
Open letter controversy intensifies national debate over election process credibility and institutional trust.
सेवानिवृत्त जज, राजनयिक और अधिकारीयों ने खुला पत्र लिखकर राहुल गांधी के ‘वोट चोरी’ आरोपों से चुनाव आयोग की साख को ठेस पहुँचाने के प्रयासों की कड़ी निंदा की।
📍New Delhi 🗓️ 22 November 2025 ✍️ Asif Khan
प्रबुद्ध नागरिकों का खुला पत्र, राहुल गांधी के आरोप और चुनाव आयोग की साख का सवाल
भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा दौर में संस्थागत आस्था और राजनीतिक आरोपों के टकराव से एक नया विवाद जन्म ले चुका है। 272 प्रबुद्ध और सेवानिवृत्त नागरिकों द्वारा जारी वह खुला पत्र, जिसमें लोकसभा में राहुल गांधी द्वारा लगाए गए वोट चोरी और चुनावी प्रक्रिया में हेरफेर के आरोपों की कठोर निंदा की गई है, अब राष्ट्रीय बहस के केंद्र में है। यह विवाद केवल एक राजनीतिक बयान भर नहीं रहा; यह लोकतांत्रिक ढांचे की विश्वसनीयता और संवैधानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठा के भविष्य का सवाल बन चुका है।
इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में पूर्व न्यायाधीश, वरिष्ठ राजनयिक, सेवानिवृत्त नौकरशाह, सेना, नौसेना और वायुसेना से सेवानिवृत्त अधिकारी तथा कई सामाजिक बुद्धिजीवी शामिल हैं। उनका तर्क है कि संवैधानिक संस्थाओं—विशेषकर चुनाव आयोग—पर बिना प्रमाण लगाए जाने वाले आरोप राष्ट्र की लोकतांत्रिक रीढ़ को कमजोर कर सकते हैं। उनके अनुसार यह राजनीति का सामान्य आरोप-प्रत्यारोप नहीं; बल्कि जनता के विश्वास को चोट पहुंचाने वाली संवेदनशील कार्रवाई है।
यहाँ सवालों का स्वरूप बड़ा है, और इस विवाद में उठाए गए मुद्दों का दायरा भी। चुनाव आयोग पर सवाल नया नहीं; लेकिन पहली बार इतनी बड़ी संख्या में वरिष्ठ नागरिकों ने सार्वजनिक रूप से चेतावनी जारी की है कि राजनीतिक लाभ के लिए संस्थाओं की विश्वसनीयता को गिराने का प्रयास राष्ट्रहित के विरुद्ध है।
पत्र की पृष्ठभूमि और उसकी गंभीरता
खुला पत्र महज शब्दों का जमघट नहीं। यह उन लोगों का बयान है जिन्होंने दशकों तक सार्वजनिक सेवा की है और जिन्हें भारतीय प्रशासनिक और न्यायिक ढांचे को भीतर से देखने का अवसर मिला। उन्होंने स्पष्ट लिखा कि लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के बीच बहस और असहमति स्वाभाविक है, बल्कि आवश्यक है; लेकिन संवैधानिक संस्थाओं को निशाना बनाना और जनता के विश्वास को अस्थिर करना खतरनाक संकेत है।
उनकी मुख्य चिंता यह है कि बार-बार वोट चोरी, चुनावी प्रक्रिया की धांधली, ईवीएम में गोलमाल, और चुनाव आयोग की पक्षपातपूर्ण भूमिका जैसे आरोप चुनकर विपक्षी वर्ग को राजनीतिक ऊर्जा मिल सकती है, पर ऐसे आरोप यदि प्रमाणरहित हों तो यह लोकतांत्रिक ढांचे के लिए विषाक्त वातावरण तैयार कर देते हैं।
उनका कहना है कि—
संवैधानिक संस्थाओं पर अविश्वास फैलाने से नागरिक दिशाहीन हो जाते हैं
चुनावी प्रक्रिया की निष्ठा पर संदेह बढ़ता है
मतदान की भावना कमजोर होती है
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय लोकतंत्र की छवि प्रभावित होती है
यह चेतावनी आज तब और अहम हो जाती है जब इंटरनेट, सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप संदेशों की गति पर आरोप और प्रतिक्रियाएँ पल भर में आग की तरह फैलती हैं। ऐसे दौर में संस्थाओं की स्थिरता ही लोकतंत्र का सबसे बड़ा कवच है।
राहुल गांधी के आरोप: संदर्भ और राजनीतिक तापमान
लोकसभा में वक्तव्य देते समय राहुल गांधी ने मतगणना प्रक्रिया, वोट प्रतिशत के उतार-चढ़ाव और सीटों के अंतिम आंकड़ों में विलंब को आधार बनाते हुए चुनाव आयोग पर गंभीर सवाल उठाए। उनका कहना है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जनता का भरोसा टूट रहा है और चुनाव आयोग स्पष्टता और पारदर्शिता की कमी का शिकार है। उनके अनुसार उन्हें कई सीटों पर वोटों की गिनती में देरी के संकेत मिले, जो संदेह का विषय हैं।
विपक्ष का एक वर्ग लंबे समय से ईवीएम पर प्रश्न उठाता आया है और बैलेट बॉक्स की वापसी की मांग भी की जाती रही है। यह बहस चुनावी तकनीक बनाम परंपरागत मतदान प्रणाली की खींचतान से कहीं आगे बढ़कर राजनीतिक विश्वास के संकट में बदल चुकी है। राहुल गांधी की तल्खी उसी पृष्ठभूमि से निकली है, जहाँ विपक्ष चुनावी परिणामों को केवल हार-जीत नहीं बल्कि संरचनात्मक असमानता का परिणाम बताता है।
लेकिन जब 272 नागरिकों का समूह इसे संस्थागत प्रतिष्ठा को चोट बताता है, तो प्रश्न दोनों पक्षों पर खड़ा होता है — क्या आरोपों की पड़ताल होनी चाहिए या आरोप लगने से पहले प्रमाण सामने आने चाहिए?
लोकतंत्र का असली संकट: आरोपों और प्रमाणों के बीच फँसा विश्वास
लोकतांत्रिक देशों में विपक्ष का काम सवाल पूछना है। सत्ता से जवाब माँगना आवश्यक है। लेकिन लोकतांत्रिक जिम्मेदारी यह भी कहती है कि हर आरोप ठोस तथ्य, दस्तावेज़ और स्वतंत्र सत्यापन की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। यहाँ समस्या यही से शुरू होती है कि राजनीतिक बयान अक्सर बड़े होते हैं लेकिन प्रमाण अस्पष्ट।
सवाल यह भी उठता है:
क्या बिना प्रमाण लगाए आरोप जनता के मन में भय और अस्थिरता की भावना फैलाते हैं?
क्या बार-बार की शंका वोटर की लोकतांत्रिक भागीदारी को कम कर सकती है?
क्या राजनीतिक रणनीति के तौर पर लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अविश्वास की धारणा बनाने की कोशिश हो रही है?
इन प्रश्नों का उत्तर आसान नहीं, पर लोकतंत्र की स्थिरता इन्हीं उत्तरों पर टिकती है। खुला पत्र लिखने वाले नागरिकों का कहना है कि संस्था की आलोचना स्वीकार्य है, मगर उसे गिराने की कोशिश निंदा योग्य है।
बड़े संदर्भ में देखें: संस्थाओं बनाम राजनीति का संघर्ष
चुनाव आयोग बीते वर्षों में विवादों में रहा है—चाहे वह चुनाव तिथियों की घोषणा हो, आचार संहिता, चुनाव खर्च नियंत्रण या ईवीएम। हर चुनाव के बाद प्रश्न उठे हैं, और कई बार अदालतों ने भी सुधार की आवश्यकता बताई है।
लेकिन यह भी सच है कि—
भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का संचालन करता है
हर चुनाव में करोड़ों वोट गिने जाते हैं
हिंसा और गड़बड़ी की घटनाएँ न्यूनतम स्तर पर हैं
मतदाता सहभागिता उल्लेखनीय रही है
न्यायपालिका लगातार आयोग के अधिकारों और कार्रवाई की निगरानी करती है
यह संरचना कमियों के बावजूद विश्वसनीय संस्थागत संरचना का उदाहरण है।
यदि राजनीति ईमानदार सुधार चाहती है, तो उसे प्रस्ताव, विधेयक, या सार्वजनिक दस्तावेज़ सामने रखने चाहिए, केवल संदेह नहीं।
आम नागरिक पर असर: विश्वास की जंग
नागरिक आज पहले से कहीं अधिक सतर्क और सक्रिय हैं। लेकिन अभूतपूर्व सूचना-प्रवाह के बीच तथ्य और भ्रम की रेखा पतली होती जा रही है।
जब विपक्ष चुनाव आयोग पर सवाल उठाता है, लोग भ्रमित होते हैं। जब 272 नागरिक इसका विरोध करते हैं, लोग सोच में पड़ जाते हैं। दोनों ही स्थितियाँ नागरिक मन में अनिश्चितता और विरोधाभास का बोझ डालती हैं।
लोकतंत्र में वोटर ही अंतिम निर्णयकर्ता है। यदि वही भ्रम की स्थिति में हो, तो पूरी प्रणाली खड़ी नहीं रह सकती। इसलिए इस बहस का सबसे अहम पक्ष लोकतंत्र का मनोवैज्ञानिक संतुलन है।
क्या होना चाहिए: समाधान का रास्ता
इस विवाद का समाधान बयानबाज़ी में नहीं, बल्कि संरचनात्मक सुधार में है।
संभावित रास्ते:
• चुनावी प्रक्रिया की लाइव ट्रैकिंग
• परिणामों में देरी के कारणों की सार्वजनिक स्पष्टीकरण प्रणाली
• राजनीतिक दलों की तकनीकी समिति बनाना
• ईवीएम और वीवीपैट की स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय ऑडिट
• चुनाव आयोग का वार्षिक जवाबदेही रिपोर्ट प्रकाशित करना
• पार्टी नेताओं द्वारा आरोपों के लिए ठोस दस्तावेज़ प्रस्तुत करना
यदि आरोप सत्य हैं, तो सबूत राष्ट्र के सामने रखे जाने चाहिए। यदि नहीं, तो गलत आरोपों के लिए राजनीतिक जवाबदेही तय होनी चाहिए।
लोकतंत्र आरोपों पर नहीं, विश्वास पर चलता है
272 नागरिकों का पत्र केवल सरकार के पक्ष में लिखा दस्तावेज़ नहीं—यह नागरिक चेतावनी है कि लोकतंत्र भावनाओं और धारणाओं पर नहीं टिका रह सकता। विपक्ष का कर्तव्य है कि वह सवाल पूछे, पर उत्तर भी जिम्मेदारी से तलाशे। सत्ता पक्ष का कर्तव्य है कि वह पारदर्शिता दे, घमंड नहीं। और संस्थाओं का कर्तव्य है कि वे निष्पक्ष रहें, और साबित करें कि वे निष्पक्ष हैं।
लोकतंत्र की रीढ़ चुनाव आयोग है। उस पर हमला केवल संस्था पर नहीं, पूरे लोकतंत्र के ढाँचे पर चोट है। आज भारत का लोकतंत्र बहस, संघर्ष और टकराव के दौर से गुजर रहा है। सवाल यही है कि क्या हम इस बहस को विनाशकारी अविश्वास में बदलेंगे, या इसे सुधारों और संस्थागत मजबूती में बदल पाएँगे?
इतिहास कहता है—राष्ट्र का भविष्य तर्कसंगत बहस से लिखता है, आरोपों से नहीं।
आज सबसे बड़ा सवाल जीत-हार का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा का है। यदि हम विश्वास खो देते हैं, तो हम सब हार जाते हैं। यदि हम सत्य और पारदर्शिता की दिशा में आगे बढ़ते हैं, तो लोकतंत्र जीतता है।




