्र वोट से चलता है — और वोट का आधार है मतदाता सूची। अगर यही सूची संदिग्ध हो जाए, तो चुनाव की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। अब जब चुनाव आयोग ने 21 साल बाद Special Intensive Revision (SIR) प्रक्रिया दोबारा शुरू की है, तो सवाल यह नहीं कि यह ज़रूरी है या नहीं, बल्कि यह है कि इसका उद्देश्य पारदर्शिता है या राजनीति।
आयोग का तर्क: तकनीकी सफ़ाई, लोकतांत्रिक मजबूती
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार का दावा है कि SIR कोई नई या गुप्त प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक नियमित ‘वोटर लिस्ट क्लीन-अप ड्राइव’ है, जो हर बड़े चुनाव से पहले होनी चाहिए।
आयोग कहता है कि 2004 के बाद देश में भारी माइग्रेशन, शहरीकरण और जनसंख्या बदलाव हुए हैं। ऐसे में कई नाम दोहरी जगहों पर दर्ज हैं, कुछ मृत लोगों के नाम अब भी सूची में हैं, और कुछ अवैध विदेशी नाम भी मौजूद हैं।
अगर इन खामियों को दूर किया जाए, तो चुनाव प्रक्रिया और मज़बूत होगी। सुनने में यह तर्क वाजिब लगता है।
विपक्ष का आरोप: वोट की राजनीति का नया चेहरा
पर विपक्ष इस तर्क को स्वीकार नहीं कर रहा। कांग्रेस, DMK, TMC और INDIA गठबंधन का आरोप है कि यह पूरी प्रक्रिया “राजनीतिक हित में की जा रही इंजीनियरिंग” है।
राहुल गांधी ने इसे “वोटर धोखाधड़ी” कहा, और दावा किया कि मुस्लिम, दलित और गरीब तबकों के नाम योजनाबद्ध तरीके से हटाए जा रहे हैं।
बिहार में पहले फेज़ के SIR के दौरान यह आरोप पहले भी लगा था, और अब वही कहानी बंगाल, तमिलनाडु और यूपी तक पहुंच गई है।
यहां सवाल उठता है — अगर आयोग निष्पक्ष है, तो यह अविश्वास क्यों? और अगर विपक्ष बेवजह शोर कर रहा है, तो सबूत कहाँ हैं?
बिहार से बंगाल तक: भरोसे का संकट
बिहार में SIR के नतीजे आने के बाद बीजेपी ने इसे सफल मॉडल बताया। वहीं, कांग्रेस और राजद ने इसे “वोटर चोरी योजना” कहा।
अब जब यही प्रक्रिया 12 राज्यों में शुरू हो रही है, विपक्ष इसे “सत्ता का सॉफ्ट टूल” बता रहा है।
तमिलनाडु के सीएम एम.के. स्टालिन ने इसे “वोट चोरी प्रोग्राम” करार दिया और कहा कि यह “अल्पसंख्यकों और दलितों का नाम काटने की योजना” है।
सवाल है — क्या एक तकनीकी प्रक्रिया राजनीतिक हथियार बन चुकी है?
असम अपवाद क्यों?
दिलचस्प बात यह है कि जहां SIR लगभग पूरे देश में हो रहा है, वहीं असम इससे बाहर है।
आयोग का कहना है कि “असम में NRC पहले से लागू है, इसलिए वहां यह प्रक्रिया अलग तरीके से चलेगी।”
पर इससे राजनीतिक शक और गहराता है — अगर यह रूटीन प्रक्रिया है, तो असम को क्यों छोड़ा गया?
क्या NRC और SIR के बीच राजनीतिक गणित अलग-अलग राज्यों में बदलता है?
आयोग की चुनौती: पारदर्शिता या परसेप्शन?
चुनाव आयोग का दायित्व केवल वोटर लिस्ट अपडेट करना नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि मतदाता उसे निष्पक्ष माने।
जब आयोग पर किसी भी दल का “छाया प्रभाव” दिखने लगता है, तो जनता का भरोसा टूटता है।
यही भरोसा लोकतंत्र की बुनियाद है।
SIR तकनीकी रूप से सही हो सकता है, पर उसकी “टाइमिंग और इंटेंट” पर सवाल बाकी हैं।
राहुल गांधी बनाम आयोग: सियासी टकराव की नई रेखा
राहुल गांधी ने हाल ही में कहा कि “ECI अब निष्पक्ष संस्थान नहीं रहा, बल्कि सत्ता का उपकरण बन चुका है।”
उन्होंने कर्नाटक के आलंद विधानसभा क्षेत्र के उदाहरण देते हुए आरोप लगाया कि कांग्रेस समर्थकों के वोट जानबूझकर हटाए गए।
आयोग ने इस पर जवाब देते हुए कहा कि “वोट ऑनलाइन डिलीट करना असंभव है, हर प्रक्रिया कानूनी और दस्तावेज़ आधारित होती है।”
यहां एक तथ्य साफ है — आयोग और विपक्ष के बीच संवाद का पुल टूट चुका है।
“घुसपैठिया” विमर्श बनाम “वोट अधिकार” आंदोलन
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने SIR का बचाव करते हुए कहा कि “यह प्रक्रिया विदेशी घुसपैठियों की पहचान में मदद करेगी।”
वहीं राहुल गांधी ने इसे “घुसपैठिया बचाओ यात्रा” कहने पर पलटवार किया।
यहां असली टकराव “सुरक्षा बनाम समानता” का है।
क्या विदेशी तत्व हटाने के नाम पर किसी समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है?
या फिर यह सचमुच लोकतांत्रिक शुद्धि का काम है?
दोनों पक्ष अपनी-अपनी कथा सुना रहे हैं, पर सत्य शायद बीच में कहीं छिपा है।
लोकतंत्र की आत्मा: भरोसे का पुनरीक्षण भी ज़रूरी
वोटर लिस्ट का पुनरीक्षण तो ज़रूरी है, पर उससे भी ज़रूरी है — भरोसे का पुनरीक्षण।
जब जनता को यह भरोसा नहीं रहेगा कि वोट उसका अपना है, तो चुनाव महज़ एक रस्म रह जाएगा।
चुनाव आयोग को चाहिए कि हर शिकायत, हर संशय को सार्वजनिक पारदर्शिता से दूर करे।
डेटा डिज़िटल युग में है, तो प्रक्रिया भी डिजिटल भरोसे पर आधारित होनी चाहिए।
BLOs और पार्टियों के BLA के साथ सामुदायिक निगरानी बढ़ाई जाए, ताकि कोई नाम न अन्याय से जुड़े, न अन्याय से कटे।
संशोधन नहीं, सुधार चाहिए
SIR का विरोध केवल राजनीति नहीं, संवेदनशील भरोसे की लड़ाई है।
अगर आयोग इसे जन-भागीदारी से पारदर्शी बनाए, तो यह लोकतंत्र को मज़बूत करेगा।
पर अगर यह केवल फाइलों और निर्देशों में सिमट गया, तो यह भरोसे का संकट और गहराएगा।
वोटर लिस्ट की सफ़ाई से पहले लोकतांत्रिक मन की सफ़ाई ज़रूरी है।






