
Mohan Bhagwat addressing the RSS centenary celebrations in Bengaluru
आरएसएस के 100 साल: नई राह, नया संदेश या पुरानी सोच का नया रूप
📍Bengaluru 🗓️ 10 November 2025
✍️Asif Khan | Shah Times
बेंगलुरु में आरएसएस के सौ साल पूरे होने पर मोहन भागवत ने कहा कि मुस्लिम और ईसाई भी शाखा में शामिल हो सकते हैं बशर्ते वे हिंदू समाज की पहचान के साथ आएं। यह बयान समावेश का दावा भी करता है और पहचान की शर्त भी रखता है। सवाल यही कि यह एकता है या एकरूपता की मांग।
आरएसएस शताब्दी: समावेश की घोषणा या पहचान की शर्त
बेंगलुरु का यह दिन संघ के इतिहास में दर्ज रहेगा। सौ साल का सफर पूरा करके आरएसएस खुद को नए युग में पेश कर रहा था। मंच पर मोहन भागवत और सामने उन लोगों के सवाल जो इस संगठन ने हमेशा से अपने साथ जोड़े या अपने खिलाफ खड़े देखे। इस बार उनका जवाब साफ था लेकिन सरल नहीं।
उन्होंने कहा
मुस्लिम और ईसाई संघ में आ सकते हैं।
लेकिन शाखा में प्रवेश करते समय अपनी अलग पहचान बाहर रखनी होगी।
अंदर आकर सबको हिंदू समाज का सदस्य माना जाएगा।
यही वह वाक्य है जिसने भारत की राजनीति और समाज में एक नई आग लगा दी।
यह बात दो दिशाओं में पढ़ी जा रही है।
पहली दिशा कहती है कि यह बदलाव है।
दूसरी दिशा कहती है कि यह वही पुराना दृष्टिकोण है, बस नए शब्दों में।
सवाल उठता है
क्या स्वीकार करना तब भी स्वीकार है जब उसके लिए अपनी पहचान कम करनी पड़े?
भारत एक देश नहीं एक सभ्यता है।
यहाँ मंदिर भी हैं मस्जिद भी, संस्कृत भी है उर्दू भी, एक साथ कई हजार वर्षों का इतिहास चलता है।
ऐसे में एक पहचान को आधार बनाकर बाकी पहचानें अंदर लाने की अनुमति देना, समावेश जैसा लगता है या शर्त जैसा?
संघ के विचार में भारत माता की संतान होने का मतलब हिंदू होना है।
लेकिन इस देश में ऐसे लोग भी हैं जो खुद को सिर्फ भारतीय मानते हैं हिंदू नहीं।
तो क्या उनके लिए देशप्रेम और नागरिकता अधूरी हो जाती है?
यह वही बिंदु है जहां से बहस गहरी होती है।
भागवत का मत है
सभी के पूर्वज एक हैं और मूल संस्कृति हिंदू है।
यही संघ की विचारधारा का मूल है।
लेकिन इसका अर्थ क्या हो कि आज की विविधता को अतीत के एक चेहरे में ढाला जाए?
भारत की ताकत यह है कि यहाँ हर पहचान को सांस लेने की जगह मिलती है।
अगर एकता की परिभाषा एकरूपता बन जाए तो विविधता घायल होती है।
इस भाषण में यह भी स्पष्ट किया गया कि संघ किसी पार्टी का सहयोगी नहीं विचारों का साथी है।
उन्होंने कहा
अगर कांग्रेस राम मंदिर का समर्थन करती तो हम उसका समर्थन करते।
यानी संघ विचारधारा के साथ खड़ा है पार्टी के साथ नहीं।
यह वाक्य राजनीति की गहराई को दिखाता है।
संघ सत्ता के पीछे नहीं चलता, सत्ता संघ के पीछे मुड़कर देखती है।
उसके पास नीति को प्रभावित करने की शक्ति है और यही कारण है विरोध उसके रजिस्ट्रेशन और पारदर्शिता पर प्रश्न उठाता है।
जब कांग्रेस नेता कहते हैं कि संघ बगैर रजिस्ट्रेशन कैसे काम करता है
तो भागवत जवाब देते हैं
ब्रिटिश राज में यह अपेक्षा मूर्खता होती और आजादी के बाद इसकी बाध्यता नहीं थी।
यह कानूनी तौर पर ठीक है
लेकिन सवाल यह है कि जब किसी संस्था का प्रभाव राष्ट्रव्यापी और गहरा हो
तो क्या उसे वैसी ही जवाबदेही नहीं होनी चाहिए?
अब आते हैं सबसे संवेदनशील हिस्से पर
मुस्लिम और ईसाई की सदस्यता का सवाल।
अगर कोई व्यक्ति अपनी धार्मिक पहचान का सम्मान चाहे
तो क्या उसे शाखा में छोड़ देना होगा?
क्या उसे त्योहार मनाने की स्वतंत्रता वही मिलेगी जो हिंदू त्योहारों को मिलती है?
क्या नेतृत्व के पद उसके लिए खुले होंगे?
क्या उसकी वफादारी का प्रमाण पत्र अंदर आने की शर्त होगा?
यही वे व्यावहारिक सवाल हैं जिनके उत्तर शब्दों में नहीं क्रियाओं में दिखेंगे।
अगर शाखाओं में वास्तव में मुसलमान और ईसाई सम्मान के साथ शामिल होते हैं
तो यह बदलते भारत का संकेत होगा।
लेकिन अगर यह सब मंच की बातों तक सीमित रहा
तो यह एक और फोटो-फ्रेम की कहानी बन जाएगा।
पत्रकारिता की भूमिका प्रशंसा नहीं समीक्षा है।
जिस दिन सवाल मर जाए उस दिन लोकतंत्र भी कमज़ोर हो जाएगा।
हम तालियां बजाने नहीं आए
हम यह जांचने आए हैं कि तालियों की आड़ में क्या छुपा है।
आरएसएस के अगले 100 साल भारत की दिशा तय करने में भूमिका निभा सकते हैं।
लेकिन यह तभी संभव है जब
एक भारत की जगह अनेक भारतों को सम्मान मिले।
हिंदू की जगह भारतीय विन्यास की तस्वीर खींची जाए।
और हर नागरिक अपनी पहचान के साथ खड़ा हो सके
बिना किसी सफाई और बिना किसी दबाव के।
यही असली परीक्षा है
और इसी पर तय होगा
संघ का अगला सफर नई राह है
या पुरानी सोच का नया रंग।




