
बिहार एग्जिट पोल 2025: वोटर का रुख किस ओर?
बिहार राजनीति 2025 में बदलाव या निरंतरता?
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में रिकॉर्ड तोड़ मतदान के बाद एग्जिट पोल्स के नतीजों ने सियासी पारा तेज़ कर दिया है। एनडीए और महागठबंधन के बीच कांटे की टक्कर दिख रही है, जबकि जनसुराज जैसे नए प्रयोगों की मौजूदगी ने समीकरण और पेचीदा बना दिए हैं। इस रिपोर्ट में हम तर्क, तज़िया, जमीनी हक़ीक़त और वोटर के मन की गहराई को समझेंगे।
📍पटना🗓️11 नवंबर 2025✍️आसिफ़ ख़ान
बिहार चुनाव में रिकॉर्ड वोटिंग से बढ़ी सियासी बेचैनी
बिहार की सियासत हमेशा से कुछ अलग रही है। यहां की हवा में सियासी बहस का रंग मिलता है, और हर चौक-चौराहे पर लोग अपने अंदाज़ में इलेक्शन की तफ्सील खोलते हैं। इस बार भी वही जुनून नज़र आया। पहले चरण में 65 फीसदी से ऊपर वोटिंग और फिर दूसरे चरण में 67.14 फीसदी का आंकड़ा, यह जज़्बा साफ दिखाता है कि जनता ने इस बार फैसला बहुत सोचकर किया है। The voters seem deeply invested this time, more than numbers can explain.
इस बार का मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच कांटे का है, लेकिन यह सेमी-फाइनल या टी20 मैच नहीं है, यह जनता का इम्तिहान भी है और पार्टियों का भी। एक तरफ नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने बिहार की राजनीति में लंबे वक्त तक अपनी पकड़ बनाए रखी है, दूसरी तरफ तेजस्वी यादव हैं जो युवाओं के बीच मजबूत पैठ बना चुके हैं। उधर प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी ने भी कुछ इलाकों में एक नई बहस को जन्म दिया है। लोग कहते हैं कि शायद इनकी एंट्री से वोट बैंक में बिखराव हो सकता है, लेकिन ground reality में कुछ सीटों पर यह “third voice” बनकर सामने आई है।
इस चुनाव में एक अजीब सी बेचैनी है। लोग अपनी बात बड़े एहतियात से कहते हैं। कोई खुलकर यह नहीं बताता कि उसने किसे वोट दिया, लेकिन अंदाज़े और छोटे-छोटे इशारे बता देते हैं कि ज़हन में क्या चल रहा है। गाँव की चाय की दुकान पर बैठे बुज़ुर्ग से भी पूछो तो वह कहता है, “मतदान तो अच्छा हुआ, अब फैसला ईवीएम में बंद है।” यही ख़ामोशी सबसे बड़ा इशारा है।
रिकॉर्ड वोटिंग का मतलब हमेशा anti-incumbency नहीं होता, और blindly pro-incumbency भी नहीं होता। English में कहें, high turnout is often a signal, not a conclusion. यह धारणा भी चुनौती के लायक है। कुछ लोग कह रहे हैं कि इतनी बड़ी वोटिंग से महागठबंधन को फायदा होगा, लेकिन सवाल है: क्या यह जरूरी है कि ज्यादा वोटिंग मतलब बदलाव ही हो? इस चुनाव में महिलाओं की भागीदारी ज्यादा रही, और यह एक फैक्टर गेम बदल सकता है। महिलाएं आर्थिक सुरक्षा, घर की रसोई, शिक्षा, बिजली-पानी की स्थिरता जैसी चीज़ों को प्राथमिकता देती हैं, न कि बड़े सियासी नारे।
दूसरी तरफ युवाओं में बेरोज़गारी का मुद्दा सबसे बड़ा रहा। नौजवान का दिल अभी भी नौकरी, रोज़गार और भविष्य की बेहतरी चाहता है। तेजस्वी यादव ने अपने अंदाज़ में लाखों नौकरियों की बात उठाई, जबकि एनडीए ने विकास के मॉडल की बात की। इन दोनों narrative की जंग ने चुनाव को और गहरा बनाया। English में कहें तो it’s a clash between continuity and aspiration.
अब बात एग्जिट पोल्स की। एग्जिट पोल किसी वोटर की मनोस्थिति का snapshot है, लेकिन यह अंतिम नतीजा नहीं होता। पोलिंग एजेंसियां सैंपल साइज, demography और वोटर pattern को मिलाकर अनुमान लगाती हैं। कभी-कभी ये अनुमान सच साबित होते हैं, और कभी बिल्कुल उलट जाते हैं। बिहार में पहले भी ऐसा हुआ है। इसलिए एग्जिट पोल को सीधे “फैसला” मानना गलत होगा।
फिर भी, बाहर आ रहे projections बता रहे हैं कि मुकाबला करीब-करीब बराबरी का है। कुछ सर्वे में जेडीयू को बढ़त दिखा रहे हैं, कुछ में RJD को। कुछ में बीजेपी की सीटें कम गिरती दिख रही हैं, तो कुछ में कांग्रेस को फायदा। ,ये मंजर पूरी तरह उलझा हुआ है, और इसका असली फैसला 14 नवंबर को ही रोशन होगा।
इस बीच सट्टा बाजार की चर्चा भी चल रही है। वहां के अंदाज़ों में एनडीए को बढ़त दिखाई गई है, लेकिन हमें यह ज़रूर मानना चाहिए कि सट्टा बाजार ना तो लोकतांत्रिक संस्थान है और ना ही राजनीतिक भविष्यवक्ता। इनके रिकॉर्ड रहे हैं, लेकिन blind faith भी नहीं होना चाहिए।
इस पूरे चुनाव में जाति समीकरण भी उतने ही महत्वपूर्ण रहे जितने विकास और रोजगार के मुद्दे। बिहार की सियासत में caste calculus को इग्नोर नहीं किया जा सकता। उर्दू में कहें, बिहारी सियासत की रगों में जातीय समीकरण की धड़कन बेचैन रहती है। लेकिन इस बार जातीय गणित के साथ युवा मन का गणित भी उतना ही निर्णायक दिख रहा है।
अब एक सवाल ज़रूरी है — क्या नीतीश कुमार की credibility अभी भी मजबूत है? कई विश्लेषक कहते हैं कि frequent political shifting ने उनकी छवि को कमजोर किया है। चुनौती के तौर पर कहें — can a leader sustain trust after repeated alliance changes? दूसरी तरफ तर्क आता है कि बिहार की राजनीति में stability के लिए नीतीश जैसा seasoned नेता ही उचित है। दोनों argument valid हैं, और यहीं editorial analysis अपना critical edge दिखाता है।
दूसरी तरफ तेजस्वी यादव की लोकप्रियता undeniable है। उन्हें युवाओं का बड़ा सपोर्ट मिला है। पर counter argument भी जरूरी है: क्या तेजस्वी ने corruption narrative के खिलाफ पर्याप्त clarity दी? क्या job promise सिर्फ political rhetoric है या actual roadmap भी मौजूद है? यह सवाल महत्वपूर्ण है, क्योंकि बिहार का voter emotional नहीं बल्कि practical decision लेता है।
अंत में बात जनता की करें। तो असली बादशाह वोटर है। भीड़ और रैलियों का शोर एक तरफ, लेकिन वोटर की सोच एकदम चुप, गहरी और पक्की होती है। English में put simply: the real verdict is private, silent and powerful.
इस editorial analysis का उद्देश्य एक तरफ रुझानों को समझना है तो दूसरी तरफ assumptions को challenge करना। सच यही है कि बिहार इस बार भी सभी को चौंका सकता है — चाहे वो political pundits हों या exit poll agencies।
14 नवंबर को घंटों की गिनती होगी, और फैसला निकलेगा कि बिहार continuity चुनेगा या change।







