
Darul Uloom Deoband symbolizing knowledge, spirituality, and revolution
देवबन्द की चौखट से उठती रोशनी — इल्म, इंक़लाब और तहज़ीब का संगम
देवबन्द: जहाँ इल्म सियासत से ऊपर और इंसानियत के करीब है
📍देवबन्द, 🗓️ 11 अक्टूबर 2025🖋️ अथर उस्मानी
दारुल उलूम देवबन्द सिर्फ़ एक इस्लामी मदरसा नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की फ़िक्री और आज़ादी की जंग का रूहानी मरकज़ है। ये वो जगह है जहाँ इल्म को ताक़त और तालीम को तहरीक बना दिया गया। हाल में अफ़ग़ानिस्तान के वज़ीरे ख़ारिजा अमीर ख़ान मुत्तक़ी का देवबन्द दौरा न सिर्फ़ एक रूहानी जुड़ाव की अलामत था बल्कि तारीख़ के एक चक्र का नया आग़ाज़ भी।
देवबन्द की मिट्टी में अजीब सी रूह है — वो रूह जो इल्म से महकती है और इंक़लाब से गूंजती है। यहाँ सिर्फ़ किताबें नहीं खुलतीं, बल्कि ज़हन भी खुलते हैं। जब अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी ने “आख़िरी सबक़” (दौर-ए-हदीस) पढ़ने के लिए देवबन्द की चौखट पर क़दम रखा, तो ये सिर्फ़ एक धार्मिक रस्म नहीं थी, बल्कि इल्म के सामने सियासत के झुक जाने का प्रतीक था।
इतिहास के आईने में देखें तो यह वही देवबन्द है जिसने 1857 की नाकाम जंग-ए-आज़ादी के बाद हिम्मत और हिकमत से एक नई रोशनी जगाई। जब दिल्ली की गलियाँ खामोश थीं, तब देवबन्द की इस ज़मीन से मौलाना क़ासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने मशाल उठाई — एक ऐसी मशाल जो न ताज की मोहताज़ थी, न ताक़त की। यही वो इल्मी बुनियाद थी जिसने आगे चलकर शैख़ुल हिन्द मौलाना महमूद हसन देवबन्दी और मौलाना उबेदुल्लाह सिंधी जैसे अज़ीम रहनुमाओं को जन्म दिया।
मौलाना सिंधी ने देवबन्द की चौखट से निकलकर काबुल तक का सफ़र तय किया और वहाँ “हुकूमत-ए-मुख़्तार-ए-हिंद” यानी निर्वासित भारत सरकार की नींव रखी। ये वही देवबन्दी सोच थी — कि इल्म सिर्फ़ इबादत नहीं, बल्कि इंक़लाब का ज़रिया भी है। आज जब एक सदी बाद अमीर ख़ान मुत्तक़ी देवबन्द पहुँचे, तो लगा जैसे इतिहास अपनी ही परछाई को फिर से देख रहा हो।
देवबन्द की फ़िक्र — इल्म का सियासत पर ग़ालिब होना
देवबन्द की असल फ़िक्र ये रही है कि सियासत अगर बेइल्म हो तो ज़ुल्म बन जाती है, और इल्म अगर बेज़मीर हो तो बेमायने। यहाँ की तालीम ने यही सिखाया कि इंसान पहले “फ़क़ीर” बने, फिर “फ़ैसला” करे। यही वजह है कि जब मौलाना मदनी अफ़ग़ानिस्तान के साथ हिंदुस्तान के रिश्तों की बात करते हैं, तो उसमें सिर्फ़ कूटनीति नहीं बल्कि तहज़ीब की गहराई झलकती है।
उन्होंने कहा था —
“अफ़ग़ानिस्तान से हमारा सिर्फ़ इल्मी नहीं, बल्कि रूहानी और तहज़ीबी रिश्ता है।”
ये जुमला सुनने में सादा है, मगर इसमें सदियों की साझा तहज़ीब का वज़न है।
देवबन्द हमेशा से ये मानता आया है कि इल्म सीमाओं का मोहताज नहीं। जब कोई वज़ीर-ए-ख़ारिजा, यानी विदेश मंत्री, अपनी रियासत छोड़कर एक उस्ताद के सामने बैठता है, तो वह इल्म की सरहदों को सलाम करता है। यह देवबन्द की वही “साइलेंट डिप्लोमेसी” है जो दुनिया को याद दिलाती है कि तालीम, सियासत से बड़ी चीज़ है।
तहज़ीबी रिश्ता — सरहद से परे एक नात-ए-दिल
अफ़ग़ानिस्तान और देवबन्द का रिश्ता सिर्फ़ तालीमी नहीं, बल्कि तहज़ीबी है।
1915 में जब मौलाना महमूद हसन ने काबुल में जला-वतन हुकूमत क़ायम करवाई थी — राजा महेन्द्र प्रताप सिंह, मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली और मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी के साथ — तो उस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान हिंदुस्तान के दर्द का हिस्सा था।
आज, जब वही मुल्क फिर से देवबन्द की दहलीज़ पर खड़ा है, तो ये ताज़ा सबूत है कि रिश्ते किताबों में नहीं, दिलों में ज़िंदा रहते हैं। मौलाना अरशद मदनी ने सही कहा कि “अफ़ग़ान अवाम ने भी वही रास्ता अपनाया जो हमारे बुज़ुर्गों ने आज़ादी के लिए अपनाया था।”
रूस, अमेरिका या किसी भी साम्राज्य के सामने अफ़ग़ान क़ौम ने सिर नहीं झुकाया — वही इंक़लाबी सोच जो देवबन्द के उस्तादों ने दी थी।
दारुल उलूम — इल्म का मीनार, अमन का पैग़ाम
आज के दौर में जब तालीम अक्सर मार्केटिंग और ब्रांडिंग का ज़रिया बन चुकी है, दारुल उलूम देवबन्द अब भी सादगी और अख़लाक़ की मिसाल है।
यहाँ की दीवारें फक्ऱ से नहीं, फ़िक्र से बनती हैं। हर साल हज़ारों तलबा यहाँ आते हैं — कुछ भारत से, कुछ अफ़ग़ानिस्तान, अफ्रीका, इंडोनेशिया और अरब मुल्कों से।
उनके लिए देवबन्द सिर्फ़ मदरसा नहीं, बल्कि पहचान का सरचश्मा है।
जब अफ़ग़ान विदेश मंत्री मुत्तक़ी ने अपने दौरे में दारुल उलूम को “मदर-ए-इल्मी और रूहानी मरकज़” कहा, तो उन्होंने उस जज़्बे को सलाम किया जो इल्म को सजदा समझता है।
देवबन्द की ख्याति इस बात में है कि यहाँ हर लफ़्ज़ एक सबक़ है, हर दुआ एक मिशन। यह वो जगह है जहाँ “इल्म” तख़्त से नहीं, तवाज़ो से मिलता है।
मीडिया, राजनीति और गलतफ़हमियाँ
देवबन्द अक्सर मीडिया में केवल “मदरसा” के रूप में देखा जाता है — लेकिन असल में यह एक “मुवक्कल तहज़ीब” (intellectual civilization) है।
कुछ हल्के इसे कट्टरता से जोड़ते हैं, मगर जो लोग देवबन्द की किताबों की खुशबू महसूस कर चुके हैं, वो जानते हैं कि यहाँ इल्म का मतलब नफ़रत नहीं, बल्कि नूर है।
अमीर ख़ान मुत्तक़ी का दौरा इसे साबित करता है कि यह संस्थान अब भी विश्व राजनीति में “सॉफ्ट पावर” की तरह जीवित है। जहाँ पश्चिम अपनी डिप्लोमेसी मीटिंग टेबल पर करता है, देवबन्द अपनी डिप्लोमेसी दुआओं और दरसगाह में करता है।
देवबन्द का वर्तमान और भविष्य
आज जब दुनिया ग्लोबलाइज़ेशन के नाम पर अपनी तहज़ीबें खो रही है, देवबन्द उस दौर में भी अपनी पहचान बचाए हुए है।
यहाँ का मिशन स्पष्ट है — इल्म के ज़रिए अमन की तामीर।
मौलाना अरशद मदनी ने उम्मीद जताई कि भारत और अफ़ग़ानिस्तान के नज़दीक आने से न सिर्फ़ तालीमी राब्ते बढ़ेंगे, बल्कि पूरे इलाके में स्थिरता आएगी।
यह उम्मीद एक “स्पिरिचुअल डिप्लोमेसी” की दिशा में पहला क़दम है — जहाँ मुल्क अपने रिश्ते सिर्फ़ सियासी नहीं, बल्कि इंसानी बुनियाद पर बनाते हैं।
देवबन्द के उस्ताद, तलबा और अवाम — सब इस बात का सबूत हैं कि जो इल्म दिल से निकलता है, वो सरहद नहीं जानता।
इ
नतीजा
दारुल उलूम देवबन्द सिर्फ़ एक इमारत नहीं, बल्कि एक एहसास है —
जहाँ अल्फ़ाज़ इल्म बनते हैं और इल्म इंक़लाब।
अमीर ख़ान मुत्तक़ी का देवबन्द दौरा इसी तसव्वुर की याद दिलाता है कि असली ताक़त बंदूक या कुर्सी में नहीं, बल्कि किताब और दुआ में है।
यह वही देवबन्द है जो आज भी दुनिया को सिखाता है कि “जो इल्म के सामने झुकता है, वही असल में बुलंद होता है।”






