
Shashi Tharoor called dynasty politics a threat to democracy. The BJP attacked.
वंशवाद की राजनीति: परिवार या योग्यता, कौन जीतेगा?
शशि थरूर: वंशवाद बनाम योग्यता — लोकतंत्र की कसौटी
शशि थरूर ने वंशवाद को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया। भाजपा ने हमला बोला। विश्लेषण: कारण, असर और सुधार की राह।
📍 नई दिल्ली | 🗓️ 4 नवम्बर 2025 | ✍️ आसिफ़ ख़ान
नई बहस की शुरुआत
कांग्रेस सांसद डॉ. शशि थरूर ने अपने हालिया लेख से भारतीय राजनीति में एक बार फिर हलचल पैदा कर दी है। उन्होंने साफ़ कहा कि राजनीतिक नेतृत्व किसी का जन्मसिद्ध अधिकार नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे योग्यता, मेहनत और लोकसेवा की बुनियाद पर तय किया जाना चाहिए। यह बात साधारण लग सकती है, मगर इसका असर गहरा है।
बीजेपी ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए इसे राहुल गांधी और तेजस्वी यादव पर निशाना माना। सोशल मीडिया पर राजनीतिक संग्राम छिड़ गया — कोई थरूर को ‘ईमानदार सुधारक’ कह रहा है तो कोई उन्हें ‘खतरों के खिलाड़ी’।
थरूर का लेख: लोकतंत्र में परिवार की पकड़
थरूर ने अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म के लिए अपने लेख में लिखा — “Indian Politics has turned into a family business.”
उन्होंने कहा कि एक पूरा राजनीतिक इकोसिस्टम वंश पर आधारित हो गया है। नेहरू-गांधी परिवार से लेकर क्षेत्रीय दलों तक, लगभग हर पार्टी में कोई न कोई ऐसा उदाहरण मौजूद है जहाँ सत्ता एक पीढ़ी से दूसरी में हस्तांतरित हुई।
उन्होंने बताया —
ओडिशा में बीजू पटनायक के बाद नवीन पटनायक,
महाराष्ट्र में बाल ठाकरे से उद्धव ठाकरे और अब आदित्य ठाकरे,
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह से अखिलेश यादव,
बिहार में रामविलास पासवान से चिराग पासवान —
हर जगह राजनीति पारिवारिक रूप में बदल चुकी है।
थरूर का कहना था कि यह प्रवृत्ति केवल भारत तक सीमित नहीं; पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका — पूरे दक्षिण एशिया में यही सिलसिला देखने को मिलता है।
बीजेपी का तीखा पलटवार
बीजेपी प्रवक्ता शहज़ाद पूनावाला ने एक्स (पूर्व ट्विटर) पर लिखा,
“थरूर साहब ने जो कहा वो हक़ीक़त है — भारत में नेपो किड्स की राजनीति फैल चुकी है। लेकिन यह बात राहुल गांधी सुनना पसंद नहीं करेंगे।”
उन्होंने मज़ाकिया अंदाज़ में जोड़ा — “सर, अब आप सच बोल रहे हैं तो सावधान रहिए, परिवार बहुत प्रतिशोधी है।”
यह प्रतिक्रिया थरूर के पुराने बयान की याद दिलाती है जब उन्होंने 2017 में कांग्रेस के भीतर लोकतंत्र की कमी पर सवाल उठाया था।
राजनीतिक गलियारों में चर्चा ये भी है कि थरूर की ये बात कांग्रेस के अंदरूनी मतभेदों को सतह पर ला सकती है।
सवाल उठता है: क्या वंशवाद वाक़ई लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है?
देखिए, वंशवाद पूरी तरह बुरा भी नहीं और पूरी तरह जायज़ भी नहीं।
कई बार एक परिवार का नाम जनता में भरोसे की पहचान बन जाता है — जैसे लोग किसी डॉक्टर या शिक्षक परिवार पर विश्वास करते हैं। लेकिन राजनीति में यह भरोसा तभी तक सही है जब तक वह जनसेवा और पारदर्शिता से जुड़ा रहे।
जैसे ही परिवार का नाम ‘योग्यता’ से ज़्यादा अहम हो जाता है, लोकतंत्र का संतुलन टूटने लगता है।
थरूर का यही तर्क था —
“जब सत्ता वंश पर आधारित होती है, तो शासन की गुणवत्ता गिरती है। योग्य लोग पीछे रह जाते हैं, और जनता को कमजोर नेतृत्व मिलता है।”
यह बात सच्ची लगती है, क्योंकि राजनीति में अवसर केवल नाम या पहचान से नहीं, बल्कि काम और ईमान से मिलने चाहिए।
संतुलन की बात: वंश भी रहे, पर योग्यता से आगे नहीं
अब एक वैकल्पिक दृष्टिकोण भी समझना चाहिए —
अगर किसी परिवार ने दशकों तक देश की सेवा की है और उसके सदस्य ने खुद को साबित किया है, तो उसे वंशवादी कहना अनुचित होगा।
मसलन, अगर कोई नया नेता अपनी मेहनत और क्षमता से ऊपर आता है, भले वो किसी बड़े नेता का बेटा या बेटी हो, तो उसे ‘वंशवाद’ नहीं बल्कि ‘वंश से परे योग्यता’ कहा जाना चाहिए।
मुद्दा यह नहीं कि कौन किस परिवार से है, बल्कि यह है कि क्या वह अपने दम पर जनता का विश्वास जीत पा रहा है या नहीं।
जनता का नज़रिया: नाम पर नहीं, काम पर भरोसा
आज का मतदाता पहले से कहीं ज़्यादा समझदार है।
शहरी वोटर अब surname politics से ज़्यादा performance politics पर ध्यान देता है।
लेकिन ग्रामीण इलाक़ों में अब भी परिवार का नाम भरोसे का प्रतीक बना हुआ है — वहाँ लोग सोचते हैं कि “अगर बाप ईमानदार था तो बेटा भी वैसा ही होगा।”
यही सोच लोकतंत्र में गहरी जड़ें जमा चुकी है।
अगर इस मानसिकता को बदला जाए, तो राजनीतिक परिदृश्य में सचमुच परिवर्तन संभव है।
संरचनात्मक सुधार ज़रूरी हैं
थरूर का कहना है कि वंशवाद से बाहर निकलने का रास्ता सिर्फ़ आलोचना से नहीं, बल्कि पार्टी संरचना के अंदर सुधार से होकर जाता है।
उनके अनुसार —
पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र होना चाहिए।
उम्मीदवारों का चयन ओपन मेरिट बेसिस पर हो।
युवाओं को प्रशिक्षण और मेंटरशिप के ज़रिए तैयार किया जाए।
और सबसे अहम — जनता को यह हक़ मिले कि वो हर स्तर पर सवाल कर सके।
यही तरीका है जिससे राजनीति में नई हवा आ सकती है।
बात केवल कांग्रेस की नहीं
बीजेपी, समाजवादी पार्टी, टीएमसी, बीजेडी, डीएमके — सभी पार्टियों में पारिवारिक प्रभाव मौजूद है।
इसलिए केवल कांग्रेस को निशाना बनाना न्यायसंगत नहीं।
थरूर का बयान इस पूरे सिस्टम पर है, न कि किसी एक पार्टी पर।
उनका कहना है कि अगर भारत को सच में मेरिटोक्रेसी (योग्यता आधारित लोकतंत्र) बनना है, तो पारदर्शिता और जवाबदेही को प्राथमिकता देनी होगी।
शाह टाइम्स नज़रिया
हमारा मानना है कि थरूर की बहस किसी पार्टी की आलोचना नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सेहत पर सवाल है।
वंशवाद का इलाज केवल भाषणों से नहीं, बल्कि नीति में बदलाव से संभव है।
लोकतंत्र तब तक मज़बूत नहीं हो सकता जब तक हर आम नागरिक यह महसूस न करे कि वह भी नेतृत्व की दौड़ में शामिल हो सकता है।
लोकतंत्र की सच्ची परीक्षा
शशि थरूर का यह लेख एक आईना है — जिसमें हर पार्टी को खुद को देखना चाहिए।
क्या वाक़ई हम उस भारत में हैं जहाँ नेतृत्व योग्यता से तय होता है?
या फिर आज भी नाम और खानदान की दीवारें लोकतंत्र को सीमित कर रही हैं?राजनीति को पुनर्परिभाषित करने का वक़्त आ चुका है —
जहाँ विचार, मेहनत और ईमानदारी वंश और सरनेम से ज़्यादा अहम हों।
अगर ऐसा हुआ तो लोकतंत्र केवल टिकेगा नहीं, बल्कि सशक्त भी होगा।




