
मतदाता क्या करेंगे और क्यों ?
पहले चरण के चुनाव में देशव्यापी मत प्रतिशत का कम होना इस बात की कहानी कह रहा है कि भारत के लोकतंत्र के इतिहास का यह सबसे नीरस चुनाव है।
मत प्रतिशत कम होने के कारण क्या रहे ?
पहला कारण 10 वर्षों के मीडिया सोशल मीडिया के धुँवादर प्रयोग की ओवर डोज, जिसके इस्तेमाल के द्वारा जनता को ऐसे सपने दिखाए गए जिसमें विकसित भारत था,नौकरियां थी, विकास था,किसानों की आमदनी दुगनी थी, व्यापारियों का उत्थान था और धर्म की विजय थी,
चीन पर विजय के वादे, पाकिस्तान पर कब्जे की बाते,कश्मीर में प्लाटिंग के सपने, चाँद का बहुत कुछ सूरज के नाम ट्रांसफर करने की कानाफूसी, बुलेट ट्रेन के टिकट के साथ स्मार्ट सिटी जाने के सपने भी लोगों ने देखे थे, और विश्व पर राज था, यह प्रचार का हिस्सा था,
इसमें से ज़मीन पर एक ही कार्य उतरा,वो था धर्म।
10 वर्ष बाद लोगों को कुछ याद आया कि धर्म का शांति वाला रूप तो सदियों से हमारे पास पहले से ही था, और नियंत्रण में ही था। नया क्या मिला, ? सिर्फ गरम वाला रूप ? उत्तर भारत की निराशा में इन सब यादों का भी कुछ असर नज़र आया।
नम्बर 2 लोगों में अंजाने भय का माहौल ?
इस चुनाव में एक अजीब से भय का माहौल क्यों है। यह बात समझने की मैंने भरपूर कोशिश की जिसके कुछ अधूरे से नतीजे यह निकल कर आए कि लोग धर्म का झण्डा ऊँचा तो चाहते हैं, लोग एक तबके को डरा सहमा तो देखना चाहते हैं, लोग 5 किलो राशन भी मुफ्त में लेना चाहते हैं,
मगर यह सब आज़ादी की कीमत के बदले में नही लेना चाहते। यानी सत्ता के अति दहशत के माहौल से भी सहमत नही हैं। कहीं ना कहीं सरकारी तंत्र का अधिक जबर यानी सत्ता के द्वारा सरकारी तंत्र का अंकंट्रोल दबाव, जन प्रतिनिधियों की ज़ीरो सुनवाई। और प्रशासन के खिलाफ जनता की शिकायतों पर शासन द्वारा जीरो संज्ञान।
शासन और प्रशासन का संविधान से ऊपर होने का खट्टा मीठा एहसास भय के बीज बो गया।
नंबर 3 कोर टीम ज़मीन से गायब क्यों ?
मैं अकेला सब पर भारी
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की कार्य शैली धीरे-धीरे खुद अपने तक ही सिमटती चली गई,और यह सिलसिला हर साल प्रधान मंत्री को खुद पर ज़्यादा भरोसा करने का कारण देता चला गया। यानी एक बाद एक जीत या दूसरों की सत्ता उखाड़ कर अपनी सत्ता ज्यादतर राज्यों में स्थापित करते चले जाना।
और लगातार सत्ता में बने रहने के कारण पार्टी संगठनों को भी तर्ज़ी देना बंद कर देना और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का सम्मान भी करना भी बंद कर देना, लगातार जारी है। इतना सब होने के बाद भी RSS और पार्टी नेता मजबूरन अपना सहयोग पूरी ताकत के साथ देते चले गए। यहाँ तक के आखिर में जैसे 2023 के चुनाव की जीत के बाद मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में मुख्यमंत्री अपनी मर्ज़ी से नियुक्त किए, यह कदम वरिष्ठ पार्टी नेताओं और RSS के वजूद को रेड अलर्ट का अलार्म दे गया।
राजनीति के गलियारों में यह चर्चाएं भी शुरू हो गई कि मोदी जी के बाद प्रधानमंत्री का दावेदार कौन होगा, राजनीतिक कल्यानो से लेकर आम भारतीय जनता पार्टी कार्यकर्ताओं तक अपनी-अपनी पसंद के नंबर दो की चर्चा में जो नाम मुख्य सामने आ रहे हैं वह है, अमित शाह,नितिन गडकरी, योगी आदित्यनाथ, और कहीं कहीं राजनाथ सिंह भी, जबकि 2014 में राजनाथ पहले नंबर के दावेदार थे, जिन्हे अब मार्गदर्शक मंडल भेजने के लिए कमंडल हाथ थमाने की तैयारी है।
इन सभी दावेदारों की भी रस्साकसी जारी है, मगर इन सभी के मन में भी चुनाव के बाद के भारत की चिंता की लकीर मौजूद है। जनता भी सारी कहानी समझ रही है। इसी लिए, जनता में इस चुनाव को लेकर उत्साह तो कतई नही है। और इस बार सबसे बड़ी घटना यह भी है कि चुनाव मैदान से RSS नदारद है।
RSS से जुड़े संगठन भी गायब है। हर घर हर गली से मतदाताओं को बूथ तक ले जाने वाले पन्ना प्रमुख कहीं नज़र नही आए। और नतीजा यह हुआ कि BJP के पक्के समर्थक भी बूथ पर कम पहुंचे।कई अलग-अलग लोकसभाओं में,कई छोटे-छोटे कारण ओर भी रहे मगर मुख्य कारण यह है कि दो बड़े बीजेपी नेता अपनी जाति के लोगों को वोटों के लिए प्रेरित करने में दिलचस्पी नही दिखाई, और एक खास जाति ने अपने नेताओ की अपेक्षा को देखते हुए या तो मत देने से दूरी बनाली या बीजेपी के विरोध में मतदान किया।
इस खेल का नतीजा क्या हुआ।
इन सभी कारणों का प्रभाव यह रहा कि बीजेपी समर्थकों का मतदान प्रतिशत 40 से 45℅ तक सिमट कर रह गया, और अल्पसंखक जो बिलकुल खामोश था,उसने बिना शोर शराबा किए 70 से 80 ℅ मतदान किया, और INDIA , गठबंधन को ऐसी बहुत सी जातियों का भी कुछ प्रतिशत वोट मिला जिनका वोट 2019 के चुनाव में 98℅ तक BJP को ही गया था।
अर्थात मुकाबला हर सीट पर बहुत नज़दीकी हो गया। अगर में पूरे घटना कर्म को बारीकी से देखता हूँ तो निष्कर्ष यह निकलता है कि बीजेपी को खुद बीजेपी भी हराने के पूरे इंतज़ाम कर चुकी है। अगर आगे भी यही हालात रहे तो बीजेपी नारे के आधे से भी नीचे सीटों तक सिमट सकती है। और कांग्रेस जो अभी सत्ता में आना ही नही चाहती उसे मजबूरी में सरकार बनानी पड़ सकती है।

वाहिद नसीम
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विशलेषक है