
योगी बनाम तौकीर रज़ा: बरेली दंगे पर सियासत और शासन का टकराव
धर्म, हिंसा और राजनीति: यूपी की कानून व्यवस्था की असली चुनौती
बरेली | 27 सितम्बर 2025 | आसिफ़ ख़ान
बरेली में जुमे की नमाज़ के बाद भड़की हिंसा ने एक बार फिर उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए। मौलाना तौकीर रज़ा की गिरफ्तारी और सीएम योगी आदित्यनाथ का सख़्त बयान चर्चा में है। लेकिन असली बहस इस बात पर है कि क्या यह गुड गवर्नेंस का इशारा है या सिर्फ़ सत्ता का हनक।
Bareilly,( Shah Times) । बरेली की गलियों में जुमे की नमाज़ के बाद उठी हिंसा की आग ने फिर वही पुराने सवाल जगा दिए – धर्म और सत्ता का रिश्ता क्या है, दंगों का इलाज सिर्फ़ सख़्त बयान है या इंसाफ़ और शांति की ठोस व्यवस्था भी चाहिए? मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बयान कि “मौलाना भूल गया कि सत्ता किसके हाथ में है” न सिर्फ़ सियासी संदेश है बल्कि शासन की प्राथमिकताओं की झलक भी देता है।
सत्ता और अनुशासन का खेल
योगी सरकार ने बरेली बवाल को सिर्फ़ दंगा नहीं माना बल्कि इसे सीधा-सीधा सत्ता की अवहेलना के तौर पर पेश किया। संदेश साफ़ है – “राज्य में क़ानून का मालिक सरकार है, कोई और नहीं।”
लेकिन सवाल उठता है कि क्या लोकतंत्र में सत्ता का मतलब सिर्फ़ डर और अनुशासन है, या जनता के भरोसे और न्याय से भी है?
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मौलाना तौकीर रज़ा: विवादों का सिलसिला
इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल (IMC) प्रमुख मौलाना तौकीर रज़ा का नाम कोई नया नहीं है।
2010 के बरेली दंगे में आरोपी बने।
ज्ञानवापी मसले पर जेल भरो आंदोलन का ऐलान किया।
कई बार विवादित बयान दिए।
उनकी छवि एक धार्मिक नेता से ज़्यादा “विवादों में घिरे मौलाना” की बन चुकी है। लेकिन हर बार उन्हें टारगेट करना क्या सत्ता के लिए आसान रास्ता नहीं बन जाता? और क्या इससे समस्या का असली हल मिलता है?
दंगे और आम जनता का दर्द
हर बार की तरह इस बार भी सबसे ज़्यादा नुकसान आम लोगों को हुआ।
पुलिस पर पथराव और फायरिंग में 15 पुलिसकर्मी घायल।
कई दुकानदारों और राहगीरों की ज़िंदगी अस्त-व्यस्त।
सैकड़ों लोगों पर मुक़दमे, कई गिरफ्तार।
इन सबके बीच जनता का सवाल वही है – “कब तक हर त्यौहार या नमाज़ के बाद सड़कों पर खून बहेगा?”
मौलाना तौकीर रज़ा समेत आठ लोगों की गिरफ्तार
बरेली की हिंसा सिर्फ़ सड़क पर पत्थरबाज़ी और गोलीबारी तक सीमित नहीं रही, बल्कि प्रशासन को इंटरनेट सेवाएँ बंद करने तक मजबूर होना पड़ा। मौलाना तौकीर रज़ा समेत आठ लोगों की गिरफ्तारी और 48 घंटे के इंटरनेट शटडाउन से साफ़ है कि राज्य सरकार हालात पर सख़्त नियंत्रण चाहती है। लेकिन यह सवाल भी उठता है कि क्या इंटरनेट बंद करना स्थायी समाधान है या सिर्फ़ हालात पर अस्थायी पर्दा डालना।
इंटरनेट शटडाउन और लोकतांत्रिक चिंता
आज के दौर में इंटरनेट सिर्फ़ चैटिंग और सोशल मीडिया का साधन नहीं बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी की बुनियादी ज़रूरत है। शिक्षा, व्यापार, स्वास्थ्य सेवाएँ – सब इंटरनेट पर निर्भर हैं। ऐसे में पूरे शहर की सेवाएँ ठप कर देना नागरिक अधिकारों पर असर डालता है। प्रशासन कहता है कि यह शांति के लिए ज़रूरी है, लेकिन आलोचकों का तर्क है कि यह तरीका जनता को सज़ा देने जैसा है।
डीएम का बयान और विकास बनाम साजिश
जिलाधिकारी अविनाश सिंह का कहना है कि शुक्रवार की घटना “प्रदेश और बरेली के विकास को रोकने की साज़िश” थी। उनका तर्क है कि जब बरेली औसत से तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, तभी हिंसा भड़काकर विकास रोकने की कोशिश की जा रही है। यह तर्क राजनीतिक भी लगता है और प्रशासनिक भी। लेकिन हक़ीक़त यह है कि हर दंगे के बाद विकास का पहिया रुकता है – बाज़ार बंद होते हैं, निवेशक पीछे हटते हैं, और जनता डर में जीने लगती है।
योगी सरकार का सख्त रुख़
सीएम योगी आदित्यनाथ ने देर रात अधिकारियों को निर्देश दिए – “एक भी उपद्रवी बख्शा नहीं जाएगा।”
उन्होंने साफ़ किया कि अब यूपी में न कर्फ़्यू लगेगा, न ही दंगाइयों को कोई रियायत मिलेगी।
यह रुख़ सख़्ती का प्रतीक है। लेकिन यह भी सच है कि 2017 से पहले यूपी में लगातार दंगे होते थे, और अब भी कभी-कभी वही हालात बन जाते हैं। सवाल है – क्या गुड गवर्नेंस सिर्फ़ सख़्त कार्रवाई का नाम है या रोकथाम का भी?
गुड गवर्नेंस बनाम सत्ता का प्रदर्शन
योगी सरकार खुद को “गुड गवर्नेंस का मॉडल” कहती है। लेकिन गुड गवर्नेंस का मतलब है –
दंगों को पहले ही रोक लेना।
पुलिस और जनता के बीच विश्वास कायम करना।
न्याय तंत्र को तेज़ और निष्पक्ष बनाना।
अगर हर बार हिंसा के बाद ही कार्रवाई होती है, तो इसे गुड गवर्नेंस नहीं कहा जा सकता। यह तो “संकट आने पर सख़्ती दिखाना” भर है।
धर्म और राजनीति का गठजोड़
बरेली का बवाल एक और सच उजागर करता है – धर्म और राजनीति का रिश्ता अभी भी ज़हरीला है।
मौलाना तौकीर जैसे नेता धर्म की आड़ में राजनीति करते हैं।
सत्ता इन्हीं मौलानाओं को “विलेन” बनाकर ताक़त दिखाती है।
और आम जनता दोनों के बीच पिसती है।
इस चक्र को तोड़े बिना यूपी का भविष्य सुरक्षित नहीं हो सकता।
योगी बनाम पिछली सरकारें
सीएम योगी ने कहा कि “2017 से पहले दंगाइयों को मुख्यमंत्री आवास में सम्मान मिलता था।”
ये बयान विपक्ष पर हमला है। लेकिन क्या यह सच नहीं कि हर दौर की सरकारें दंगों को वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करती रही हैं? कभी मुसलमानों के नाम पर, कभी हिंदुओं के नाम पर।
असल सुधार तभी होगा जब सत्ता दंगों को राजनीति से अलग करके देखे।
जनता की उम्मीदें और डर
बरेली बवाल के बाद जनता दो हिस्सों में बंटी है।
कुछ लोग कहते हैं – “योगी जी ने सख़्ती दिखाई, यही चाहिए।”
कुछ लोग पूछते हैं – “क्या ये सख़्ती सिर्फ़ दिखावा है? असली शांति कब आएगी?”
ये दोनों भावनाएँ सही हैं। लेकिन गुड गवर्नेंस की असली कसौटी है कि जनता को डर नहीं बल्कि भरोसा महसूस हो।
गुड गवर्नेंस की कसौटी
सही मायनों में गुड गवर्नेंस का मतलब है –
दंगे रोकने के लिए सिस्टम तैयार करना
पुलिस और जनता में भरोसा कायम करना
धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वालों पर त्वरित और निष्पक्ष कार्रवाई करना
अगर हर बार “कर्फ़्यू नहीं लगाया” ही सबसे बड़ी उपलब्धि होगी, तो क्या ये गुड गवर्नेंस है या सिर्फ़ राजनीतिक उपलब्धि का प्रचार?
नज़रिया
बरेली का बवाल सिर्फ़ एक दंगा नहीं, बल्कि यूपी की राजनीति और शासन की असली परीक्षा है।
अगर सरकार इसे सिर्फ़ सत्ता का प्रदर्शन बनाकर छोड़ेगी, तो आने वाले कल में फिर ऐसे दंगे होंगे।
अगर सरकार इस मौके पर जनता और पुलिस के बीच भरोसा कायम करती है, तो यही यूपी की असली जीत होगी।
गुड गवर्नेंस का मतलब यही है – सत्ता का डर नहीं, इंसाफ़ और अमन की गारंटी।