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Dargah Baghra Shah Times
चार दिन चलने वाली सालाना इस्लाही मजलिसों में शामिल होंगे लाखों जायरीन
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~ ज़िया अब्बास ज़ैदी
प्रत्येक वर्ग के लोगों को एक कड़ी के रूप में पिरोकर धार्मिक सौहार्द्र व भाईचारा बनाने में जितनी अहम भूमिका विभिन्न स्थानों पर स्थित दरगाह व मजार निभा रहे हैं। उससे देश-विदेश में एक मिसाल कायम हो रही है। ऐसे स्थानों पर जहां हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्मों के लोगों का संगम देखा जा सकता है।
यहां जिला मुख्यालय में 12 किलोमीटर दूर शामली मार्ग, बघरा में स्थित दरगाह आलिया हजरत अब्बास बाबुल हवायज बघरा किसी परिचय की मोहताज नहीं है। धार्मिक सौहार्द्र के प्रतीक के रूप में मशहूर इस स्थान पर विभिन्न समुदाय के लोग मन्नत – मुरादें मांगने के लिए पहुंचते हैं। शिया समुदाय के विश्व प्रसिद्ध धर्मस्थल के रूप में प्रसिद्ध दरगाह में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली सालाना मजलिसों में देश-विदेश में लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है।
मुगल बादशाह हुमायूं के शासनकाल में राजा भगीरथ द्वारा बसाई गई यह बस्ती बघरा के नाम से जानी जाती है। यहां बस स्टेंड पर स्थित दरगाह के बारे में मान्यता है कि शिया समुदाय के बहुचर्चित मौलाना फरजंद अली के इराक स्थित करबला में मुहम्मद स0 अ0 के नवासे इमाम हुसैन की कब्र से पवित्र मिट्टी लाकर बघरा स्थित इस बाग में दफन की थी, जहां फिल्हाल यह दरगाह स्थित है। इसी बाग में पहले से ही ताजिए दफन किए जाते थे।
दरगाह की उत्पत्ति भी एक विचित्र ढंग से हुई, यहां का इतिहास बड़ा रोचक है। 13 अप्रैल 1963 की शाम लगभग पांच बजे निकटवर्ती गांव सैदपुरा का असगर त्यागी नाम का युवक खेतों में पशु चरा रहा था, तभी एक नकाबपोश घुड़सवार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इसी बीच घुड़सवार नकाबपोश की ठोकर असगर के मुंह पर लगी, जिससे असगर 40 कदम दूरी पर जा गिरा व बेहोश हो गया। यह खबर बघरा व सैदपुरा गांव में आग की तरह फैल गई। आसपास के गांवों में सैंकड़ों लोग वहां पहुंचे, जहां असगर बेहोश पड़ा था। यहां देखने पर तेज गर्मी के मौसम में कड़ी भूमि पर घोड़े की टाप के निशानात काफी गहरे दिखाई दिए, जिसमें से अद्भुत चमत्कारी खुशबू आ रही थी।
प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक उन्होंने ऐसी अद्भुत सुगंध कभी महसूस नहीं की। कई घंटे के प्रयासों के बाद असगर होश में आया, उसने घटित हुए वाकिए को विस्तार से बताया। बाद में विद्वानों ने तय पाया कि जहां हजरत अली के बेटे हजरत अब्बास प्रकट हुए थे, मौजूद निशानात उन्हीं के घोड़े के टापों के निशानों को सुरक्षित करे दिया गया। साथ ही हजरत अब्बास के नाम से यहां रोजा बना दिया। धीरे-धीरे इस छोटे से रोजे ने अब विशाल दरगाह का रूप धारण कर लिया है। देश-विदेश से प्रतिवर्ष लाखों जायरीन यहां पहुंचते हैं और मन मांगी मुराद पाते हैं।
दरगाह की प्रमुख खासियत यहां प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली चार दिवसीय सालाना इस्लाही मजलिस कार्यक्रम है। जिसमें देश-विदेश से लाखों की संख्या में जायरीन शिरकत करते हैं। मजलिसों में इस्लाम का ज्ञान रखने वाले बुद्धिजीवी करबला की घटनाओं का सजीव वर्णन करते हैं। प्रतिवर्ष करबला का साक्षात दृश्य दिखाने के लिए मैदान भी दर्शाया गया है। दरगाह पर जियारत के लिए आने वाली हस्तियों का जमावड़ा भी यदाकदा देखा जा सकता है। यहां पर काफी समय पहले केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी, स्व. फूलन देवी, सोनिया गांधी के पुत्र व कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी सहित अनेक हस्तियों ने यहां पहुंचकर मन्नत मांगी और मन्नत कबूल हुई।
दरगाह आलिया बाबुल हवायज से मन्नत मांगने के बाद मन्नत पूरी होने पर वार्षिक कार्यक्रमों में सभी धर्म के लोग अपनी-अपनी चादरें चढ़ाते व तबर्रुक (प्रसाद) वितरण करते देखे जा सकते हैं। मजलिस कार्यक्रम के साथ यहां के आल इंडिया मुशायरे में पूरे देश के शायर शिरकत करते हैं । इस भव्य दरगाह की देखरेख एक रजिस्टर्ड कमेटी अंजुमन-ए-आरफी करती है, जिसका चुनाव प्रतिवर्ष खुली बैठक में लोकतांत्रिक ढंग से होता है । अंजुमन-ए-आरफी के सदर हाजी निसार हुसैन व जनरल सेक्रेट्री इमरान अली तथा सदस्य जावेद रज़ा ने जानकारी देते हुए बताया कि यहां चार दिवसीय मजलिसें 6 जून से शुरू होकर 7, 8 व 9 जून 2024 तक चलेंगी। जिसमें देशभर से आए हुए नामवर उलेमायदीन तकरीर करेंगे। उन्होंने बताया कि यहां जायरीनों के लिए कमेटी की ओर से सभी इंतजाम पूरे कर लिए गए हैं।
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