
Supreme Court bench delivering clarity on Governor and President’s bill approval powers.
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर निर्णय के लिए समय-सीमा तय करने से इनकार करते हुए साफ किया कि अदालत इन पदों की शक्तियों को टेकओवर नहीं कर सकती। संविधान का लचीलापन ही भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी सूझ-बूझ है, और इसी सिद्धांत को सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वोपरि माना।
📍नई दिल्ली 20 नवम्बर 2025 Asif Khan
सुप्रीम कोर्ट का आज का फैसला सिर्फ एक कानूनी आदेश नहीं, भारत के संवैधानिक ढांचे की गहरी परतों को समझने का एक मौका है। अदालत ने साफ कहा कि गवर्नर और राष्ट्रपति पर किसी भी तरह की समयसीमा नहीं थोपी जा सकती। अदालत की भाषा सादी थी, लेकिन उसका संदेश बहुत गहरा—संविधान की लचक ही उसकी असली ताकत है, और वही शक्ति संतुलन को जीवित रखती है।
यह मुद्दा अचानक पैदा नहीं हुआ। कई राज्यों की शिकायतें महीनों से बढ़ रही थीं कि गवर्नर विधेयकों को रोकते हैं, कभी हफ्तों तक, कभी महीनों तक। राज्यों का तर्क था कि इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित होती है। दूसरी ओर गवर्नर यह कहते रहे कि उनके पास संवैधानिक विवेक मौजूद है। इन दोनों के बीच खिंचाव बढ़ता गया और अंततः मामला अदालत में पहुंचा, जहाँ आज एक निर्णायक रुख सामने आया।
न्यायालय ने कहा कि गवर्नर के पास तीन रास्ते हैं—सहमति देना, पुनर्विचार के लिए लौटाना, या विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजना। यह स्पष्ट किया गया कि चौथा रास्ता, यानी कि मान्य स्वीकृति अपने-आप लागू हो जाना, संविधान में कहीं नहीं है। अदालत का यह कहना एक तरह से उन राज्यों को जवाब है जो चाह रहे थे कि लंबे समय तक लंबित रखने पर “डीम्ड असेंट” माना जाए। अदालत ने इस विचार को अस्वीकार कर दिया।
लेकिन दिलचस्प बात यह है कि अदालत ने इस टिप्पणी के साथ एक और ज़रूरी बात कही—अनिश्चितकाल तक देरी संविधान की मंशा नहीं है। यानी, अदालत समय-सीमा तय नहीं करेगी, मगर यह भी स्वीकार करती है कि देरी का उपयोग राजनीतिक औज़ार की तरह नहीं होना चाहिए। यह एक सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण संतुलन है।
अगर इस बहस की जड़ों को देखें, तो यह भारतीय संघीय ढांचे का पुराना तनाव है—केंद्र बनाम राज्य, संवैधानिक पद बनाम निर्वाचित सरकारें, और विवेक बनाम जवाबदेही। आज के फैसले में अदालत ने इस तनाव को बढ़ाने के बजाय उसे समझने का रास्ता दिया। अदालत ने खुद को एक “सुपर-गवर्नर” बनाने से इंकार किया। यही वह लाइन है जहाँ न्यायपालिका अपनी सीमाओं को पहचानती है, और शायद यही लोकतंत्र की परिपक्वता की पहचान है।
राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत पूछे गए 14 सवाल इस पूरे विवाद के दिल में हैं। राष्ट्रपति ने सीधा पूछा था कि क्या समयसीमा तय की जा सकती है, क्या गवर्नर मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं, और क्या न्यायालय गवर्नर की देरी को ओवरराइड कर सकता है। अदालत ने हर सवाल का जवाब सावधानी से दिया, और यह स्पष्ट किया कि संवैधानिक पदों का विवेक किसी अदालत की घड़ी में कैद नहीं किया जा सकता।
लेकिन यहाँ एक भारी सवाल उठता है—क्या यह फैसला राज्यों की चिंताओं को हल करता है? उनका कहना है कि अगर एक निर्वाचित विधानमंडल कोई बिल पास करता है और गवर्नर महीनों तक उसे रोककर बैठ जाते हैं, तो यह लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है। अदालत ने इस तर्क में दम भी माना, मगर कहा कि यह समाधान न्यायपालिका के आदेशों में नहीं, बल्कि राजनीतिक और संवैधानिक व्यवहार में है। यह बात कड़वी है, लेकिन यथार्थवादी।
समस्या यह भी है कि कुछ गवर्नर इस विवेक का दुरुपयोग करते हैं। अदालत ने कहा कि न्यायिक समीक्षा तभी संभव है जब बिल कानून बन जाए। यानी, अगर गवर्नर देरी करें तो अदालत उन्हें डांट सकती है, मगर मजबूर नहीं कर सकती। यह स्थिति कुछ राज्यों को निराश कर सकती है। फिर भी अदालत का तर्क है कि विवेक को समय-सारिणी में बांधना उससे भी बड़ा नुकसान करेगा—यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को तोड़ देगा।
यहाँ अदालत का एक और अहम तर्क सामने आता है—अनुच्छेद 361 की इम्यूनिटी गवर्नर को यह सुरक्षा नहीं देती कि वे अनिश्चितकाल तक निर्णय टालते रहें। अदालत कह सकती है कि देरी अनुचित है और निर्णय लें, मगर यह नहीं कह सकती कि किस तरह या कब तक निर्णय देना है। यानी, दिशा दे सकती है, मजबूरी नहीं। यही वह रेखा है जहाँ अदालत संवैधानिक मर्यादा को बनाए रखती है।
इस फसले ने दुनिया को एक और महत्वपूर्ण बात याद दिलाई—संविधान का लचीलापन कोई कमजोरी नहीं, यह भारतीय राजनीति की जटिल हकीकत को संभालने का तरीका है। भारत जैसा विशाल, विविध और बहु-स्तरीय लोकतंत्र नियमों की कठोरता से नहीं, बल्कि संतुलित विवेक से चलता है। संविधान ने जानबूझकर कई जगहों पर स्पेस छोड़ा है, ताकि संस्थाएं परिस्थिति के अनुसार खुद को संचालित कर सकें।
कई लोग पूछेंगे—क्या यह फैसला गवर्नरों के हाथ मजबूत करेगा? कुछ हद तक हाँ। क्या यह राज्यों के अधिकारों को कमजोर करेगा? सीधे तौर पर नहीं, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर असर होगा। क्या यह टकराव को कम करेगा? शायद नहीं, पर यह टकराव को संभालने का तरीका बताता है—कानूनी आदेशों से नहीं, बल्कि राजनीतिक परिपक्वता से।
आज की बहस का सार यह है कि अदालत ने न गवर्नर की तरफ झुकाव दिखाया और न राज्यों की ओर। अदालत ने संविधान के पक्ष को चुना। यही भारतीय लोकतंत्र की असली खूबी है—कभी तेज़, कभी धीमा, लेकिन हमेशा संतुलन की खोज में आगे बढ़ता हुआ।
भारत के संवैधानिक इतिहास में कई फैसले आए, मगर यह फैसला उस लंबे सफर का हिस्सा है जहाँ हर संस्था खुद को सीमित भी करती है और मजबूत भी। यह फैसला हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र में धीमा चलना कभी-कभी ज़्यादा सुरक्षित होता है। जल्दबाज़ी विश्वास तोड़ती है, जबकि विवेक संस्थाओं को स्थिर रखता है।
अंत में, आज का फैसला न किसी की जीत है, न किसी की हार। यह भारत के संविधान की वही पुरानी सीख दोहराता है—सत्ता सिर्फ अधिकार नहीं, व्यवहार भी है। और व्यवहार जितना परिपक्व होगा, लोकतंत्र उतना ही मज़बूत होगा।




