
बिहार में नई सत्ता संतुलन: नीतीश सीएम, दो डिप्टी सीएम तय
एनडीए फॉर्मूला फाइनल: सीएम नीतीश, सम्राट–विजय दोनों डिप्टी
बिहार में नई सरकार का चेहरा तय हो गया है। जेडीयू ने नीतीश कुमार को विधायक दल का नेता चुना, जबकि भाजपा ने सम्राट चौधरी को अपना नेता और विजय सिन्हा को उप नेता बनाया। अब एनडीए संयुक्त बैठक में औपचारिक मुहर लगेगी और कल गांधी मैदान में भव्य शपथग्रहण होगा, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल होंगे। नई कैबिनेट में दो उप मुख्यमंत्री और लगभग बीस मंत्री शामिल होने की संभावना है।
बिहार एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ा है जहाँ सत्ता बदलती नहीं, बल्कि अपना आकार बदलती है। चेहरा परिचित है, समीकरणों का रंग भी जाना-पहचाना, लेकिन भीतर की हलचल इस बार कुछ और कहती है। नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं, और भाजपा ने सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा को उपमुख्यमंत्री के तौर पर आगे कर दिया है। यह घटनाएँ सतह पर सरल लगती हैं, पर असल खेल सतह के नीचे चलता है। वही खेल जिसे समझने के लिए राजनीति की भाषा नहीं, राजनीति का नब्ज़ चाहिए।
बात शुरुआत से करें।
जेडीयू विधायकों ने नीतीश कुमार को नेता चुना, भाजपा ने सम्राट चौधरी को अपना नेता और विजय सिन्हा को उपनेता चुना। दोपहर में एनडीए की संयुक्त बैठक होने वाली है जहाँ नीतीश को सर्वसम्मति से नेता घोषित किया जाएगा। अगले दिन गांधी मैदान में शपथ होगी, प्रधानमंत्री वहाँ मौजूद होंगे, पूरा राष्ट्रीय नेतृत्व मंच पर होगा। यह दृश्य जितना बड़ा दिखेगा, उतने ही बड़े संदेश इसमें छिपे होंगे।
लेकिन सवाल यह नहीं कि शपथ कौन लेगा।
असल सवाल यह है कि इस फैसले के पीछे असली तर्क क्या है।
नीतीश फिर मुख्यमंत्री क्यों?
भाजपा ने महाराष्ट्र वाला मॉडल क्यों नहीं अपनाया?
दो उपमुख्यमंत्री क्यों?
और सबसे अहम—यह सरकार कितनी स्थिर चलेगी?
यही वे सवाल हैं जो इस संपादकीय विश्लेषण को ज़रूरी बनाते हैं।
सत्ता का संतुलन और नीतीश कुमार की उपयोगिता
अगर कोई यह मान रहा है कि भाजपा ने नीतीश को शिष्टाचार में फिर से मुख्यमंत्री मान लिया, तो वह बिहार की राजनीति को सतही तौर पर पढ़ रहा है।
नीतीश की उपयोगिता अभी भी बनी हुई है। लेकिन यह उपयोगिता पहले जैसी प्रभावशाली नहीं, बल्कि एक नियंत्रित उपयोगिता बन चुकी है।
वह बिहार के सामाजिक ताने-बाने को समझते हैं, और बीजेपी समझती है कि बिहार को चलाने के लिए यह अनुभव अभी भी ज़रूरी है।
लेकिन यहाँ एक दूसरी व्याख्या भी मौजूद है।
भाजपा नीतीश के बगैर भी सरकार चला सकती थी।
उनके पास नंबर हैं, संगठन है, नेतृत्व है।
फिर भी उन्होंने नीतीश को चुना।
यह निर्णय मजबूरी से नहीं, रणनीति से आया है।
भाजपा जानती है कि बिहार जैसी जटिल सामाजिक संरचना में नया मुख्यमंत्री लाना आसान नहीं।
राज्य की राजनीतिक धरातल जातीय समीकरणों पर टिका है।
नीतीश इस समीकरण के बीच में उस चाबी की तरह हैं जो दरवाज़ा खोलती भी है और बंद भी करती है।
उन्हें हटाने का मतलब यह जोखिम उठाना होता कि पूरा equation ही इधर-उधर चला जाए।
महाराष्ट्र मॉडल क्यों नहीं?
कई लोग उम्मीद कर रहे थे कि भाजपा महाराष्ट्र वाला फॉर्मूला अपनाएगी।
यानी पार्टी के पास शक्ति अधिक हो, पर मुख्यमंत्री साथी दल से हो या किसी प्रकार power-sharing उलट दी जाए।
लेकिन बिहार और महाराष्ट्र का ढांचा एक जैसा नहीं।
महाराष्ट्र में राजनीति power-blocks पर चलती है—गुट टूटा, समीकरण बदला, सरकार बन गई।
बिहार में राजनीति social blocks पर चलती है—गुट टूटे तो पूरा जातीय संतुलन बिखर सकता है।
यहाँ stability मतलब numbers नहीं, acceptability है।
और बिहार में अभी भी सबसे स्वीकार्य चेहरा नीतीश हैं, भले ही वह कितनी भी बार पाला बदल चुके हों।
दूसरी बात—महाराष्ट्र में सेंटर का हस्तक्षेप निर्णायक था।
बिहार में सेंटर हस्तक्षेप करेगा, पर पूरी machine को अपने हिसाब से चलाने के लिए वक्त चाहिए।
तीसरी बात—बिहार में भाजपा अपनी long-term social engineering कर रही है।
ऐसे में मुख्यमंत्री की कुर्सी तुरंत लेने से वह नीतीश के विरोध को अनावश्यक रूप से बढ़ाती, जो आने वाले वर्षों के लिए नुकसानदेह भी हो सकता है।
दो उपमुख्यमंत्री: प्रतीकात्मकता नहीं, रणनीति
सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा—इन दोनों की नियुक्ति को सिर्फ symbolic नहीं माना जाना चाहिए।
यह भाजपा की सामाजिक इंजीनियरिंग का नया मॉडल है।
सम्राट चौधरी—ओबीसी चेहरे के तौर पर बेहद आक्रामक और अपने समुदाय में प्रभावशाली।
विजय सिन्हा—ऊपरी जातियों की स्थायी निष्ठा को मजबूत करने वाले नेता।
यहाँ भाजपा ने अपने दो power-points खड़े कर दिए हैं—एक सामाजिक आधार से जुड़ा, दूसरा राजनीतिक कौशल से।
नीतीश कुमार तीसरे axis हैं—administrative balancing का।
इस तरह कुल तीन power-centers बनते हैं।
एक मुख्यमंत्री
दो उपमुख्यमंत्री
और केंद्रीय नेतृत्व की छतरी।
यह पूरा ढांचा एक प्रकार का त्रिकोणीय संरचना बनाता है।
ऐसी संरचना में हर शक्ति केंद्र दूसरे को संतुलित रखता है।
यही वजह है कि भाजपा नीतीश को स्वीकार करते हुए भी अपनी राजनीतिक पकड़ गहरा रही है।
संयुक्त बैठक: सहमति या ज़रूरी अनुष्ठान?
एनडीए की संयुक्त बैठक जहाँ सभी दल मिलकर नीतीश को नेता घोषित करेंगे, उसे औपचारिकता कहना आसान है।
लेकिन असल में यह राजनीतिक अनुबंध है।
इसी अनुबंध पर आने वाले सालों की राजनीति खड़ी होगी।
लेकिन यह भी साफ है कि सरकार तीन दिशाओं में काम करेगी—
मुख्यमंत्री कार्यालय,
भाजपा नेतृत्व,
और एनडीए का केंद्रीय समन्वय।
यह तीनों दिशा एकसाथ चलेंगी, लेकिन friction के बिना नहीं।
मंत्रालयों का बँटवारा पहला संकेत है।
गृह मंत्रालय को लेकर तनातनी इस बात का संकेत है कि सब कुछ smooth नहीं है।
दोनों दल अपने-अपने हिस्से को सुरक्षित करना चाहते हैं और यह स्वाभाविक भी है।
शपथ ग्रहण समारोह: दृश्य भव्य, संकेत सख्त
प्रधानमंत्री का helicopter से गांधी मैदान पहुँचना—यह दृश्य जितना बड़ा है, संदेश उससे बड़ा है।
दिल्ली इस बार बिहार को सिर्फ समर्थन नहीं दे रही, बल्कि सीधी निगरानी भी रखेगी।
नीतीश इस बार एक नियंत्रित दायरे में काम करेंगे।
उनके पास कुर्सी है, लेकिन कुर्सी के चारों तरफ invisible boundaries हैं।
यह boundaries alliance ने टेढ़ी उंगली से नहीं, बल्कि political design से खींची हैं।
असली सवाल: क्या यह सरकार स्थिर है?
numbers हाँ कहते हैं।
optics हाँ कहते हैं।
लेकिन politics सिर्फ इन दोनों से नहीं चलती।
स्थिरता consistency से आती है—और बिहार में consistency सबसे कम मिलती है।
नीतीश का इतिहास दल बदल का है।
भाजपा का इतिहास तेजी से विस्तार का है।
इन दोनों की यह जोड़ी चल सकती है, पर तनाव-मुक्त नहीं हो सकती।
अंदरूनी असहमति वहाँ पैदा होती है जहाँ power-sharing स्पष्ट न हो।
और बिहार की नई सरकार में यही सबसे बड़ा परीक्षण होगा।
एक कठिन प्रश्न: क्या नीतीश फिर पाला बदल सकते हैं?
राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं।
लेकिन इस बार हालात अलग हैं।
नीतीश की maneuvering capacity पहले जैसी नहीं बची।
राजनीतिक पूंजी कम हुई है और राजनीतिक निर्भरता बढ़ी है।
फिर भी उन्हें underestimate करना राजनीतिक गलती होगी।
वह आज भी वह खिलाड़ी हैं जो आखिरी ओवर में मैच बदल सकते हैं।
लेकिन उनका हर कदम अब alliance framework के भीतर ही उठेगा।
इसलिए पाला बदलने की संभावना कम है, पर असंभव नहीं।
भविष्य: क्या बिहार में वास्तव में बदलाव आएगा?
शपथ, मंच, बड़े नेता—यह सब दृश्य बदलते हैं, ज़मीन नहीं।
बिहार को जिस बदलाव की ज़रूरत है—रोज़गार, शिक्षा, कानून व्यवस्था, स्वास्थ्य, सड़क, अवसर—वह बदलाव राजनीति की इच्छा पर नहीं, नीतियों की मजबूती पर टिका होता है।
और यही इस सरकार की असली परीक्षा होगी।
अगर तीन शक्ति केंद्र मिलकर एक दिशा में चलें, तो बिहार आगे बढ़ सकता है।
अगर तीनों अपनी-अपनी दिशा बनाएँगे, तो राज्य एक बार फिर उसी जगह लौट आएगा जहाँ वह दशकों से खड़ा है।
यह सरकार स्थिर भी है और अस्थिर भी।
स्थिर इसलिए कि समीकरण फिट बैठता है।
अस्थिर इसलिए कि ambition तीन दिशाओं में बँटा है।
नीतीश कुमार फिर मुख्यमंत्री होंगे—यह alliance की immediate जरूरत है।
दो उपमुख्यमंत्री भाजपा की राजनीतिक बुनियाद को और मजबूत बनाएंगे।
शपथ समारोह राष्ट्रीय एकजुटता का संदेश देगा।
लेकिन इस पूरी तस्वीर का सबसे दिलचस्प हिस्सा यह है कि
दोनों दल एक-दूसरे को सहयोग भी कर रहे हैं और सावधान भी।
यही बिहार की राजनीति की असली धड़कन है—जहाँ हर मुस्कान के साथ एक रणनीति भी चलती है और हर रणनीति के साथ एक अनिश्चितता भी।




