
Samajwadi Party National President Akhilesh Yadav commented on the current political situation at a press conference. In the presence of senior leaders, he addressed several important issues.
अखिलेश यादव का इल्ज़ाम: साज़िश से पचास हज़ार वोट काटने की तैयारी
📍Lucknow🗓️ 22,November 2025 ✍️Asif Khan
समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इल्ज़ाम लगाया कि चुनाव आयोग और भाजपा मिलकर विपक्ष के वोट काटने की संगठित कोशिश कर रहे हैं। दावा है की जीत वाली हर विधानसभा सीट पर लगभग पचास हज़ार वोट हटाने की तैयारी है।
चुनाव केवल तारीख़ और मतपत्र का मामला नहीं होते। चुनाव हमेशा भरोसे, अमानत और यक़ीन की बुनियाद पर टिके होते हैं। जब यह भरोसा हिलता है, तो पूरी लोकतांत्रिक इमारत में कंपन महसूस होता है। इसी संदर्भ में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का हालिया बयान राजनीतिक बहस का बड़ा मुद्दा बन चुका है। उनका दावा है कि भाजपा और चुनाव आयोग मिलकर विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एस आई आर प्रक्रिया का इस्तेमाल विपक्ष के वोट काटने के लिए कर रहे हैं, ताकि आने वाले चुनावों का परिणाम प्रभावित किया जा सके।
अखिलेश का यह बयान केवल आरोप नहीं, बल्कि राजनीतिक चेतावनी और लोकतंत्र के लिए ख़तरे का इशारा है। इस बयान में एक गहरी बेचैनी दिखती है। उनके अनुसार, २०२४ के लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन जिन क्षेत्रों में जीता, वहाँ अब हर विधानसभा क्षेत्र में लगभग पचास हज़ार वोट काटने की योजना चल रही है। यह सिर्फ़ उत्तर प्रदेश की बात नहीं, उनका कहना है कि बंगाल और तमिलनाडु तक यही सिलसिला फैलाया जा रहा है। यह दावा तब और भारी हो जाता है जब वह यह भी कहते हैं कि बूथ स्तर पर उनकी पार्टी को रिकॉर्डेड बातचीत और स्थानीय अफ़सरों के संकेत मिले हैं।
अब सवाल यह है कि क्या यह आरोप वास्तविक है या चुनावी राजनीति का गरम–मसाला? यही वह जगह है जहाँ विश्लेषण की ज़रूरत बढ़ जाती है।
एस आई आर प्रक्रिया क्या है और क्यों सवालों में है
एस आई आर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण चुनाव आयोग की वह प्रक्रिया है, जो मतदाता सूची को अपडेट करने, मृत और दोहराए गए नाम हटाने तथा नए नाम जोड़ने के लिए चलती है। क़ानून कहता है कि यह प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए। लेकिन विपक्ष का आरोप है कि इस बार यह प्रक्रिया संगठित ढंग से ऐसे चलाई जा रही है जिससे विपक्षी मतदाताओं के नाम हट जाएँ और सत्ता पक्ष को फ़ायदा मिले।
अखिलेश का दावा है कि बी एल ओ घर–घर जाने के बजाय एक ही जगह बैठकर कागज़ी कार्रवाई कर रहे हैं। दलित, पिछड़े, मुसलमान और ग्रामीण इलाक़ों के लोग फ़ॉर्म लेने और जमा कराने के लिए कठिनाई झेल रहे हैं, जबकि सत्ता पक्ष से जुड़े लोगों तक अधिकारी खुद पहुँच रहे हैं। उनके अनुसार, यह एक चुप–चुप गेम है जिसमें किसी की आवाज़ उठे तो उसे अपूर्ण जानकारी के नाम पर काट दिया जाए।
अगर यह सच है, तो लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए यह गहरी चोट है। लेकिन दूसरी ओर, सत्ता पक्ष का पक्ष भी समझने की ज़रूरत है। उनका तर्क होगा कि मतदाता सूची में भारी ग़लतियाँ रहती हैं, दोहराव हटाना ज़रूरी है, और विपक्ष केवल भावनात्मक क्लाइमेट बनाने की कोशिश कर रहा है, ताकि अपनी कमज़ोरियों की चर्चा दबा सके।
दावा और साक्ष्य का संतुलन
यहाँ सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या इन आरोपों के समर्थन में ठोस दस्तावेज़ मौजूद हैं? अखिलेश यह कहते हैं कि बूथ workers को निर्देश दिए गए हैं, और बातचीत के ऑडियो भी हैं। मगर सार्वजनिक रूप से अभी कोई स्पष्ट तकनीकी साक्ष्य नहीं आया। राजनीति में आरोप लगाना आसान है, मगर लोकतंत्र को बचाने के लिए प्रमाण देना ज़रूरी होता है।
मगर एक और सच्चाई भी है। अगर प्रक्रिया में पारदर्शिता न हो, यदि समय कम हो, यदि सूचना लोगों तक न पहुँचे, तो परिणाम अनजाने में भी पक्षपात जैसा दिख सकता है। इसी वजह से एस आई आर की आलोचना सिर्फ़ सपा या कांग्रेस नहीं, बल्कि कई सामाजिक संगठनों और स्वतंत्र constitutional commentators द्वारा भी की जा रही है।
सच और शक की बारीक रेखा
यहाँ दो शक हैं।
पहला: यदि वोट काटने की संगठित तैयारी सच है, तो यह सिर्फ़ विपक्ष का मामला नहीं, बल्कि हर नागरिक का मुद्दा है। लोकतंत्र की असली ताक़त वोट है, वोट ही जनादेश है, और वोट ही असली हुकूमत का हक़ देता है। अगर वोट ही सवाल में आ जाए, तो जनता की आवाज़ कहाँ बचेगी?
दूसरा: यदि यह आरोप केवल राजनीतिक narrative बनाने की चाल है, तो यह लोकतंत्र की पवित्र बहस को भी नुकसान पहुँचाएगा और मतदाता के मन में भय–डर–अविश्वास के बीज बोएगा।
दोनों ही हालतें राष्ट्रहित के विरुद्ध हैं। इसलिए ज़रूरी है कि चुनाव आयोग खुले मंच पर सभी आंकड़े रखे — कितने नाम हटे, किस आधार पर हटे, किस क्षेत्र में कितने नए नाम जुड़े। डेटा बोलता है, अनुमान नहीं।
कहानी का सबसे दिलचस्प और तशव्वीश–अंग जो हिस्सा है, वह यही कि विपक्ष का कहना है कि २००३ की मतदाता सूची से आज तक बहुत से नाम अचानक गायब हैं, और कोई स्पष्ट कारण नहीं दिया गया। लेकिन सत्ता पक्ष कहेगा कि नाम सालों से अपडेट नहीं थे, इसलिए ये हटाए गए।
लोकतंत्र का असली युद्ध वोट की रक्षा है
राजनीति की लड़ाई में बहुत सी बातें कही जाती हैं, मगर एक बात नहीं बदलती: आँकड़े और पारदर्शिता अंतिम सच होते हैं। अगर सरकार सच में मजबूत है, तो उसे प्रक्रिया को साफ़ काँच की तरह पारदर्शी रखने में डर क्यों होगा? और अगर विपक्ष अपने आरोप में सच है, तो उसे प्रमाण सामने लाने में देर क्यों?
यही सवाल इस बहस को दिलचस्प और ज़रूरी बनाते हैं।
अगर यह पूरा मुद्दा एक आम नागरिक की ज़मीन से समझें, तो लोग पूछेंगे:
हमारा नाम वोटर लिस्ट में है या नहीं?
क्या हम मतदान के दिन लाइन में पहुँचेंगे और पता चलेगा कि हमारा नाम ही नहीं?
किसी के खेल में हम क्यों प्यादे बनें?
और यही बात लोकतंत्र की सबसे बड़ी कसौटी है।
आख़री बात
जो तीन निष्कर्ष साफ़ उभरते हैं:
एक
अखिलेश यादव के आरोप गंभीर हैं और जाँच की माँग करते हैं, क्योंकि लोकतांत्रिक भरोसा अनमोल है।
दो
बिना ठोस साक्ष्य के आरोपों को अंतिम सच नहीं कहा जा सकता। साक्ष्य ही निर्णायक होंगे।
तीन
चुनाव आयोग पर पारदर्शिता और समय बढ़ाने की ज़िम्मेदारी है। यदि वह चुप रहेगा, तो संदेह गहरा होगा।
नागरिक के लिए ज़रूरी संदेश
अपना मतदाता कार्ड और नाम अभी जाँचिए।
सूची में नाम न मिले, तो तुरंत शिकायत करें।
चुनाव केवल नेताओं की लड़ाई नहीं, हमारी आवाज़ का फैसला है।
आवाज़ चुप हो गई, तो सत्ता बहरापन सीख जाएगी।




