
RSS chief Bhagwat's address in Manipur and a major statement on civilization
सभ्यता की बहस और पहचान का सवाल,
समाज, शक्ति और ज़िम्मेदारी पर चर्चा
मणिपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान ने सभ्यता, समाज, धर्म और पहचान को लेकर बड़ी बहस खड़ी कर दी है। उन्होंने कहा कि अगर हिन्दू नहीं रहेगा तो दुनिया नहीं रहेगी। प्रश्न यह है कि क्या किसी एक समाज की स्थिरता पूरी दुनिया के भविष्य का निर्धारण कर सकती है या बात कहीं ज़्यादा व्यापक और सामूहिक है।
📍Imphal 🗓️22 November 2025 ✍️ Asif Khan
मणिपुर की धरती पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत का यह बयान कि अगर हिन्दू नहीं रहेगा तो दुनिया नहीं रहेगी, एक साधारण टिप्पणी नहीं थी। यह एक पैग़ाम था, जो सभ्यता, तिजारती राजनीति, क़ौमी अस्मिता, और इंसानी इक़दारात (values) के जटिल ताने-बाने को छूता है। बयान ने बहस छेड़ दी है कि क्या वाकई किसी एक समाज के अस्तित्व पर पूरी दुनिया की अमन, इंसाफ़ और तहज़ीब आधारित हो सकती है।
मोहन भागवत ने यूनान, मिस्र और रोम की तारीख़ का हवाला दिया। कहा कि वह सब नष्ट हो गए, मगर भारत आज भी क़ायम है, क्योंकि हिन्दू समाज ने बुनियादी सामाजिक ढांचा तैयार किया। उन्होंने दावा किया कि अगर हिन्दू मिट गया, तो दुनिया का असल मायना भी मिट जाएगा। उनकी नज़र में हिन्दू समाज ही दुनिया को सही रास्ते की हिदायत देता है।
लेकिन यहाँ सवाल उठता है कि दुनिया के नैतिक भविष्य की ज़िम्मेदारी क्या किसी एक समूह पर डालना तार्किक और अमली नज़रिये से दुरुस्त है। इतिहास बताता है कि हर तहज़ीब ने इंसानी तरक़्क़ी में हिस्सा डाला है। मिस्र ने इल्म दिया, यूनान ने फ़लसफ़ा दिया, रोम ने क़ानून दिया, अरब दुनिया ने साइंस और जज़्बा-ए-तहक़ीक़ दिया, चीन ने फ़लसफ़ाना बुनियादें, अफ्रीका ने अदबी व रूहानी वसीअतें।
तो क्या दुनिया की बुनियाद एक ही सभ्यता से चल सकती है या अनेक सभ्यताएँ मिलकर एक बेहतर कल का नक्शा बनाती हैं।
यहाँ बात केवल हिन्दू या मुसलमान या ईसाई या सिख की नहीं है। असल बहस इंसान और उसके सामूहिक भविष्य की है। अगर इंसानियत बची रहेगी, तो दुनिया रहेगी। अगर नफ़रत, तअस्सुब, और तंग-नज़री बढ़ेगी, तो दुनिया का अंत किसी एक समुदाय के न होने की वजह से नहीं, बल्कि इंसान की ग़लतियों से होगा।
भागवत का दावा कि हिन्दू समाज ही दुनिया को धर्म का सही रास्ता दिखाता है, एक दिलचस्प दलील है। इसमें एक इज़्ज़ते-नफ़्स और आत्मविश्वास है। मगर सवाल यह भी है कि क्या हर समाज को अपने आप को ही सबसे ऊपर मानने का अधिकार है। क्या अपने समाज को महान कहना दूसरों को कमतर समझे बिना मुमकिन है।
यहाँ एक बुनियादी फ़लसफ़ी सवाल उठता है। महानता का मतलब श्रेष्ठता नहीं होना चाहिए। महानता का मतलब इंसाफ़, बराबरी, मोहब्बत, इल्म और इंसानियत की तरक़्क़ी में योगदान है।
अगर आज दुनिया में टकराव बढ़ रहा है, तो उसकी वजह सभ्यताओं का अंत नहीं, बल्कि समझ की कमी, संवाद की रुकावट, और तानाशाही सोच का उभरना है।
मोहन भागवत ने ब्रिटिश साम्राज्य के पतन और संघर्ष का हवाला दिया। इसमें सीख यह है कि कोई भी ताक़त हमेशा के लिए नहीं होती। न ज़ुल्म, न निज़ाम, न ग़ुरूर। जो समाज खुद को सुधारता रहता है, वही ज़िंदा रहता है।
यहाँ एक दूसरा तर्क उठता है। अगर हिन्दू समाज सच में दुनिया के लिए अहम है, तो उसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यही है कि वह अमन, बराबरी, न्याय और इंसानियत का पैग़ाम फैलाए। खुद को केंद्र बिंदु मानने से नहीं, बल्कि दूसरों को साथ लेकर चलने से सभ्यता का असल क़ल्चर बनता है।
मणिपुर के दर्दनाक हालात, जहां समाज लंबे समय से टकराव और डर का सामना कर रहा है, यह याद दिलाते हैं कि असली काम भाषण नहीं, बल्कि जमीनी इंसानी मरहम और भरोसा बहाल करना है। अगर समाज बंटा रहेगा, तो कोई भी बयान दुनिया को नहीं बचा सकता।
भागवत ने कहा कि उनका संगठन किसी के खिलाफ़ नहीं, सामाजिक एकता के लिए बना। यह अच्छी बात है। मगर सवाल यह है कि तब ज़मीन पर नफ़रत, डर, हिंसा और विभाजन क्यों बढ़ता जा रहा है। क्या बयानबाज़ी और हक़ीक़त में कोई दूरी है।
यक़ीनन हिंदुस्तान एक अमर सभ्यता है। इसकी ख़ूबसूरती इसकी बहुरंगी तासीर है। गंगा-जमनी तहज़ीब, सूफ़ी रूहानियत, वेदांत फ़लसफ़ा, बुद्ध का करुण संदेश, और अकबर का सुल्ह-ए-कुल, सब मिलकर इस ज़मीन का दिल बनाते हैं।
तो क्या दुनिया के बचने का रास्ता हिन्दू समाज की मौजूदगी से होकर जाता है या इंसानियत के मिलकर खड़े होने से।
असली बहस यही है।सवाल यह नहीं कि कौन बचेगा।
सवाल यह है कि दुनिया को कौन बचाएगा।
और जवाब शायद एक शब्द में है।
इंसान.




