
Shame-al-Sheikh conference highlights Arab divisions over Gaza ceasefire.
मिस्र के सम्मेलन से सऊदी-यूएई की दूरी और गाज़ा की सियासत का नया मोड़
गाज़ा शांति सम्मेलन में सऊदी-यूएई गैरहाज़िर, क्या है वजह?
📍नई दिल्ली 🗓️ 15 अक्टूबर 202✍️ असिफ़ ख़ान
शर्म-अल-शेख में गाज़ा युद्धविराम पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में सऊदी अरब और यूएई की अनुपस्थिति ने मुस्लिम दुनिया में उभरते तनाव को उजागर किया है। मिस्र की कूटनीतिक बढ़त से खाड़ी देश असहज हैं। सवाल है – क्या गाज़ा ने अरब दुनिया में नई दरार खोल दी है?
काहिरा की ठंडी हवा उस दिन भी गर्म थी, जब डोनाल्ड ट्रंप और मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सिसी ने शर्म-अल-शेख के लाल सागर किनारे एक भव्य मंच पर दुनिया के नेताओं का स्वागत किया। उद्देश्य था — गाज़ा में हाल ही हुए युद्धविराम का स्वागत और मध्य-पूर्व में स्थिरता का संदेश। लेकिन उस मंच पर दो चेहरे गायब थे, जिनकी मौजूदगी से पूरा दृश्य बदल सकता था — सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति मोहम्मद बिन ज़ायद अल नाहयान।
उनकी गैरमौजूदगी ने पूरे सम्मेलन की दिशा बदल दी। मिस्र को मिले वैश्विक स्पॉटलाइट ने रियाद और अबू धाबी को बेचैन कर दिया। सवाल यह नहीं कि उन्होंने हिस्सा क्यों नहीं लिया, बल्कि यह कि उन्होंने हिस्सा न लेकर क्या संदेश दिया?
मिस्र को कूटनीतिक क्रेडिट, खाड़ी को नाराज़गी
पिछले दो वर्षों से मिस्र, इज़रायल और हमास के बीच होने वाली बातचीत का मंच बना हुआ है। काहिरा ने कई बार अप्रत्यक्ष वार्ताओं में मध्यस्थता की है। अमेरिकी समर्थन और क़तरी सहयोग से मिस्र ने गाज़ा में संघर्षविराम करवाने में निर्णायक भूमिका निभाई। लेकिन इस बार की सफलता मिस्र को वह अंतरराष्ट्रीय पहचान दिला गई, जिसकी तलाश उसे अरब दुनिया में थी।
रियाद और अबू धाबी इस अचानक मिले “डिप्लोमैटिक हाई” से संतुष्ट नहीं हैं। MEE की रिपोर्ट के मुताबिक़, दोनों खाड़ी राजधानियों ने अपने शीर्ष शासकों की बजाय मंत्रियों को भेजकर यह संकेत दिया कि वे मिस्र को अकेले “अरब दुनिया की आवाज़” बनने नहीं देंगे।
एक मिस्री राजनयिक ने कहा, “काहिरा को ग्लोबल मीडिया में जो जगह मिली, उसने रियाद की आँखों में चुभन पैदा की है। सऊदी खुद को इस क्षेत्र का ‘लीडर ऑफ स्टेबिलिटी’ मानता है।”
ऐतिहासिक संदर्भ और आज की हकीकत
अरब राजनीति में मिस्र सदियों से बौद्धिक और सांस्कृतिक केंद्र रहा है। लेकिन 2013 में मोहम्मद मुर्सी की सरकार गिराकर अल-सिसी के आने के बाद से मिस्र की अर्थव्यवस्था लगातार गिरती रही। तेल और धन की ताकत खाड़ी की तरफ़ शिफ्ट हो गई।
रियाद और अबू धाबी ने इस दौर में मिस्र को अरब वित्तीय सहयोग का बड़ा हिस्सा दिया। यही कारण है कि वे मिस्र को एक “छोटा साझेदार” समझते हैं, बराबरी का खिलाड़ी नहीं। लेकिन गाज़ा वार्ता ने यह परिभाषा बदल दी — मिस्र ने अपनी पुरानी कूटनीतिक ताक़त वापस हासिल की।
गाज़ा पर मुस्लिम दुनिया में दो राय
हमास की भूमिका पर मुस्लिम देशों की राय हमेशा से बंटी रही है।
ईरान और क़तर उसे मुक़ावमत यानी प्रतिरोध का प्रतीक मानते हैं, जबकि सऊदी अरब और यूएई उसे इस्लामी राजनीतिक ख़तरा समझते हैं।
2011 की अरब स्प्रिंग की यादें आज भी खाड़ी देशों को डराती हैं — उन्हें भय है कि राजनीतिक इस्लाम की कोई भी लहर उनके राजवंशों को हिला सकती है।
रियाद के एक वरिष्ठ अधिकारी ने MEE से कहा, “हमास की मौजूदगी एक टाइम बम है। जब तक उसे पूरी तरह खत्म नहीं किया जाएगा, क्षेत्र में स्थिरता एक भ्रम बनी रहेगी।”
मिस्र का शांतिदूत बनना या रणनीतिक छल?
गाज़ा में हुई मध्यस्थता ने मिस्र को एक बार फिर क्षेत्रीय मंच पर केंद्र बना दिया। लेकिन यह भी सच है कि मिस्र की प्राथमिकता केवल शांति नहीं, बल्कि अपनी आर्थिक और रणनीतिक स्थिति को पुनर्स्थापित करना भी है।
काहिरा जानता है कि वॉशिंगटन और दोहा के साथ संतुलन बनाकर ही वह अरब राजनीति में फिर से केंद्र बन सकता है।
ट्रंप प्रशासन भी मिस्र को एक भरोसेमंद पार्टनर के रूप में देखता है, क्योंकि यह इज़रायल से संवाद के लिए एक सुरक्षित माध्यम है।
मगर इस सब के बीच खाड़ी देशों को लगता है कि मिस्र उनके कंधे पर रखी बंदूक से अपनी ताक़त बढ़ा रहा है। यही वजह है कि रियाद और अबू धाबी ने इस बार दूरी बनाई — ताकि संदेश साफ रहे कि “अरब लीडरशिप” का ताज वे आसानी से नहीं छोड़ेंगे।
अंदरूनी डर और बाहरी प्रतिस्पर्धा
यूएई की रणनीति साफ है — राजनीतिक इस्लाम के हर रूप से दूरी। अबू धाबी ने पिछले दशक में मुस्लिम ब्रदरहुड, हमास और तुर्की समर्थित गुटों को अपने लिए ख़तरा माना है।
वहीं सऊदी क्राउन प्रिंस MBS खुद को “Arab Reformer” और “Modernizer” के रूप में पेश कर रहे हैं।
ऐसे में हमास का पुनरुत्थान उनकी “New Middle East” कहानी को चुनौती देता है।
गाज़ा की जीत या सहानुभूति अरब युवाओं में इस्लामी जोश बढ़ा सकती है — जो MBS के लिए राजनीतिक खतरे की घंटी है।
क्या एक नया ब्लॉक बन रहा है?
कई विश्लेषक मानते हैं कि गाज़ा युद्धविराम के बाद मुस्लिम दुनिया तीन हिस्सों में बंट रही है —
पहला, मध्यस्थ ब्लॉक (मिस्र, क़तर, तुर्की),
दूसरा, सावधान ब्लॉक (सऊदी, यूएई, बहरीन),
और तीसरा, सक्रिय प्रतिरोध ब्लॉक (ईरान, हिज़्बुल्लाह, हमास)।
इनके बीच संतुलन बनाना किसी एक देश के लिए असंभव है।
लेकिन मिस्र इस असंभव को संभव करने की कोशिश कर रहा है। यही वजह है कि खाड़ी देश असहज हैं — क्योंकि उन्हें डर है कि यह “नई अरब राजनीति” उनके पुराने प्रभाव को मिटा सकती है।
बुद्धिजीवी नज़रिया
काहिरा यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डॉ. समीह हसन के शब्दों में, “अरब एकता हमेशा से एक कल्पना रही है। जब भी किसी देश को थोड़ी शक्ति मिलती है, बाक़ी उससे ईर्ष्या करने लगते हैं।”
वहीं बेरूत के राजनीतिक विश्लेषक अब्दुल्ला हारिस कहते हैं, “मिस्र का उदय खाड़ी की तसल्ली को तोड़ रहा है। यह प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि पुरानी पहचान की बहाली है।”
वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य
अगर गहराई से देखें तो मिस्र और खाड़ी के बीच यह विवाद केवल गाज़ा का नहीं है, बल्कि “लीडरशिप नैरेटिव” का है।
कौन बोलेगा अरब दुनिया की ओर से?
कौन बनेगा मुस्लिम उम्मा की आवाज़?
और सबसे अहम — कौन तय करेगा कि गाज़ा में “न्याय” की परिभाषा क्या होगी?
गाज़ा के मलबे से उठते ये सवाल आज पूरे इस्लामी जगत की राजनीति को झकझोर रहे हैं। मिस्र का सम्मेलन केवल एक घटना नहीं, बल्कि अरब राजनीति के भविष्य की पटकथा है।
नज़रिया
मिस्र ने गाज़ा युद्धविराम में जो भूमिका निभाई, उसने उसे दोबारा क्षेत्रीय मानचित्र पर केंद्र में ला खड़ा किया। लेकिन हर रोशनी के साथ परछाईं होती है — और वह परछाईं हैं सऊदी और यूएई की नाराज़गी।
गाज़ा फिलहाल शांत है, पर अरब राजनीति में तूफ़ान अभी बाकी है।
सवाल यही है — क्या मिस्र की यह कूटनीतिक पुनर्जागरण अरब एकता की राह खोलेगा, या उसे और गहराई में बाँट देगा?