
A group of passengers offering prayers inside Bengaluru’s Kempegowda International Airport Terminal 2, while other travellers and staff move through the busy terminal area.
कर्नाटक में नमाज़ और आरएसएस पर टकराव की राजनीति तेज़
📍बेंगलुरु 🗓️10 नवंबर 2025 |✍️आसिफ़ ख़ान
बेंगलुरु एयरपोर्ट के टर्मिनल-2 पर सामूहिक नमाज़ का वीडियो वायरल होने के बाद कर्नाटक की राजनीति में हलचल बढ़ गई। भाजपा ने कांग्रेस सरकार पर दोहरे रवैये का आरोप लगाया। दूसरी ओर सरकार का कहना है कि नियम सभी पर एक समान लागू होते हैं। इस विवाद ने धार्मिक स्वतंत्रता, सार्वजनिक स्थानों की मर्यादा और राजनीतिक हितों के बीच खिंची रेखाओं को फिर उजागर कर दिया।
बेंगलुरु एयरपोर्ट के टर्मिनल-2 पर यात्रियों द्वारा नमाज़ अदा करने का वीडियो जैसे ही सोशल मीडिया पर पहुंचा, कर्नाटक की राजनीति एक बार फिर विवाद के चौक पर खड़ी दिखाई दी। वीडियो में कुछ लोग फ्लाइट बोर्डिंग से पहले प्रार्थना करते दिखते हैं। सुरक्षाकर्मी और एयरपोर्ट स्टाफ उनके पास दिखाई देते हैं, पर किसी ने उन्हें निर्धारित नमाज़ हॉल का उपयोग करने को नहीं कहा। यही दृश्य इस पूरी बहस की शुरुआत बनी।
सवाल उठना स्वाभाविक था क्योंकि एयरपोर्ट जैसे उच्च-सुरक्षा क्षेत्र में किसी भी धार्मिक गतिविधि पर नियम स्पष्ट होते हैं। भाजपा ने तुरंत मुख्यमंत्री और मंत्री से कहा कि यह अनुमति किसने दी। उन्होंने पूछा कि क्या यात्रियों ने पूर्व अनुमति ली थी। यह सीधा सवाल था, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक तर्कों की कई परतें थीं।
राजनीति में अक्सर तथ्य से अधिक धारणा मायने रखती है। जनता जब वीडियो देखती है, तो वह किसी नियम की बारीकियों को नहीं समझती—उसे सिर्फ दृश्य दिखता है। दृश्य जितना सरल होता है, राजनीति उतनी तेजी से उसके इर्द-गिर्द भावनाओं का दायरा खींच लेती है। भाजपा ने इसी भावनात्मक क्षेत्र में अपने सवाल उठाए।
दूसरी ओर सरकार ने कहा कि एयरपोर्ट पर धार्मिक या राजनीतिक कार्यक्रमों पर प्रतिबंध पहले से है और यह प्रतिबंध सभी पर लागू होता है, चाहे वह कोई धार्मिक समूह हो या संघ की शाखाएं। लेकिन यहां एक उलझन पैदा होती है—नमाज़ को आयोजन मानना चाहिए या आकस्मिक धर्म-अभ्यास? यात्रियों की प्रार्थना स्वाभाविक थी, हज या उमरा यात्रा से पहले यह भावुक और अनिवार्य धार्मिक क्षण भी हो सकता है। लेकिन जब वही क्षण सार्वजनिक रिकॉर्ड में आ जाए, तो वह राजनीतिक मुद्दा बन जाता है।
यही वह जगह है जहां सियासत धर्म और प्रशासन की रेखाओं को धुंधला कर देती है। भाजपा का तर्क है कि नियम सबके लिए समान होने चाहिए। अगर आरएसएस की गतिविधियों पर रोक लगाई जाती है, तो फिर नमाज़ पर चुप्पी क्यों? यह सवाल राजनीतिक है, लेकिन इसमें न्याय का तत्व भी मौजूद है।
दूसरी तरफ, सरकार का तर्क भी पूरी तरह गलत नहीं। सरकार कहती है कि संघ के कार्यक्रम राजनीतिक होते हैं, उनका उद्देश्य सार्वजनिक शक्ति-संचयन है, जबकि एयरपोर्ट पर नमाज़ अचानक का क्षण था। यह तर्क प्रशासनिक है, पर जनता को दोनों स्थितियों के बीच फर्क आसानी से नहीं दिखता।
यहीं पर राजनीतिक संघर्ष का असली रूप सामने आता है—दोनों पक्ष अपने समर्थकों को संदेश देने के लिए दृश्य को अलग-अलग अर्थ देते हैं। भाजपा इसे सरकार के दोहरे रवैये के रूप में पेश करती है। कांग्रेस इसे कानून के तहत समान नियम लागू करने की दलील का हिस्सा मानती है।
सवाल यह भी है कि यात्रियों ने निर्धारित नमाज़ हॉल का उपयोग क्यों नहीं किया। हॉल उपलब्ध था, फिर भी नमाज़ टर्मिनल में क्यों पढ़ी गई? शायद समय कम था। शायद जानकारी नहीं थी। शायद भीड़-भाड़ के कारण दूसरी जगह पहुंचना संभव नहीं था। लेकिन यह छोटी सी बात भी बड़ा राजनीतिक तूफान बन गई।
यहां एक मानवीय पहलू भी है। यात्रा के दौरान लोग जरूरी गतिविधियाँ वहीं करते हैं जहां उन्हें तुरंत जगह मिल जाए। कोई पानी पीता है, कोई फोन कॉल करता है, कोई दवाई लेता है, कोई पारिवारिक प्रार्थना कर लेता है। इस मानवीय प्रवृत्ति को नज़रअंदाज़ करके इसे रणनीतिक उद्देश्य के रूप में देखना भी एक अति-राजनीतिक दृष्टिकोण है।
फिर भी, प्रशासनिक जिम्मेदारी अपनी जगह है। सुरक्षा-क्षेत्र में किसी भी गतिविधि को नियमों के दायरे में रखना आवश्यक है। अगर अनुमति की जरूरत थी और नहीं ली गई, तो सवाल उठना लाज़मी है।
समाज की बड़ी तस्वीर में इस मुद्दे से निकलने वाले प्रश्न और गहरे हैं। क्या विविध समाज में धार्मिक गतिविधियों के लिए सार्वजनिक स्थानों पर संतुलन बनाना संभव है? जवाब हां है, लेकिन इसके लिए नियमों की पारदर्शिता और प्रशासन की सावधानी जरूरी है।
दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न—क्या राजनीतिक दल इस संतुलन को समझना भी चाहते हैं? अक्सर नहीं। वे इस असंतुलन का फायदा उठाते हैं। इस विवाद में भी यही हुआ। भाजपा ने संकेत दिया कि कांग्रेस पक्षपातपूर्ण तरीके से कुछ धार्मिक गतिविधियों को अनदेखा करती है। कांग्रेस ने संघ पर आरोप लगा कर अपना राजनैतिक संदेश मजबूत किया।
असली मुद्दा कहीं खो गया—सार्वजनिक व्यवस्था, सुरक्षा और समानता।
दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो इस घटना की मीडिया प्रस्तुति भी विवाद को और भड़का देती है। वायरल वीडियो बिना प्रसंग के दिखा दिया जाता है, और जनता खुद अर्थ निकालने लगती है। जो वीडियो दिख रहा है, वह पूरी कहानी नहीं है। लेकिन राजनीति इसी अधूरी कहानी पर अपने कथानक गढ़ती है।
प्रश्न यह नहीं कि यात्रियों ने नमाज़ क्यों पढ़ी। प्रश्न यह है कि क्या राज्य में नियम स्पष्ट हैं? क्या वे तटस्थ तरीके से लागू किए जाते हैं? क्या प्रशासन सक्रिय है या केवल प्रतिक्रिया देता है जब विवाद होता है?
अगर नियमों की घोषणा पहले से स्पष्ट हो, और सभी को पता हो कि एयरपोर्ट जैसे स्थानों पर क्या अनुमति है, तो इस तरह के विवाद पैदा ही नहीं होंगे।
इसमें एक और पहलू जुड़ा हुआ है—सार्वजनिक भावना। लोग अपने राजनीतिक या धार्मिक रुझान के आधार पर वीडियो को अलग-अलग नजर से देखते हैं। कोई इसे धार्मिक स्वतंत्रता मानता है, कोई इसे नियम-उल्लंघन, कोई तुष्टिकरण, कोई दमन, कोई प्रशासनिक चूक।
इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा खो जाता है—तथ्य और संवैधानिक दृष्टिकोण। राजनीतिक बयानबाज़ी के बीच यह भूलना आसान है कि भारत में हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार है, पर सार्वजनिक स्थानों पर व्यवस्था और सुरक्षा की मर्यादा भी है।
इस विवाद का सबसे संतुलित समाधान यही है कि सरकार और प्रशासन स्पष्ट दिशा-निर्देश तैयार करे, उन्हें सार्वजनिक करे और उनका पालन बिना किसी अपवाद के करे। न किसी विशेष समूह पर ढील, न किसी को अलग लक्षित करना।
कानून तभी न्यायपूर्ण लगता है जब वह सब पर बराबरी से लागू हो।
अगर सरकार इस सिद्धांत को अपनाए, तो न भाजपा को शिकायत का मौका मिलेगा और न कांग्रेस को सफाई देने की जरूरत पड़ेगी।
अंततः यह घटना एक छोटा दृश्य है, लेकिन इसने हमें याद दिलाया कि भावनात्मक मुद्दों का उपयोग राजनीति का पुराना हथियार है। जनता को सतर्क होना चाहिए और सरकार को स्पष्ट। तभी लोकतंत्र में संतुलन बना रह सकता है।







