
SIR विवाद पर संसद में ठप कामकाज, विपक्ष का हमला तेज
📍नई दिल्ली 🗓️ 2 दिसंबर 2025
✍️ Asif Khan
संसद का शीतकालीन सत्र SIR पर टकराव में फंसा हुआ है। विपक्ष सरकार से तुरंत चर्चा की मांग पर अड़ा है, जबकि सरकार बिना टाइमलाइन चर्चा के लिए तैयार बताई जा रही है। सोनिया गांधी से लेकर खड़गे तक पूरा विपक्ष संसद परिसर में प्रदर्शन कर रहा है। दोनों सदनों में लगातार हंगामे से कामकाज रुक गया है। मुद्दा सिर्फ प्रक्रिया का नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक भरोसे का भी है।
संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत जिस उम्मीद के साथ हुई थी, वह SIR को लेकर बढ़ते टकराव में बदल गई। सदन के भीतर की आवाज़ें ऊँची हो रही हैं, और बाहर का माहौल भी सियासी दबाव महसूस कर रहा है। विपक्ष का कहना है कि इस बार बात केवल एक प्रक्रिया की नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक अमानत की हिफाज़त का मामला है। उनके मुताबिक, अगर वोटर लिस्ट या चुनावी प्रक्रियाओं पर सवाल उठते हैं, तो किसी भी लोकतंत्र में उसका जवाब देना सरकार की जिम्मेदारी बनती है।
यहाँ एक दिलचस्प बिंदु सामने आता है। विपक्ष का नैरेटिव यह है कि SIR चुनावी ढाँचे को बदल सकता है और इससे मतदाताओं का भरोसा हिल सकता है। वहीं सरकार का तर्क है कि विपक्ष मुद्दे को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है। कहें तो both sides are framing the narrative to suit their political convenience. सवाल यह नहीं कि कौन सही है और कौन गलत, बल्कि यह कि बहस आखिर क्यों शुरू नहीं हो पा रही।
मंगलवार सुबह संसद के मकर द्वार के बाहर विपक्षी नेताओं की मौजूदगी सिर्फ प्रतीकात्मक विरोध नहीं थी। यह एक तरीका था यह दिखाने का कि वह सिर्फ सदन के भीतर नहीं, बल्कि जनता के सामने भी इस मुद्दे को जीवित रखना चाहते हैं। सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी प्रियंका गांधी , TR बालू और दूसरे नेता इस विरोध में शरीक हुए। नारे साफ थे: SIR वापस लो और प्रधानमंत्री सदन में आओ। यह सिर्फ नारों की गूँज नहीं थी, बल्कि एक संदेश भी था कि विपक्ष SIR को लेकर पीछे हटने वाला नहीं।
यहाँ एक तार्किक सवाल उठता है। अगर सरकार पहले से कह रही है कि वह चर्चा के खिलाफ नहीं, तो फिर गतिरोध क्यों? कहें तो “ग़लतफ़हमी का दायरा जितना बढ़ता है, हल उतना ही दूर चला जाता है।” विपक्ष की मांग है कि SIR पर तत्काल चर्चा हो, और सरकार का कहना है कि टाइमलाइन थोपना जायज़ नहीं। English में इसे political deadlock कहा जाता है — दोनों पक्ष अपनी-अपनी लाइन से एक इंच भी हिलने को तैयार नहीं।
संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने राज्यसभा में कहा कि सरकार consult कर रही है और demand को खारिज नहीं किया गया है। यह एक नरम संकेत था। मगर विपक्ष संतुष्ट नहीं हुआ और वॉकआउट कर दिया। ऐसा लगता है कि विपक्ष को डर है कि अगर चर्चा अनिश्चित समय तक टलती रही, तो मुद्दा अपना momentum खो देगा। राजनीति में timing कभी-कभी substance जितनी ही अहम होती है।
उधर लोकसभा में हंगामा इस कदर बढ़ा कि कार्यवाही सुबह से दोपहर तक और फिर पूरे दिन के लिए स्थगित कर दी गई। सदन का ठप पड़ जाना किसी भी लोकतंत्र के लिए सेहतमंद संकेत नहीं माना जाता। लेकिन यह पहली बार नहीं है जब दोनों तरफ़ के राजनीतिक हितों ने संसद के संचालन को मुश्किल बनाया हो। मुद्दों पर बहस होना चाहिए, परंतु जब चर्चा की प्राथमिकता भी विवाद में आ जाए, तब समस्या पेचीदा हो जाती है।
यह भी ध्यान देने वाली बात है कि विपक्ष के तर्क में एक दिलचस्प मोड़ है। वे कह रहे हैं कि सरकार चाहे तो SIR शब्द को हटाकर electoral reforms या किसी neutral term के साथ चर्चा शुरू कर सकती है। कहें तो “नाम नहीं मुद्दा अहम होता है।” यह एक लचीली पेशकश जैसी लगती है, जो यह दिखाती है कि विपक्ष चर्चा चाहता है, नाम की परवाह कम है। सवाल उठता है कि सरकार इस रास्ते को क्यों नहीं अपनाती? शायद इसलिए कि ऐसा करने से यह संदेश जा सकता है कि विपक्ष के दबाव के आगे झुकना पड़ा।
यहां सरकार के समर्थक यह तर्क दे रहे हैं कि विपक्ष SIR का मामला इसलिए उठा रहा है क्योंकि बिहार चुनाव के नतीजे उनके लिए कठिन रहे। BJP नेताओं का यह कहना कि विपक्ष “हार का ठीकरा SIR पर फोड़ रहा है” एक राजनीतिक व्याख्या जरूर है, लेकिन जरूरी नहीं कि इसे तथ्य मान लिया जाए। English में इसे political accusation कहा जाता है, evidence नहीं।
अब बात लोकतंत्र की। लोकतंत्र सिर्फ मतदान का नाम नहीं है बल्कि प्रक्रिया पर भरोसे का भी नाम है। अगर जनता को लगे कि वोटर लिस्ट, टेक्नोलॉजी और चुनाव प्रबंधन के तरीकों में पारदर्शिता नहीं है, तो व्यवस्था कमजोर होती है। इसीलिए SIR जैसे विषयों पर खुली और समयबद्ध चर्चा लालच या दबाव का नहीं बल्कि जिम्मेदारी का सवाल बन जाती है। यही वजह है कि विपक्ष इस बहस को सिर्फ नियमों के दायरे में नहीं, लोकतांत्रिक नैतिकता के आधार पर देख रहा है।





