
Digital forensic analyst analyzing blockchain code and bitcoin transactions on screen
अमेरिका पर चीन का साइबर इल्ज़ाम: 127,000 बिटकॉइन चोरी और डिजिटल सत्ता की जंग
बिटकॉइन या भू-राजनीतिक चाल? साइबर विवाद की परतें खुलती जा रही हैं
📍बीजिंग
🗓️ 12 नवम्बर 2025
✍️ Asif Khan
चीन की सरकारी एजेंसी ने अमेरिका पर गंभीर आरोप लगाए हैं कि उसने 2020 में लूबियन बिटकॉइन माइनिंग पूल से 127,000 बिटकॉइन हैक कर चोरी किए। यह डिजिटल संपत्ति आज लगभग 13 अरब डॉलर की है। अमेरिका ने कहा, ये अपराधियों के पैसे हैं जिनकी कानूनी जब्ती की गई। चीन का आरोप है कि यह चोरी अमेरिकी एजेंसियों ने खुद की और फिर खुद ही जब्त करने का नाटक रचा। मामला सिर्फ साइबर अपराध का नहीं, बल्कि डिजिटल सत्ता, हैकिंग की नैतिकता और अंतरराष्ट्रीय भरोसे का है।
अक्सर अमेरिका चीन पर हैकिंग या साइबर अटैक के आरोप लगाता है। लेकिन इस बार कहानी पलट गई है। किरदार वही हैं — अमेरिका और चीन — पर भूमिकाएं उलट चुकी हैं। आरोप लगाने वाला चीन है और कठघरे में खड़ा अमेरिका। चीन की नेशनल कंप्यूटर वायरस इमरजेंसी रिस्पॉन्स सेंटर (CVERC) ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें कहा गया है कि अमेरिका ने 2020 में चीनी बिटकॉइन माइनिंग पूल लूबियन से 127,000 बिटकॉइन चोरी किए।
इन बिटकॉइन की मौजूदा कीमत लगभग 13 अरब डॉलर है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यह कोई साधारण हैक नहीं था, बल्कि एक सरकारी स्तर पर संचालित साइबर ऑपरेशन था। चीन ने इसे “ब्लैक ईट्स ब्लैक” ऑपरेशन कहा है — मतलब चोरी भी की और बाद में खुद ही जब्त कर लेने का ढोंग भी।
अब सवाल यह है कि क्या अमेरिका वाकई ऐसा कर सकता है? या यह चीन की ओर से एक रणनीतिक दाव है ताकि वैश्विक साइबर सत्ता के मैदान में अमेरिका को नैतिक रूप से घेरा जा सके?
2020 की घटना – बिटकॉइन नेटवर्क की सबसे बड़ी चोरी
दिसंबर 2020 में लूबियन पूल नामक बिटकॉइन माइनिंग ऑपरेशन अचानक ठप पड़ गया। कुछ ही दिनों में यह खबर आई कि इसके सर्वर से लगभग 127,000 बिटकॉइन गायब हो गए। उस समय इनकी कीमत करीब 3 अरब डॉलर थी। यह अब तक की सबसे बड़ी क्रिप्टो चोरी मानी गई।
लूबियन अप्रैल 2020 में लॉन्च हुआ था और महज़ कुछ महीनों में बिटकॉइन नेटवर्क का छठा सबसे बड़ा माइनिंग पूल बन गया था। लेकिन इस हैक के बाद उसकी साख खत्म हो गई और पूल बंद करना पड़ा। कई विश्लेषकों ने उस वक्त इसे एक साइबर आतंकवादी हमला बताया था।
चार साल तक यह चोरी रहस्यमय रही। फिर 2024 में अचानक ब्लॉकचेन पर कुछ ट्रांज़ैक्शन दिखाई दिए — वही पुराने बिटकॉइन नए वॉलेट में ट्रांसफर हो रहे थे।
यहीं से कहानी ने नया मोड़ लिया। ब्लॉकचेन एनालिटिक्स कंपनी Arkham ने बताया कि जिन वॉलेट्स में ये बिटकॉइन ट्रांसफर हुए हैं, उनका लिंक अमेरिकी सरकारी संस्थाओं से जुड़ा है। इसके बाद अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस ने घोषणा की कि उसने “अपराधियों द्वारा चुराई गई डिजिटल संपत्ति” जब्त की है।
चीन का तर्क है — “जिस चोरी को अमेरिका ने खुद अंजाम दिया, उसी को उसने बाद में अपराधियों की संपत्ति बताकर कब्जा कर लिया।”
तकनीकी परत: यह आम हैक नहीं था
CVERC की रिपोर्ट का दावा है कि इस हैकिंग में बेहद एडवांस टूल्स का इस्तेमाल हुआ, जिनकी पहुंच सिर्फ सरकार समर्थित एजेंसियों तक होती है।
रिपोर्ट कहती है कि चोरी के बाद चार साल तक पैसे नहीं हिले। किसी प्राइवेट या क्रिमिनल हैकर के लिए इतने लंबे समय तक ऐसे बड़े अमाउंट को ठंडा रखना लगभग असंभव है। जब 2024 में अचानक ट्रांज़ैक्शन हुए, तो ट्रेल सीधा अमेरिकी सर्वरों की तरफ जाता दिखा।
यह भी कहा गया कि ट्रांसफर पैटर्न में इस्तेमाल किए गए मल्टी-सिग वॉलेट्स और ब्लॉकचेन मिक्सर टेक्निक्स इतने परिष्कृत थे कि वे सामान्य अपराधियों की क्षमता से कहीं आगे हैं।
इससे चीन ने निष्कर्ष निकाला कि यह साइबर ऑपरेशन अमेरिकी इंटेलिजेंस एजेंसी NSA या उसके किसी सहयोगी ग्रुप ने किया होगा।
कानूनी परत: जब्ती या कब्ज़ा?
अमेरिका का जवाब साफ है — “हमने कोई चोरी नहीं की, बल्कि अपराध से अर्जित संपत्ति को जब्त किया है।”
अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस ने कहा कि जांच एजेंसियों ने वर्षों तक ब्लॉकचेन फॉरेंसिक की मदद से इस फंड को ट्रैक किया। जब उन्हें पुख्ता सबूत मिले कि यह पैसे अपराधी संगठनों के हैं, तो उन्होंने अदालत के आदेश से उन्हें जब्त कर लिया।
लेकिन चीन का तर्क है कि “अमेरिका ने पहले चोरी की, फिर उसे कानूनी कार्रवाई का नाम दे दिया।”
यहाँ सवाल उठता है — अगर अमेरिका के पास यह सबूत हैं कि चोरी अपराधियों ने की, तो वे उस अपराधी ग्रुप की पहचान क्यों नहीं बताता? और अगर यह चोरी वाकई चीन से जुड़ी थी, तो अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसियों को क्यों नहीं शामिल किया?
इस सवाल का जवाब अभी किसी के पास नहीं है।
राजनीतिक परत: डिजिटल भरोसे की जंग
यह विवाद केवल टेक्निकल या कानूनी नहीं है। यह भरोसे की लड़ाई है — डिजिटल युग की नई कूटनीति।
अमेरिका और चीन दोनों ही दुनिया के दो सबसे बड़े साइबर पावर हैं। दोनों एक-दूसरे पर जासूसी, डेटा चोरी, और इंफ्रास्ट्रक्चर हैकिंग के आरोप लगाते रहे हैं। फर्क बस इतना है कि इस बार चीन ने सीधे अमेरिकी सरकार पर क्रिप्टो संपत्ति चोरी का आरोप लगाया है।
यह आरोप वैश्विक स्तर पर इसलिए अहम है क्योंकि बिटकॉइन जैसी डिजिटल संपत्ति किसी देश की मुद्रा नहीं है, बल्कि एक डिसेंट्रलाइज्ड नेटवर्क पर आधारित है। अगर सरकारें खुद इन नेटवर्क्स को हैक करने लगें, तो इसका असर पूरी क्रिप्टो अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
यह मामला सिर्फ हैकिंग का नहीं, बल्कि डिजिटल संप्रभुता (Digital Sovereignty) का भी है।
चीन का नैरेटिव बनाम अमेरिका की प्रतिक्रिया
चीन के राज्य-नियंत्रित अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने लिखा —
“अमेरिका हमेशा दूसरों पर साइबर अपराध के आरोप लगाता है, लेकिन इस बार उसका चेहरा बेनकाब हुआ है।”
दूसरी ओर, अमेरिकी मीडिया का कहना है कि यह चीन की “प्रचार रणनीति” है ताकि घरेलू मोर्चे पर जनता का ध्यान आर्थिक मंदी और तकनीकी प्रतिबंधों से हटाया जा सके।
दोनों तर्क अपने-अपने स्थान पर सही लगते हैं। लेकिन सवाल यही है कि सच्चाई किस तरफ है?
अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण: ब्लॉकचेन पारदर्शिता और राजनीतिक धुंध
ब्लॉकचेन तकनीक की खूबी यही है कि हर लेनदेन सार्वजनिक रूप से दर्ज होता है। पर इसका मतलब यह नहीं कि किसी वॉलेट के मालिक को साबित करना आसान है।
ब्लॉकचेन सिर्फ “कौन-से पते से कौन-से पते पर पैसे गए” यह बताता है, लेकिन यह नहीं बताता कि उन पतों के पीछे कौन बैठा है। इसलिए जब कोई देश दावा करता है कि “यह वॉलेट अमेरिकी एजेंसी का है”, तो उसे यह भी साबित करना पड़ता है कि वह वॉलेट सरकार के नियंत्रण में था।
अभी तक किसी स्वतंत्र फॉरेंसिक एजेंसी ने इस बात की पुष्टि नहीं की कि चोरी हुए बिटकॉइन अमेरिकी सरकारी खातों तक पहुँचे।
फिर भी, Arkham और कुछ स्वतंत्र विश्लेषकों ने यह जरूर कहा है कि जिन वॉलेट्स में ट्रांज़ैक्शन हुए, उनमें अमेरिकी फेडरल सर्वरों के IP लक्षण पाए गए। यह एक तकनीकी संकेतक है, लेकिन निर्णायक प्रमाण नहीं।
क्रिप्टो की वैश्विक छवि पर असर
इस विवाद से सबसे ज्यादा नुकसान क्रिप्टो कम्युनिटी को हो सकता है। पहले से ही बिटकॉइन को लेकर कई देशों में अविश्वास है।
अगर यह साबित हो गया कि सरकारी एजेंसियां भी चोरी या हैकिंग में शामिल हो सकती हैं, तो निवेशकों का भरोसा और गिर जाएगा।
दूसरी ओर, अगर यह चीन का गलत आरोप साबित होता है, तो यह दिखाएगा कि क्रिप्टो विवाद अब सिर्फ टेक्नोलॉजी नहीं, बल्कि राजनीति का हथियार बन गया है।
क्रिप्टो एक्सचेंजों और माइनिंग पूल्स पर पहले से ही भारी निगरानी है। अब यह मामला उन्हें और दबाव में लाएगा।
तीन संभावित परिदृश्य
पहला — अमेरिका दोषी:
अगर चीन का दावा सही निकलता है, तो यह अंतरराष्ट्रीय कानून का बड़ा उल्लंघन होगा। अमेरिका को साइबर वारफेयर में “अपराधी राष्ट्र” की श्रेणी में रखा जा सकता है।
दूसरा — चीन की प्रचार रणनीति:
अगर यह आरोप झूठा साबित हुआ, तो चीन की विश्वसनीयता पर गंभीर असर पड़ेगा। इसे एक “डिजिटल भ्रम” फैलाने की कोशिश कहा जाएगा।
तीसरा — तीसरा पक्ष शामिल:
संभव है कि चोरी किसी तीसरे ग्रुप ने की हो, और अमेरिकी एजेंसियों ने बाद में फंड्स ट्रैक कर उन्हें जब्त किया हो। यह सबसे तटस्थ संभावना है, लेकिन सबूतों की कमी इसे धुंधला बनाती है।
सच्चाई की खोज – पत्रकारिता की भूमिका
इस पूरे विवाद में असली जिम्मेदारी मीडिया की है। हमें एकतरफा बयान नहीं, बल्कि दोनों पक्षों के दावे और सबूतों की जांच करनी चाहिए।
शाह टाइम्स का उद्देश्य यही है — आरोप नहीं, तथ्य प्रस्तुत करना।
इस मामले में यह आवश्यक है कि:
चीन अपनी तकनीकी रिपोर्ट के सबूत सार्वजनिक करे,
अमेरिका अपनी जब्ती का कानूनी दस्तावेज दिखाए,
और स्वतंत्र ब्लॉकचेन फॉरेंसिक कंपनियाँ इस ट्रेल की जांच करें।
जब तक यह सब नहीं होता, किसी एक पक्ष को दोषी या निर्दोष कहना जल्दबाज़ी होगी।
डिजिटल नैतिकता और भविष्य की दिशा
इस विवाद से यह भी साबित होता है कि डिजिटल संपत्ति अब राष्ट्रीय सुरक्षा का विषय बन चुकी है।
पहले जहाँ युद्ध ज़मीन या सीमाओं पर होते थे, अब साइबरस्पेस में होते हैं। अब हथियार कोड हैं, गोला-बारूद डेटा है, और निशाना आर्थिक तंत्र।
अगर बिटकॉइन जैसी मुद्रा भी कूटनीतिक संघर्ष का साधन बन रही है, तो हमें डिजिटल नैतिकता की नई परिभाषा चाहिए।
यह विवाद सिर्फ चोरी या साइबर हमले की कहानी नहीं है। यह डिजिटल युग में सत्ता, भरोसे और नैतिकता की परीक्षा है।
अमेरिका और चीन दोनों को चाहिए कि वे इस मुद्दे पर पारदर्शिता दिखाएँ, ताकि ब्लॉकचेन और क्रिप्टो जैसी तकनीकें संदेह का मैदान न बनें।
पत्रकारिता का काम आरोपों को बढ़ाना नहीं, बल्कि सच्चाई तक पहुँचना है। इसलिए शाह टाइम्स इस मुद्दे की हर परत को जांचता रहेगा — तकनीकी, कानूनी और राजनीतिक।
सच्चाई चाहे किसी के भी पक्ष में हो, सवाल वही रहेगा —
क्या डिजिटल भविष्य वाकई पारदर्शी होगा, या यह भी सत्ता का नया हथियार बन चुका है?







