
Shoe-throwing incident in Supreme Court, attack on CJI Gavai
अदालत कक्ष में बवाल: न्यायिक गरिमा पर चोट या सोची-समझी साज़िश?
न्यायिक स्वतंत्रता पर हमला या समाज की गहराती बेचैनी?
📍 नई दिल्ली
📅 6 अक्तूबर 2025
✒️ Asif Khan
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान एक वकील ने मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंककर न केवल अदालत की मर्यादा तोड़ी, बल्कि पूरे लोकतंत्र को झकझोर दिया। यह घटना महज़ एक क्षणिक उत्तेजना नहीं बल्कि उस सामाजिक तनाव और राजनीतिक माहौल की झलक है जो आजकल गहराता जा रहा है।
अदालत की चौखट पर अभूतपूर्व घटना
सुप्रीम कोर्ट का कक्ष नंबर 1 वह जगह है जहाँ से देश की संवैधानिक आत्मा की दिशा तय होती है। वहाँ बैठा हर जज केवल एक इंसान नहीं, बल्कि पूरे लोकतंत्र का प्रतिनिधि होता है। इसी पवित्र स्थान पर सोमवार को जो हुआ, उसने सबको स्तब्ध कर दिया। एक साठ-पैंसठ साल का वकील अचानक उठा और मुख्य न्यायाधीश की ओर जूता फेंक दिया।
यह कोई सड़क किनारे होने वाला हंगामा नहीं था। यह उस जगह पर हुआ जहाँ हर शब्द तौला जाता है, हर बहस संविधान की कसौटी पर परखी जाती है। सवाल यह है कि आखिर एक वरिष्ठ वकील इतना क्यों भड़क गया कि उसने अदालत की गरिमा को तोड़ने की हद तक कदम उठा लिया।
नारों की गूंज और अदालत का सन्नाटा
प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक, जब यह वकील सुरक्षा में पकड़ा जा रहा था, तब वह नारे लगाता रहा — “सनातन धर्म का अपमान नहीं सहेगा हिन्दुस्तान।” अदालत कक्ष में कुछ क्षणों के लिए अफरा-तफरी मच गई। लेकिन जस्टिस गवई ने जिस शांति और धैर्य से माहौल संभाला, वह अपने आप में संदेश था। उन्होंने कहा, “इन बातों से हमें विचलित नहीं होना चाहिए।”
इस वाक्य ने अदालत में मौजूद सबको याद दिलाया कि न्यायपालिका की ताकत उसके संयम और धैर्य में है, न कि किसी प्रतिक्रिया में।
इतिहास की कसौटी पर यह घटना
अगर सुप्रीम कोर्ट के इतिहास को देखा जाए तो ऐसी घटना पहले कभी नहीं घटी। संसद में, विधानसभाओं में, यहाँ तक कि चुनावी रैलियों में तो इस तरह के हमले कई बार हुए हैं। लेकिन न्यायपालिका हमेशा इससे अछूती रही। इसलिए यह घटना केवल एक “जूता फेंकने” की हरकत नहीं है, बल्कि न्यायपालिका की पवित्रता पर सीधा हमला है।
सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि
पिछले कुछ महीनों में न्यायपालिका पर लगातार सवाल उठाए जा रहे थे। सोशल मीडिया पर संगठित तरीके से मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा था। यह भी सच है कि कुछ फ़ैसलों ने समाज के अलग-अलग हिस्सों में असंतोष को जन्म दिया। लेकिन क्या असहमति का मतलब यह है कि अदालत की गरिमा को कुचल दिया जाए?
असल मुद्दा यह है कि समाज में असहमति को व्यक्त करने के तरीकों में हिंसा और आक्रामकता बढ़ रही है। पहले लोग कलम और शब्दों से विरोध करते थे, अब नारे और हमले आम हो गए हैं।
सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल
सुप्रीम कोर्ट जैसी जगह पर, जहाँ प्रवेश पाना आसान नहीं, वहाँ कोई जूता लेकर अंदर पहुँच गया और उसे फेंकने की कोशिश कर दी — यह सुरक्षा व्यवस्था की गंभीर खामी को दिखाता है। क्या सुरक्षा महज़ औपचारिकता बन गई है? अगर यह हमला सफल हो जाता तो न केवल न्यायपालिका बल्कि पूरे लोकतंत्र की साख को धक्का पहुँचता।
न्यायपालिका बनाम भीड़तंत्र
यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि लोकतंत्र की असली रक्षा कौन कर रहा है? अदालतें क़ानून और संविधान के हिसाब से फैसले देती हैं, लेकिन भीड़तंत्र भावनाओं और नारेबाज़ी पर चलता है। अगर अदालत के फैसलों से असहमति है तो उसके लिए अपील और समीक्षा जैसी संवैधानिक प्रक्रियाएँ मौजूद हैं। लेकिन अगर समाज इस रास्ते से हटकर अदालतों के भीतर भी भीड़तंत्र लाने लगे तो फिर लोकतंत्र का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा।
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दलित नेतृत्व और टारगेटेड हमले
दिलचस्प बात यह है कि मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई दलित समाज से आते हैं। इससे पहले भी कई बार देखा गया कि जो लोग दलित समाज से ऊपर उठकर नेतृत्व की भूमिका निभाते हैं, उन्हें निशाना बनाया जाता है। रायबरेली में हरिओम का मामला हो या अदालत में यह हमला — यह घटनाएँ दिखाती हैं कि समाज के एक वर्ग को अभी भी बराबरी स्वीकार नहीं।
असली सबक किसे लेना है
यह घटना केवल न्यायपालिका के लिए चेतावनी नहीं है, बल्कि पूरे समाज के लिए आईना है। अगर आज हम अदालत की गरिमा की रक्षा नहीं कर सके तो कल लोकतंत्र की बाकी संस्थाएँ भी कमजोर पड़ जाएँगी। ज़रूरत इस बात की है कि राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और नागरिक समाज मिलकर यह संदेश दें कि असहमति जताने का अधिकार है, लेकिन हिंसा और हमला किसी हाल में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट में जूता फेंकने की कोशिश: वकील राकेश किशोर निलंबित
BCI ने की सख़्त कार्रवाई
सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी आर गवई पर जूता फेंकने की कोशिश करने वाले वकील राकेश किशोर को बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) ने तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया है। निलंबन के दौरान उन्हें किसी भी न्यायालय, ट्रिब्यूनल या अधिकरण में पेश होने, वकालत करने या पैरवी करने की अनुमति नहीं होगी। BCI ने आरोपी वकील का लाइसेंस भी रद्द कर दिया है।
अनुशासनात्मक कार्रवाई की तैयारी
BCI ने कहा है कि इस मामले में वकील के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू की जाएगी। इसके तहत उन्हें 15 दिन के भीतर नोटिस जारी किया जाएगा, जिसमें पूछा जाएगा कि क्यों यह कार्रवाई जारी न रखी जाए। नोटिस के जवाब और मामले की जांच के आधार पर आगे का आदेश पारित किया जाएगा।
CJI गवई नहीं चाहते कार्रवाई
दिल्ली पुलिस ने कोर्ट परिसर में ही राकेश किशोर को हिरासत में लिया था, लेकिन बाद में छोड़ दिया। सुप्रीम कोर्ट सूत्रों के अनुसार, CJI बी आर गवई इस घटना पर कोई सख़्त कार्रवाई नहीं चाहते। उन्होंने रजिस्ट्री अफसरों से कहा कि इस घटना को इग्नोर किया जाए। भोजनावकाश के दौरान हुई मीटिंग में सुरक्षा व्यवस्था को और कड़ा करने पर ज़रूर चर्चा हुई।
सोनिया गांधी की प्रतिक्रिया
इस घटना पर कांग्रेस संसदीय दल अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कड़ी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश पर सर्वोच्च न्यायालय में हुआ हमला केवल उन पर नहीं बल्कि संविधान पर हमला है। सोनिया ने कहा कि “गवई जी बेहद दयालु रहे हैं, लेकिन राष्ट्र को उनके साथ एकजुटता दिखानी चाहिए।”
वकील राकेश किशोर का बयान
राकेश किशोर ने कोर्ट में जूता फेंकते समय नारेबाज़ी करते हुए कहा कि “भारत सनातन धर्म के अपमान को बर्दाश्त नहीं करेगा।” बाद में उन्होंने स्वीकार किया कि यह हमला CJI गवई को निशाना बनाकर किया गया था। किशोर ने न्यायाधीश चंद्रन से माफ़ी भी मांगी।
वकीलों का रुख
सुप्रीम कोर्ट के वकील रोहित पांडे ने बताया कि राकेश किशोर बार एसोसिएशन के सदस्य हैं। उन्होंने कहा कि यह हमला शायद CJI गवई की उस टिप्पणी का परिणाम था जिसमें उन्होंने जावरी मंदिर की याचिका पर कहा था—“यह केवल प्रचार संबंधित मामला है, अब खुद देवता से पूछो।” पांडे ने इस कृत्य की निंदा करते हुए कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग की।
पूरा विवाद क्या है?
यह विवाद उस समय से जुड़ा है जब मध्य प्रदेश के जावरी मंदिर में 7 फुट की विष्णु प्रतिमा के पुनर्स्थापन की याचिका पर सुनवाई हो रही थी। CJI गवई ने याचिका खारिज करते हुए टिप्पणी की थी—“आप भगवान विष्णु के सच्चे भक्त हैं तो जाकर प्रार्थना कीजिए।” इसी टिप्पणी के बाद वकील राकेश किशोर ने विरोधस्वरूप यह कदम उठाया।
नज़रिया
जूता फेंकने वाला चाहे एक व्यक्ति हो, लेकिन उसने पूरे लोकतंत्र को चोट पहुँचाई है। अदालत की मर्यादा पर हमला दरअसल संविधान की आत्मा पर हमला है। यह केवल कानूनी मसला नहीं, बल्कि नैतिक चुनौती भी है। लोकतंत्र तभी मज़बूत होगा जब हम असहमति को सम्मान देंगे और मर्यादा को बनाए रखेंगे।