
Akhilesh Yadav's sharp attack on BJP over the release of Azam Khan.
अखिलेश बोले– आज़म ख़ाँ की रिहाई से सपा को मिली नई ताक़त, भाजपा घबराई
सियासत में वापसी: आज़म ख़ाँ की रिहाई और अखिलेश का भाजपा पर तीखा वार
आज़म ख़ाँ की रिहाई पर अखिलेश यादव ने भाजपा सरकार को कटघरे में खड़ा किया। जातीय भेदभाव, फ़र्ज़ी मुक़दमे और राजनीतिक साजिशों पर बोले अखिलेश– “इंसाफ़ की जीत हुई है।”
जाति, धर्म और राजनीति: आज़म ख़ाँ के बहाने अखिलेश ने साधा योगी सरकार पर निशाना
Lucknow, (Shah Times)। उत्तर प्रदेश की राजनीति हमेशा से मुक़दमे, आंदोलन और अदालत के फ़ैसलों से गहराई से जुड़ी रही है। कभी मुलायम सिंह यादव के धरनों से लेकर, मायावती पर लगे भ्रष्टाचार मामलों तक, और अब आज़म ख़ाँ की रिहाई तक—यह प्रदेश मानो न्यायालय और राजनीति के बीच की खींचतान का अखाड़ा बन चुका है।
आज़म ख़ाँ: संघर्ष और सियासत का नाम
आज़म ख़ाँ का पूरा सफ़र भारतीय राजनीति की उस परंपरा को बयान करता है, जिसमें सत्ता के साथ टकराव और मुक़दमे लगभग नियति की तरह सामने आते हैं। रामपुर से निकलकर, समाजवादी आंदोलन की नसों में अपनी जगह बनाने वाले आज़म ख़ाँ, सिर्फ़ एक नेता नहीं बल्कि मुसलमानों की आवाज़ समझे जाते रहे हैं। यही कारण है कि जब उन पर दर्जनों मुक़दमे ठोके गए, तो समाजवादी कार्यकर्ताओं ने इसे सत्ता का दमन बताया।
भाजपा सरकार पर आरोप है कि उसने आज़म ख़ाँ को सबक सिखाने के लिए प्रशासनिक मशीनरी का इस्तेमाल किया। उनके परिवार, जौहर विश्वविद्यालय और करीबियों पर लगातार केस दर्ज होते रहे। यही वजह है कि उनकी रिहाई को सपा ने सिर्फ़ एक कानूनी जीत नहीं बल्कि राजनीतिक बदले से मुक्ति के तौर पर पेश किया है।
अखिलेश यादव का तेवर
अखिलेश यादव ने लखनऊ में प्रेस कॉन्फ़्रेंस करते हुए कहा कि कोर्ट ने साबित कर दिया कि इंसाफ़ ज़िंदा है। उन्होंने भाजपा पर जातीय और धार्मिक भेदभाव का आरोप लगाया। उनके बयान में दो बातें साफ दिखती हैं–
पहली, न्यायपालिका पर भरोसा जताकर उन्होंने जनता को संदेश दिया कि लोकतंत्र अभी जीवित है।
दूसरी, भाजपा पर हमला बोलकर उन्होंने विपक्षी राजनीति को धार दी।
उनका यह बयान कि “समाजवादी सरकार आने पर आज़म ख़ाँ सहित पत्रकारों पर दर्ज सभी फ़र्ज़ी मुक़दमे वापस होंगे” दरअसल एक राजनीतिक वादा भी है। यह बयान सीधे उन वर्गों तक जाता है जो मौजूदा सरकार से पीड़ित महसूस करते हैं।
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जाति और सत्ता की ताक़त
उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझना है तो जाति को समझना अनिवार्य है। अखिलेश यादव ने गोरखपुर और एसटीएफ की पोस्टिंग में जातिगत वर्चस्व का मुद्दा उठाया। यह आरोप नया नहीं है। विपक्ष बार–बार कहता रहा है कि भाजपा सरकार में एक ख़ास जाति को वरीयता मिलती है।
यहाँ सवाल यह है कि क्या भाजपा सचमुच जातीय समीकरण के आधार पर पोस्टिंग और नियुक्तियाँ कर रही है, या यह विपक्ष का राजनीतिक नैरेटिव है? हक़ीक़त यह है कि यूपी जैसे राज्य में कोई भी सरकार जातीय समीकरणों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती। चाहे वह सपा हो, बसपा हो या भाजपा।
फिर भी, जब अखिलेश जातीय भेदभाव की बात करते हैं, तो यह संदेश उन जातियों तक जाता है जो सत्ता से उपेक्षित महसूस करती हैं। यही समाजवादी राजनीति का पुराना हथियार भी है।
आज़म ख़ाँ की वापसी का असर
आज़म ख़ाँ की रिहाई से समाजवादी पार्टी को राहत मिली है। यह राहत सिर्फ़ भावनात्मक नहीं, बल्कि चुनावी भी है। आज़म ख़ाँ मुसलमानों के बीच अब भी एक बड़ा चेहरा हैं। उनकी उपस्थिति से सपा के मुस्लिम वोट बैंक को मजबूती मिलेगी।
पर यहाँ एक दूसरा पहलू भी है। आज़म ख़ाँ पर लगे आरोपों और मुक़दमों ने उनकी छवि को भी चोट पहुंचाई है। भाजपा लगातार उन्हें “कानून तोड़ने वाले नेता” के रूप में पेश करती रही है। ऐसे में, सपा को सावधानी रखनी होगी कि उनकी रिहाई को जनता न्याय की जीत के रूप में देखे, न कि अपराधी की वापसी के रूप में।
विपक्षी एकजुटता और PDA की राजनीति
अखिलेश यादव ने PDA (पिछड़ा–दलित–अल्पसंख्यक) की एकजुटता का ज़िक्र किया। यह भाजपा के OBC–Dalit–Upper Caste गठजोड़ के सामने विपक्ष का जवाब है। आज़म ख़ाँ जैसे नेता PDA की इस राजनीति में अहम कड़ी साबित हो सकते हैं।
लेकिन सवाल यही है: क्या यह गठजोड़ टिकाऊ होगा? क्योंकि सपा की राजनीति पर बार–बार आरोप लगा है कि वह मुसलमानों की पार्टी बनकर रह जाती है। ऐसे में, अगर पार्टी PDA की राजनीति पर गंभीर है, तो उसे आज़म ख़ाँ की वापसी को संतुलित ढंग से पेश करना होगा।
न्यायपालिका पर भरोसा और लोकतंत्र का सवाल
आज़म ख़ाँ की रिहाई से एक और बड़ा मुद्दा उठता है– न्यायपालिका की भूमिका। जब सरकार पर राजनीतिक बदले के आरोप लगते हैं और अदालत राहत देती है, तो यह लोकतंत्र के लिए सकारात्मक संकेत है। अखिलेश ने अदालत का शुक्रिया अदा करके इस संदेश को और पुख्ता किया।
पर लोकतंत्र का असली इम्तिहान यह है कि क्या अदालत हर वर्ग और हर व्यक्ति के साथ बराबरी का बर्ताव करती है। अखिलेश ने बाबा साहब अंबेडकर और डॉ. लोहिया का हवाला देकर याद दिलाया कि जातीय भेदभाव का अंत केवल कानून से नहीं, बल्कि समाजिक चेतना से होगा।
भाजपा के लिए चुनौती
आज़म ख़ाँ की रिहाई भाजपा के लिए सिर्फ़ एक कानूनी मसला नहीं है। यह राजनीतिक चुनौती भी है। सपा अब इस मुद्दे को “भाजपा की तानाशाही बनाम इंसाफ़” के नैरेटिव में ढालना चाहेगी।
भाजपा को यह साबित करना होगा कि उसने आज़म ख़ाँ पर कार्रवाई कानून के तहत की थी, न कि बदले की राजनीति के तहत।
जनता का नज़रिया
आम मतदाता के लिए यह मामला जटिल है। कुछ लोग इसे न्याय की जीत मानते हैं, तो कुछ इसे राजनीति का हिस्सा। जो लोग भाजपा समर्थक हैं, उनके लिए यह “अपराधी को राहत” है। जबकि समाजवादी कार्यकर्ताओं के लिए यह “संघर्ष का मुकाम” है।
हकीकत में चुनाव तय करेगा कि जनता किस नैरेटिव को अपनाती है।
आगे की राह
अखिलेश यादव ने यह साफ कर दिया है कि सपा सरकार बनने पर सभी फ़र्ज़ी मुक़दमे वापस लिए जाएंगे। यह वादा समाजवादी कार्यकर्ताओं और पीड़ितों के लिए उम्मीद जगाता है। पर यह भी देखना होगा कि क्या जनता इसे “न्याय” समझेगी या “राजनीतिक सौदेबाज़ी”।
आज़म ख़ाँ की राजनीति का अगला अध्याय अब शुरू हो चुका है। वह फिर से जनता के बीच जाएंगे, भाजपा सरकार पर हमला करेंगे और अपने समर्थकों को जोड़ेंगे। पर राजनीति में सिर्फ़ भावनाएं नहीं, रणनीति भी काम करती है।
अगर सपा इस मुद्दे को सही ढंग से पेश करती है, तो यह भाजपा के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है।