
Dharmendra's smile and memories are still alive in Bollywood.
हीरो भी जाते हैं, यादें नहीं: धर्मेन्द्र की विरासत पर सोच
शाह टाइम्स एडिटोरियल धर्मेन्द्र की रुख़्सती पर सिनेमा, समाज और इंसानियत के पेचीदा सवालों की तह तक जाता है। इसमें उनके काम की रोशनी, उनकी शख़्सियत की गहराई, इंडस्ट्री की प्रतिक्रिया, और हमारी collective यादों की ज़िम्मेदारी को समझने की कोशिश की गई है।
📍मुंबई
🗓️ 11 November 2025
✍️ Asif Khan
दिल-ओ-दिमाग़ को झकझोरती रुख़्सती: धर्मेन्द्र का सफ़र और सवाल
सिनेमा की दुनिया में कुछ चेहरे ऐसे होते हैं जो सिर्फ़ पर्दे पर नहीं रहते, बल्कि हमारे रोज़ के जज़्बात में, हमारी गुफ्तगू में, हमारे घरों की दीवारों पर लगे पुराने पोस्टर्स में, हमारे बुज़ुर्गों की दास्तानों में, और हमारी नस्लों के दरमियान बहती यादों में बस जाते हैं। धर्मेन्द्र का नाम भी इन्हीं में है। आज जब ये ख़बर आई कि 89 साल की उम्र में वो हमसे जुदा हो गए, तो दिल में एक अजीब सी सूँई चुभती महसूस हुई—क्योंकि हीरो बूढ़े हो सकते हैं, मौत की दहलीज़ पर पहुँच सकते हैं, मगर हमारी उम्मीदें अक्सर उन्हें अमर समझ लेती हैं।
लोगों ने कहा कि वो आख़िरी दम तक एक्टिव रहे, सेट्स पर आते, मुस्कुराते, अपने अंदाज़ में हल्की सी शरारत करते। लेकिन क्या हम कभी समझ पाए कि इतने लंबे सफ़र में उन्होंने अपने भीतर क्या-क्या सहा होगा? शोहरत का बोझ, परिवार की जद्दोजहद, इंडस्ट्री की बेरहम उम्मीदें—ये सब किसी भी इंसान को थका देते हैं। हम पर्दे पर देखते हैं कि “ही-मैन” सब संभाल लेता है, मगर असल ज़िंदगी में सांस की कमी, थकान, कमजोरी—ये सब हीरो को भी इंसान बना देती हैं।
हॉस्पिटल के बाहर जो भीड़ जमा हुई, उसमें दुआएं भी थीं और डर भी। शाहरुख खान, सलमान खान, गोविंदा—सब दौड़े आए। किसी की आंखें नम थीं, किसी को यक़ीन नहीं हो रहा था। ये सब देखकर एक सवाल भी उभरता है: क्या इंसान की क़ीमत तब ही समझ आती है जब वो हमारे हाथ से फिसल रहा हो? जिंदगी भर हम उनके काम पर तालियाँ बजाते रहे, उनके डायलॉग दोहराते रहे—“बसंती, इन कुत्तों के आगे मत नाचना”—मगर शायद हमने कभी उनके दर्द के पीछे के इंसान को देखने की कोशिश नहीं की।
एक बात कही जाती है, “शौहरत एक चिराग़ है, और चिराग़ की रौशनी जितनी चमकीली हो, उसकी तन्हाई उतनी गहरी होती है।” धर्मेन्द्र की ज़िन्दगी भी कभी-कभी यही लगती थी—चमकदार, मगर तन्हा। वो सिनेमा के पहले सुपरस्टार थे जो मास, क्लास और दिल—तीनों का संगम थे। हिंदी में उनकी जड़ों की महक थी, उर्दू की नज़ाकत थी और इंग्लिश में एक हल्की सी playful ठाठ। उनकी dialogues delivery में rustic honesty थी, जो आज के digital age में शायद कम होती जा रही है।
जब हेमा मालिनी ने सोशल मीडिया पर उनकी मुस्कुराती तस्वीर पोस्ट की और दुआ की अपील की, तो उसमें एक पत्नी का दर्द, एक साथी की लाचारी और एक लंबी साझेदारी की कहानी छुपी थी। सोशल मीडिया की दुनिया तो अक्सर façade बनाती है, लेकिन उस पोस्ट में असली इंसानी गर्मी थी। कोई भी रिश्ते की उम्र 50+ साल से गुजरते-गुजरते patina-सी चमक ले आती है—और वो चमक तस्वीर में साफ दिख रही थी।
अब चलिए उनकी फिल्मों की बात करें। सात दशकों में 300 से ज़ियादा फिल्में करना सिर्फ़ quantity नहीं है—ये stamina है, जुनून है, commitment है। शोले, चुपके-चुपके, धरमवीर—हर फिल्म में वो अलग रंग में नज़र आए। कॉमेडी में effortless timing, action में raw power, romance में underplayed charm—ये versatility आज की commercialised industry मुश्किल से बना पाएगी। उन्होंने कभी producers के pressure में अपने values नहीं छोड़े। अगर ये बात आज के self-conscious stars सुनें, तो शायद सीख लें कि long-term respect सिर्फ़ PR से नहीं, character से मिलता है।
लेकिन editorial का काम just praise करना नहीं होता, सवाल उठाना भी होता है। तो सवाल ये है: क्या इंडस्ट्री ने उनकी उम्रदराज़ी के दौर में उन्हें वो dignity दी जिसके वो हक़दार थे? या फिर वह भी उस same pattern का शिकार बने, जिसमें legends को सिर्फ nostalgia की चीज़ बना दिया जाता है? उनकी आख़िरी फिल्में देखकर ऐसा लगता था कि उनका दिल अब भी अभिनय में पूरी तरह लगा हुआ था, मगर आसपास की दुनिया उतनी receptive नहीं रही। क्या हमारी society बूढ़े कलाकारों को gracefully age करने देती है, या उन्हें एक relic की तरह showcase करती है?
अक्सर कहा जाता है—”We love our legends only when they stop challenging us.” ये बात धर्मेन्द्र पर भी लागू होती है। जब तक वो हमारी youth-culture की comfort zone में फिट होते रहे, हम उन्हें celebrate करते रहे। जैसे ही उम्र ने उन्हें slow किया, हमने उन्हें एक safe memory box में रख दिया।
इन सबके बावजूद, उनकी legacy इतनी विशाल है कि किसी भी critic को खामोश कर देती है। पंजाब से निकलकर बॉलीवुड के golden era तक पहुंचना आसान नहीं था। उस दौर में फिल्मी दुनिया में जगह बनाना, survive करना और फिर decades तक relevance बनाए रखना—ये सिर्फ talent नहीं, grit भी मांगता है। उनके अंदर एक earthy sincerity थी जो कैमरे से भी ज़्यादा audience को feel होती थी।
आज जब हम उनकी मौत की खबर सुनते हैं, तो एक collective खालीपन उभरता है। उर्दू में कहा जाता है—“जब कोई बड़ा आदमी जाता है, तो शहर का इक हिस्सा उजड़ जाता है।” आज यही हुआ।
मैं एक और perspective रखता हूँ जिसे शायद लोग uncomfortable समझें—क्या हम death को romanticize करते हैं? एक उम्रदराज़ कलाकार की ज़रूरत होती है privacy की, care की, dignity की। लेकिन जैसे ही खबर फैली, मीडिया की lens हॉस्पिटल की ओर दौड़ गई। कैमरे, flashes, breaking-tag—ये सब उस moment की sanctity का violation हैं। क्या ये respect है? या फिर voyeurism? हमें इस पर भी सोचने की जरूरत है।
धर्मेन्द्र की दुनिया अब यादों में है, लेकिन उनकी कहानी का सबक future artists के लिए clear होना चाहिए—stardom हमेशा नहीं रहता, लेकिन sincerity और humility अमर रहते हैं।
यही बात सरल शब्दों में: “Greatness is not in fame, it’s in humanity.”
उनकी इंसानियत ही उनकी सबसे बड़ी फोटो-स्टोरी थी।




