
DA-DR Hike 2025: कर्मचारियों को राहत या सरकार की रणनीति?
पेंशनरों की जेब में आएगी मुस्कान, लेकिन सवाल अभी बाकी है
📍नई दिल्ली | 1 अक्तूबर 2025 | ✍️ Asif Khan
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने कर्मचारियों और पेंशनरों के लिए डीए-डीआर में 3% बढ़ोतरी को मंज़ूरी दी। राहत के साथ उठा सवाल—क्या यह वाक़ई राहत है या सरकारी रणनीति?
केंद्रीय कर्मचारियों और पेंशनरों के लिए डीए-डीआर में बढ़ोतरी: राहत या देरी की रणनीति?
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हाल ही में एक बड़ा फ़ैसला लिया है। लगभग 49.19 लाख कर्मचारियों और 68.72 लाख पेंशनरों के लिए महंगाई भत्ता (DA) और महंगाई राहत (DR) में 3 प्रतिशत की बढ़ोतरी को मंज़ूरी दे दी गई है। यह बढ़ोतरी 1 जुलाई 2025 से प्रभावी होगी। यानी सितंबर की सैलरी में न सिर्फ नया डीए शामिल होगा बल्कि जुलाई से सितंबर तक का एरियर भी मिलेगा। पहली नज़र में यह कर्मचारियों और पेंशनरों के लिए राहत की ख़बर है, लेकिन इसमें छुपा हुआ एक बड़ा सवाल भी है—क्या यह राहत वाक़ई राहत है या सरकार की एक सोच-समझी देरी की रणनीति?
डीए और डीआर की बुनियाद
महंगाई भत्ता (Dearness Allowance) और महंगाई राहत (Dearness Relief) असल में कर्मचारियों और पेंशनरों को बढ़ती हुई महंगाई से बचाने के लिए दी जाने वाली आर्थिक मदद है। ये भत्ता बेसिक सैलरी या बेसिक पेंशन पर तय किया जाता है।
मान लीजिए किसी कर्मचारी की बेसिक सैलरी ₹60,000 है। पहले उसे 55% के हिसाब से ₹33,000 का डीए मिल रहा था। अब जब दर 58% हो गई है, तो उसे ₹34,800 मिलेगा। यानी हर महीने ₹1800 का सीधा इज़ाफ़ा। इसके साथ जुलाई से सितंबर तक तीन महीने का एरियर जोड़कर लगभग ₹5400 अतिरिक्त मिलेंगे।
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बढ़ोतरी का असर
सरकारी कर्मचारियों के लिए यह फ़ायदा इसलिए अहम है क्योंकि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में महंगाई लगातार बढ़ रही है। सब्ज़ी से लेकर सिलेंडर, बिजली से लेकर दवा—हर चीज़ की क़ीमत तेज़ी से ऊपर जा रही है। ऐसे में डीए और डीआर की यह बढ़ोतरी कर्मचारियों और पेंशनरों को राहत देती है।
लेकिन साथ ही, एक हक़ीक़त यह भी है कि जब तक डीए बढ़ता है, तब तक महंगाई एक और क़दम आगे निकल चुकी होती है। यानी जो राहत मिलती है, वह पूरी तरह से महंगाई को संतुलित नहीं कर पाती।
सरकार पर वित्तीय बोझ
सूचना एवं प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने प्रेस ब्रीफ़िंग में बताया कि इस बढ़ोतरी से सरकारी खज़ाने पर सालाना लगभग ₹10,083.96 करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। यह आंकड़ा छोटा नहीं है। सरकार को इन खर्चों के लिए अलग से बजट बनाना पड़ता है।
लेकिन ट्रेड यूनियनों का तर्क है कि अगर यह बोझ कर्मचारियों और पेंशनरों की ज़िंदगी आसान करता है, तो यह बोझ नहीं बल्कि ज़िम्मेदारी है। आखिरकार, सरकार का सबसे बड़ा आधार उसका कार्यबल ही है।
देरी की शिकायत
डीए और डीआर की दरों में बढ़ोतरी हर साल दो बार होनी चाहिए—1 जनवरी और 1 जुलाई से। लेकिन देखा गया है कि सरकार अक्सर इसकी घोषणा तीन से चार महीने बाद करती है। यही वजह है कि कर्मचारी संगठनों का आरोप है कि सरकार जानबूझकर यह देरी करती है ताकि उसका पैसा कुछ महीनों तक निवेश में लगा रहे और ब्याज से अतिरिक्त लाभ मिले।
केंद्रीय कर्मचारियों का कहना है कि अगर नियम में तय है कि जनवरी और जुलाई से बढ़ोतरी लागू होगी, तो फिर घोषणा और भुगतान में इतनी देरी क्यों? क्या यह कर्मचारियों और पेंशनरों के हक़ पर चोट नहीं है?
यूनियनों का रुख़
कन्फेडरेशन ऑफ़ सेंट्रल गवर्नमेंट एम्प्लॉइज़ एंड वर्कर्स के महासचिव एस.बी. यादव का कहना है कि सरकार जब डीए/डीआर बढ़ोतरी की घोषणा देर से करती है तो असल में हज़ारों करोड़ रुपये उसके पास फ्री फ्लोटिंग अमाउंट के रूप में जमा रहते हैं। इस दौरान वह पैसा सरकारी निवेश में जाता है और ब्याज के रूप में सरकार को लाभ होता है।
इसी तरह, अखिल भारतीय रक्षा कर्मचारी महासंघ (AIDEF) के महासचिव सी. श्रीकुमार का कहना है कि जब पहली जनवरी और पहली जुलाई से डीए बढ़ाने का नियम साफ़-साफ़ लिखा है, तो फिर घोषणा में देरी क्यों?
त्यौहार और राजनीति
दिलचस्प बात यह है कि डीए और डीआर की घोषणा अक्सर होली या दीवाली जैसे बड़े त्योहारों से ठीक पहले होती है। इसे सरकार एक “गुडविल जेस्चर” की तरह पेश करती है। लेकिन कर्मचारी इसे पॉलिटिक्स से जोड़कर देखते हैं। उनका कहना है कि सरकार कर्मचारियों की मेहनत की कमाई से “त्यौहार का तोहफ़ा” दिखाती है, जबकि असलियत यह है कि यह उनका हक़ है, कोई तोहफ़ा नहीं।
पेंशनरों की स्थिति
पेंशनरों के लिए डीआर यानी Dearness Relief बेहद महत्वपूर्ण है। Active employees के पास ओवरटाइम, प्रमोशन या ग्रेड पे का ऑप्शन होता है, लेकिन रिटायर्ड लोगों के पास पेंशन ही उनकी ज़िंदगी का सहारा है। ऐसे में अगर महंगाई राहत समय पर न मिले, तो बुज़ुर्ग पेंशनरों के लिए हालात बेहद कठिन हो जाते हैं।
आर्थिक परिप्रेक्ष्य
Economically speaking, DA and DR hikes are structured to match the cost of living index. लेकिन हक़ीक़त यह है कि Consumer Price Index (CPI) और बाज़ार की वास्तविक महंगाई में बड़ा अंतर है। रोज़मर्रा की ख़रीदारी में जो महंगाई महसूस होती है, वह अक्सर आधिकारिक आंकड़ों से कहीं ज़्यादा होती है।
इसलिए कर्मचारियों को लगता है कि DA की बढ़ोतरी हमेशा “लेगिंग बिहाइंड” होती है, यानी जितनी राहत मिलनी चाहिए उतनी नहीं मिल पाती।
सामाजिक और मनोवैज्ञानिक असर
किसी भी कर्मचारी के लिए सैलरी सिर्फ़ पैसों का मसला नहीं होती। यह उसके आत्मविश्वास, उसकी मानसिक स्थिति और उसके परिवार की स्थिरता से जुड़ी होती है। जब सरकार समय पर डीए और डीआर नहीं देती, तो कर्मचारियों को लगता है कि उनकी मेहनत की क़द्र नहीं हो रही।
भविष्य की दिशा
विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार को डीए/डीआर बढ़ोतरी की प्रक्रिया को पूरी तरह ऑटोमेटेड कर देना चाहिए। जैसे ही CPI डेटा जारी हो, उसी आधार पर DA की दरें अपने आप अपडेट हो जाएँ। इससे न तो देरी होगी और न ही सरकार पर “ब्याज कमाने” का आरोप लगेगा।
नज़रिया
आखिर में बात यह है कि केंद्रीय कर्मचारियों और पेंशनरों को मिली 3% की बढ़ोतरी ज़रूरी थी और वक़्त की मांग भी। लेकिन इसके साथ जो सवाल उठे हैं, वे भी उतने ही अहम हैं। क्या सरकार इस प्रक्रिया को और पारदर्शी बना पाएगी? क्या बढ़ोतरी समय पर होगी या देरी का सिलसिला जारी रहेगा?
कर्मचारियों के लिए यह सिर्फ़ सैलरी का मुद्दा नहीं, बल्कि भरोसे और इंसाफ़ का सवाल है। सरकार को चाहिए कि वह इसे “तोहफ़े” की तरह न दिखाए, बल्कि इसे कर्मचारियों का हक़ मानकर समय पर लागू करे।