
A political visual capturing the contrasting expressions of key leaders as Bihar’s election exit polls and voter verdict take center stage.
बिहार में एग्ज़िट पोल की चुनौती और नतीजों की हक़ीक़त
वोटर की ख़ामोश पसन्द और विश्लेषण की नाकामी
📍Delhi 🗓️ 15 नवम्बर 2025 ✍️ Asif Khan
Shah Times विश्लेषण में बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के एग्ज़िट पोल, राजनीतिक हवा, ग्राउंड सिग्नल, गठबंधन समीकरण और वोटर की ख़ामोश राय का जायज़ा है। इसमें यह समझने की कोशिश की गई है कि क्यों ज़्यादातर एजेंसियाँ जनता के मूड को ठीक तरह से पढ़ नहीं सकीं और कैसे एनडीए की जीत ने पॉलिटिकल नैरेटिव को अचानक पलट दिया।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के एग्ज़िट पोल इस बार भी चर्चा में रहे। शहरों की चहल-पहल, क़स्बों की महफ़िलें और देहातों की ख़ामोश गलियों में एक तरह की सरगोशी तो थी, लेकिन यह एहसास कम ही लोगों को था कि हवा इतनी तेज़ है कि एनडीए दो-तिहाई से ज़्यादा सीटें हासिल कर लेगा। दिलचस्प बात यह है कि चुनावी दौर में जब सियासी माहौल बदलता दिख रहा था, उस वक़्त भी ज़्यादातर विश्लेषक, पत्रकार, और पॉलिटिकल सर्किल इस बात को समझ ही नहीं पाए कि असली तस्वीऱ कहाँ जा रही है।
यहाँ जो बात सामने आती है, वह यह कि बिहार का वोटर अक्सर अपने दिल का फ़ैसला आख़िरी वक़्त में लेता है। कई बार वह अपनी राय छुपाकर चलता है; मोहल्ला, चौपाल और सोशल मीडिया पर बहस तो करता है, लेकिन वोटिंग बूथ पर जाकर एकदम अलग फ़ैसला देता है। यही वह मुफ़स्सल और देहाती वाइब है जहॉं से इस चुनाव ने एक बिल्कुल नई कहानी लिख दी।
चुनाव के दो चरण ख़त्म होने के बाद जब तकरीबन डेढ़ दर्जन एजेंसियों ने एग्ज़िट पोल जारी किए, तब तक भी किसी को अंदाज़ा नहीं था कि नतीजे इतनी बड़ी छलांग के साथ आएंगे। एक-दो एजेंसियों को छोड़कर लगभग सभी ने एनडीए को बढ़त तो दी थी, लेकिन 130 से 150 सीटों का औसत अनुमान यही बताता था कि मुकाबला एकतरफा नहीं बल्कि टाईट रहने वाला है। मगर जनता ने अपने वोट से जो तस्वीर उभारी, वह हर अनुमान से कहीं आगे निकल गई।
यहाँ एक दिलचस्प नुक्ता यह भी है कि बीजेपी चाणक्य और केंद्रीय नेतृत्व ने खुद 160 सीटों का अनुमान दिया था, जबकि असल नतीजे 200 पार पहुँचे। इससे यह समझ आता है कि ग्राउंड स्विंग इतना तेज़ था कि बड़े-बड़े कैडर और बूथ मैनेजमेंट नेटवर्क भी उसे ठीक से पकड़ नहीं सके।
नीतीश कुमार की सरकार को लेकर जनता का रवैया पिछले साल भर से एक शांत अंदाज़ में बदल रहा था। शहरों में विकास, सड़कें, शिक्षा सुधार, पंचायत स्तर की योजनाएँ, और पुलिसिंग में काफ़ी बदलाव आया था, जिसे लेकर कुछ लोग खुलकर बोल रहे थे और कुछ लोग चुपचाप अपनी राय बना चुके थे। यही ख़ामोश पसन्द इस बार नीतीश-बीजेपी गठबंधन के लिए गेम चेंजर बनी।
उधर महागठबंधन की हालत शुरुआत से बिखरी-बिखरी दिखती रही। रैलियों की भीड़ और सोशल मीडिया की गूँज से यह तस्सुर तो बनता था कि गठबंधन लड़ाई में है, लेकिन ज़मीनी हलचल अलग कहानी सुना रही थी। कई इलाक़ों में लोकल लेवल पर तकरार, टिकट बँटवारे में मतभेद और रणनीति का अभाव ज़ाहिर हो गया। बिहार का वोटर ऐसी असंगत तस्वीर को बहुत जल्दी पकड़ लेता है और अपने निर्णय में बदलाव कर देता है।
अब बात करते हैं एग्ज़िट पोल की असलियत की। जितने भी पोल इस बार आए, उनमें सिर्फ पोल डायरी का अनुमान लगभग सटीक बैठा। उसने एनडीए को 184 से 209 सीटें और महागठबंधन को 32 से 49 सीटें बताई थीं। असल नतीजे 202 बनाम 35 रहे। यानी एकदम क्लोज़ मैचिंग।
यहाँ सवाल उठता है कि बाक़ी एजेंसियाँ कहाँ चूक गईं? इसका जवाब कई स्तरों पर बँटा हुआ है।
एक, कई एजेंसियों ने शहरी नमूनों पर ज़ोर दिया और ग्रामीण क्ष़ेत्रों का sampling ratio कम रखा।
दो, कुछ पोल्स में field team की bargaining bias दिखी, यानी एक ही पॉकेट में ज़्यादा सैंपल उठा लिया गया।
तीन, कई वोटरों ने अपने असली वोट की जानकारी जान-बूझकर छुपाई।
चार, कुछ एजेंसियों ने पुराने चुनावी डेटा और caste pattern पर ज़्यादा भरोसा किया, जबकि इस बार narrative factor ज़्यादा बड़ा था।
ग्राउंड पर जो हवा थी, वह बहुत subtle थी। यह कोई कोलाहल वाली लहर नहीं बल्कि शांत, steady और विश्वास पर आधारित wave थी। अंग्रेज़ी में जिसे कहते हैं silent mandate, वैसा माहौल बिहार में साफ़ दिख रहा था। कई voters ने कहा कि “काम हुआ है, शोर नहीं किया गया, बस लगातार डिलीवरी हुई।”
यही वह sentiment था जिसने electoral psychology को decisively turn किया।
अब ज़रा एनडीए के संगठन की बात करें। चुनाव से लगभग चार महीने पहले ही पाँचों दल—जेडीयू, बीजेपी, रालोजपा, हम, और रालोमो—ने एकजुट होकर बूथ से लेकर जिला स्तर तक सम्मेलन किए। यह micro-organization strategy बिहार की ज़मीन पर सबसे ज़्यादा कारगर होती है, क्योंकि यहाँ बूथ नेटवर्क, पंचायत कनेक्ट और स्थानीय चेहरों पर भरोसा बहुत मायने रखता है। पाँच पांडव का narrative, जैसा कई कार्यकर्ता कहते रहे, organizational strength को एक रूप देता रहा।
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समस्तीपुर के कर्पूरी ग्राम से प्रचार की शुरुआत की, तो वह symbolic message भी बहुत गहरा था। इसके बाद गृह मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रमुख नेताओं ने हर जिले में coordinated campaign किया। जहाँ-जहाँ रैली हुई, सभी गठबंधन प्रत्याशी मंच पर मौजूद रहे। इस joint visibility ने लोगों को सीधी तस्वीर दी कि गठबंधन मज़बूत और internally aligned है।
उधर महागठबंधन की campaign story में यह alignment missing था। कुछ rallies में coordination perfect रहा, लेकिन अधिकतर campaigns में fragmentation साफ दिखा। यही fragmentation voter psychology पर असर डालता है, क्योंकि बिहार का वोटर नेतृत्व की एकरूपता को बहुत महत्व देता है।
चुनाव के नतीजे आने के बाद जब आंकड़े खुलकर सामने आए—एनडीए 202 और महागठबंधन 35—तो political circles में एक सवाल गूँजता रहा कि इतनी बड़ी जीत की भविष्यवाणी लगभग किसी ने क्यों नहीं की? इसका जवाब वही है: जनता ने अंदाज़ा लगने ही नहीं दिया। वोटर ने न narrative को लीक होने दिया और न mood को। उर्दू में कहते हैं: “राय तो दिल में थी, अल्फ़ाज़ में नहीं।”
अब अगर एग्ज़िट पोल की credibility पर नज़र डालें तो यह विवाद कोई नया नहीं। 2020 में भी पोल्स ने महागठबंधन को भारी बढ़त दी थी, लेकिन नतीजे उलटे आए। 2015 में भी ज़्यादातर पोल्स एनडीए को बढ़त दे रहे थे, जबकि जीत महागठबंधन की हुई। यानी बिहार में एग्ज़िट पोल का इतिहास काफी अनिश्चित रहा है। राज्य की सामाजिक बनावट, caste complexity, regional sensitivity, और वोटर का silent behaviour—ये सब मिलकर prediction को हमेशा मुश्किल बना देता है।
इस बार भी वही हुआ। एजेंसियाँ कहीं न कहीं stereotype datasets पर अटकी रहीं, ground wave को underestimate करती रहीं, और voter की subtle प्राथमिकताओं को ठीक से पकड़ नहीं पाईं। वहीं, कुछ पोल्स ने बहुत कम सैंपल साइज़ पर भरोसा किया, जिसकी वजह से deviation बढ़ गया।
अब बात करते हैं कि जनता ने इतने बड़े पैमाने पर एनडीए को क्यों चुना।
सबसे बड़ा कारण stability factor रहा। मतदाता को लगा कि नीतीश-मोदी के नेतृत्व में प्रशासनिक निरंतरता रहेगी। दूसरी वजह developmental satisfaction थी, जिसमें सड़क, अस्पताल, स्कूल और सुरक्षा को लोग खुलकर acknowledge कर रहे थे। तीसरी वजह यह भी रही कि महागठबंधन compelling narrative नहीं दे पाया। जबकि एनडीए ने एक सरल और relatable message दिया—काम जारी रखो।
कई voters ने व्यक्तिगत उदाहरण बताए:
किसी ने कहा कि उनकी बेटी के कॉलेज जाने की राह अब पहले से सुरक्षित है।
किसी ने कहा कि बिजली पहले से बेहतर है।
किसी ने बताया कि सरकारी कार्यों में देरी कम हुई है।
ऐसी छोटी-छोटी बातें narrative में नहीं दिखतीं, लेकिन वोट में सीधे उतरती हैं।
चुनाव की कहानी अंततः इसी तरह की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से बनती है। पॉलिटिकल समझदार लोग अक्सर macro level पर बहस करते रहते हैं, लेकिन बिहार का वोटर micro experience से vote करता है। यही कारण है कि हवा देखते-देखते एक तूफ़ान बन गई।
आख़िर में बात एग्ज़िट पोल और असल नतीजों के अंतर की। यह gap दो बातें बताता है:
एक, वोटर unpredictable नहीं बल्कि private है।
दो, agencies technical tools पर भरोसा करती हैं, जबकि बिहार की राजनीति emotional और psychological variables पर चलती है।
इसलिए prediction बार-बार चूकते हैं।
बॉटम लाइन यह है कि बिहार 2025 का चुनाव इस बात का सबूत है कि जनता जब चुप होकर फैसला करती है, तो लोकतंत्र की असली ताक़त सामने आती है। इस चुनाव ने political arithmetic के हर सिद्धांत को चुनौती दी, और यह दिखाया कि ground reality हमेशा charts और surveys को मात दे सकती है। बिहार ने एक बार फिर बता दिया कि लोकतंत्र की असल कहानी उन्हीं के हाथ में है जो वोट डालकर बदलाव लाते हैं, न कि उनके हाथ में जो टीवी स्क्रीन पर ग्राफ़ खींचते हैं।




