
After AIMIM's victory in five seats in Bihar, there is a stir in the politics of UP, a new debate has intensified on the strategies of political parties.
बिहार में AIMIM की पाँच सीटें और यूपी की नई सियासी बेचैनी
📍लखनऊ🗓️18 नवम्बर 2025✍️Asif Khan
बिहार की सीमांचल बेल्ट में एआईएमआईएम की पाँच सीटों की जीत ने सिर्फ स्थानीय राजनीति को नहीं हिलाया, बल्कि यूपी की सियासत में भी बेचैनी बढ़ा दी। यह विश्लेषण बताता है कि यह जीत कैसे हुई, कौन से दावे सच हैं, कौन से राजनीतिक आख्यान गढ़े जा रहे हैं, और यूपी में बीएसपी–एआईएमआईएम गठबंधन की चर्चा का वास्तविक अर्थ क्या है। साथ ही यह भी कि समाजवादी पार्टी की चिंताएँ कहाँ जायज़ हैं और कहाँ बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जा रही हैं।
बिहार के ताज़ा विधानसभा नतीजों में सीमांचल की पाँच सीटों पर एआईएमआईएम की जीत ने पूरे देश के राजनीतिक नक़्शे पर एक नई बहस को जन्म दिया है। जो लोग सीमांचल की सियासत को सतही तौर पर देखते हैं, उन्हें यह जीत अचानक लग सकती है। मगर जो लोग इस इलाके के ताने-बाने, ज़मीनी सामाजिक ढाँचे और स्थानीय मुद्दों की तह में जाकर पढ़ते हैं, उन्हें पता है कि यह जीत किसी रातोंरात बने उभार का नतीजा नहीं है, बल्कि एक लंबी ग्रासरूट्स कोशिश का परिणाम है।
यहाँ से बातचीत शुरू होती है: क्या एआईएमआईएम की यह जीत सिर्फ बिहार की कहानी है या इसका असर दूसरे राज्यों, ख़ासकर यूपी, पर भी पड़ेगा?
और क्या समाजवादी पार्टी की बेचैनी वाकई ज़मीन पर किसी बड़े बदलाव का इशारा देती है?
सीमांचल की ख़ासियत: सियासत की अलग दुनिया
सीमांचल की राजनीति अक्सर बिहार की मुख्य धारा से थोड़ी अलग चलती है। यहाँ की आबादी में धार्मिक, क़ौमी, जातीय और आर्थिक परतें ऐसे मिलती हैं कि राष्ट्रीय दल अक्सर उसके रुझानों का सही अनुमान नहीं लगा पाते।
ज़्यादातर सीटें स्थानीय मसलों, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और candidate–community रिश्तों पर तय होती हैं।
एआईएमआईएम ने पिछले कई सालों से सीमांचल को एक प्राथमिक ज़ोन की तरह ट्रीट किया। यहाँ के गाँव–मोहल्लों में उनका नेटवर्क, नुमाइंदों की मौजूदगी और मस्जिद–मदरसा–महाल समिति के साथ संवाद लगातार चलता रहा।
तो यह जीत कोई जादू नहीं थी।
इसका अपना सिलसिला था, अपना groundwork था।
यहाँ पहला काउंटरपॉइंट बनता है:
जो लोग यह मानते हैं कि एआईएमआईएम बस मुस्लिम वोट काटने की “रणनीति” पर थी, वे इस इलाके की complexities को कम करके आंकते हैं।
अगर सिर्फ वोट कटवाने से सीटें जीतना इतना आसान होता, तो बड़े दलों की हार और जीत का पूरा गणित ही उलट जाता।
सपा की बेचैनी को कैसे पढ़ें?
यूपी में समाजवादी पार्टी का आधार मुस्लिम–यादव समीकरण पर टिका है।
अखिलेश यादव के लिए हर वह राजनीतिक पार्टी, जो मुस्लिम वोटों में सेंध लगा सकती है, स्वाभाविक रूप से चिंता पैदा करती है। लेकिन यहाँ भी कहानी एक आयामी नहीं है।
यूपी का मुस्लिम मतदाता एक जैसा नहीं है।
पूर्वांचल, तराई, पश्चिम यूपी, बुंदेलखंड — हर क्षेत्र का मुस्लिम समाज, उसकी प्राथमिकताएँ और राजनीतिक समझ अलग है।
यहाँ दूसरा काउंटरपॉइंट:
अगर बिहार में पाँच सीटें जीतने के बाद यूपी में सीधे प्रभाव की उम्मीद की जाए, तो यह राजनीतिक गणित को सरल बनाना है।
यूपी के मुसलमान परम्परा से स्थानीय स्तर पर सपा को इसलिए वोट देते आए हैं क्योंकि वहां की राजनैतिक संरचना ने उन्हें वह space दिया है।
यह स्पेस जमीन पर मौजूद नेताओं, क़ौमी तंजीमों और स्थानीय इमेज पर भी निर्भर करता है।
कोई भी पार्टी सिर्फ भाषणों, नारों और सोशल मीडिया प्रचार से वहाँ अपनी जगह नहीं बना लेती।
मगर डर फिर भी क्यों है?
डर है क्योंकि सियासत में perception कभी-कभी reality से तेज भागता है।
अगर यह perception फैलता है कि एआईएमआईएम यूपी में “उभर” रही है, तो इससे narrative बदल सकता है — और narrative राजनीति में आधा चुनाव जीत लेता है।
AIMIM पर लगाए जा रहे आरोप और उनका सच
कुछ सपा, कांग्रेस और यहाँ तक कि महागठबंधन समर्थित आईटी सेल के दावों में कहा गया कि एआईएमआईएम ने 5 सीटें जीतकर “भाजपा को 50 सीटें जितवा दीं।”
यह दावा आँकड़ों की ज़रूरत से ज़्यादा खिंचाई है।
इंटेलेक्चुअल स्पैरिंग पॉइंट:
अगर एआईएमआईएम ने सिर्फ 25 सीटों पर चुनाव लड़ा और 5 जीतीं, तो भाजपा की 50 सीटों की जीत का श्रेय उन्हें देना एक राजनीतिक शॉर्टकट है।
असलियत यह है कि महागठबंधन की रणनीति कई सीटों पर कमजोर थी, उम्मीदवारों की local acceptability कमज़ोर पड़ी और एंटी-इंकम्बेंसी का असर दिखा।
राजनीतिक गलती की स्याही को किसी दूसरे के सर पर उंडेल देने से नतीजे नहीं बदल जाते।
और फिर, लोकतंत्र में हर पार्टी को चुनाव लड़ने और अपनी ज़मीन तलाशने का हक है।
अगर किसी पार्टी की पाँच सीटों से किसी बड़े गठबंधन का ढाँचा हिल जाए, तो इसका मतलब यह है कि वह ढाँचा पहले ही कमजोर था।
यहाँ एक और counterpoint:
कुछ बयानबाज़ी में एआईएमआईएम को “पाकिस्तानी एजेंडा” से जोड़ देने की कोशिश होती है।
यह रवैया न समझदारी दिखाता है, न लोकतांत्रिक परिपक्वता।
एआईएमआईएम भारत की एक registered political party है, और उसकी जीत को “ग़द्दारी” जैसा रंग देना मतदाताओं की समझदारी को insult करता है।
बीएसपी–एआईएमआईएम गठबंधन की चर्चा
बिहार की जीत के बाद यूपी में एक बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि क्या मायावती की बीएसपी और ओवैसी की एआईएमआईएम किसी तरह का गठबंधन करेंगी।
सोशल मीडिया पर दोनों पार्टियों के समर्थक उत्साहित हैं और इस चर्चा को हवा दे रहे हैं कि “यही गठबंधन सपा को चुनौती देगा।”
मगर राजनीति सिर्फ उत्साह से नहीं चलती।
राजनीति गणित से चलती है।
समीकरण का तटस्थ आकलन:
बीएसपी का मूल आधार दलित वोटर है।
एआईएमआईएम का आधार मुख्यतः मुस्लिम वोटर।
दोनों वोट बैंक सीधे जोड़ दिए जाएँ, यह अनुमान सरल है मगर वास्तविकता जटिल है।
यूपी में वोट ट्रांसफर हमेशा straightforward नहीं होता।
कई क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ दलित–मुस्लिम equation historically तनाव में रहा है।
सिर्फ गठबंधन से वोट का पूरा ट्रांसफर संभव नहीं होता जब तक कि स्थानीय नेता और ground organisations इसे स्वीकार न करें।
क्या यह गठबंधन सपा को नुकसान पहुँचाएगा?
यह कहना आसान है कि बीएसपी–एआईएमआईएम गठबंधन का सीधा नुकसान सपा को होगा।
मगर ज़मीन पर राजनीति इतनी linear नहीं है।
अगर यह गठबंधन बनता भी है, तो उसका असर seat–to–seat बदलेगा।
कई सीटों पर यह गठबंधन भाजपा को टक्कर दे सकता है।
कई सीटों पर यह कांग्रेस के लिए चुनौती बनेगा।
और कुछ सीटों पर सपा का नुकसान हो सकता है।
सियासी असर fixed नहीं, dynamic होगा।
महागठबंधन की नाराज़गी और राजनीतिक हकीकत
बिहार में कई जगह आरजेडी समर्थकों ने, सोशल मीडिया पर, एआईएमआईएम को जिम्मेदार ठहराया कि “हमारी सीटें कट गईं।”
मगर जब आप हार का blame दूसरों पर डालने लगें, तो असल समस्या कभी समझ में नहीं आएगी।
यहाँ असली सवाल:
क्या महागठबंधन का local candidate मजबूत था?
क्या वोटर को message साफ़ मिला?
क्या ground-level पर booth management effective था?
कई सीटों पर जवाब “नहीं” है।
इसलिए blame-shifting राजनीति का सबसे आसान हथियार है, मगर सबसे कम असरदार।
कांग्रेस का दोहरा रवैया और जनमानस की उलझन
कांग्रेस कई बार ओवैसी पर हमला करती है, मगर तेलंगाना में जुबली हिल्स उपचुनाव में एआईएमआईएम से support लेती है।
यह दोहरा रवैया वोटर के ज़ेहन में सवाल पैदा करता है कि आख़िर एक पार्टी एक राज्य में किसी को villain और दूसरे में ally कैसे बना लेती है।
सियासत की यह विडम्बना जनता को याद रहती है।
क्योंकि लोग अब पहले से ज़्यादा जागरूक हैं।
सोशल मीडिया की आग और ground reality
सोशल मीडिया पर narratives ज़्यादा तेज़ चल रहे हैं।
सपा समर्थक एआईएमआईएम को लगातार ताना मार रहे हैं।
एआईएमआईएम समर्थक भी जवाब दे रहे हैं।
बीएसपी के डिजिटल पेजों पर गठबंधन की चर्चाएँ गर्म हैं।
मगर ground reality सोशल मीडिया से हमेशा अलग होती है।
ट्वीट और पोस्ट चुनाव नहीं जिताते,
गाँव और मोहल्ले जिताते हैं।
क्या यूपी में बिहार की पुनरावृत्ति संभव है?
यह एक दिलचस्प सवाल है:
क्या यूपी में भी वही हो सकता है जो सीमांचल में हुआ?
सीधा जवाब:
आंशिक रूप से हाँ,
मगर वैसे नहीं जैसा कुछ लोग डरा रहे हैं।
यूपी में एआईएमआईएम की संगठन क्षमता अभी सीमित है।
कुछ जिलों में सक्रियता है,
कुछ में लगभग ना के बराबर।
अगर पार्टी अगले दो साल में ground build करती है, field organisers बढ़ाती है, और स्थानीय मुद्दों को पकड़ती है — तब असर संभव है।
मगर “कल से ही असर” वाला डर वास्तविकता नहीं है, सिर्फ perception है।
राजनीतिक भय और राजनीतिक अवसर
सपा का डर यह है कि मुस्लिम वोट किसी हद तक बंट सकते हैं।
बीएसपी का अवसर यह है कि उसे एक नया ally मिल सकता है।
एआईएमआईएम का अवसर यह है कि उसे यूपी में foothold मिल सकता है।
कांग्रेस का भय यह है कि वह और कमजोर दिख सकती है।
और भाजपा का क्या?
भाजपा के लिए यह परिदृश्य दोनों तरह का है:
वोट fragmentation हो तो फायदा,
मगर दलित–मुस्लिम equation मजबूत हो तो मुश्किल।
तो तस्वीर एकांगी नहीं है।
सच्चाई और मिथक: क्या अलग करना चाहिए
एक पत्रकार का काम सिर्फ बयान repeat करना नहीं,
तर्क और सच को अलग करना है।
एआईएमआईएम की पाँच सीटों की जीत न महायुद्ध है, न मामूली बात।
यह एक संकेत है —
कि सीमांचल में alternative political identity बन रही है।
मगर इसे राष्ट्रीय wave कहना भी जल्दबाज़ी होगी।
भविष्य की राजनीति का गणित
अगले दो साल यूपी की राजनीति के लिए महत्वपूर्ण हैं।
सपा को अपनी ground machinery मजबूत करनी होगी।
बीएसपी को alliances पर clarity लानी होगी।
एआईएमआईएम को अपना नेटवर्क बढ़ाना होगा।
कांग्रेस को narrative rebuild करना होगा।
जो पार्टी ज़मीन पर मेहनत करेगी,
उसी को फल मिलेगा।
एआईएमआईएम की पाँच सीटें
सिर्फ जीत नहीं—
एक political reminder हैं
कि मतदाता predictable नहीं होता।
और जो दल इस बदलाव को समझेंगे,
वही भविष्य की कुर्सियों का नक्शा बनाएँगे।




