
ईडी की दूसरी चार्जशीट और रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ बढ़ती कानूनी चुनौती
संजय भंडारी केस में वाड्रा पर नया दबाव, जवाबों की नई मांग
ईडी ने ब्रिटेन के हथियार व्यापारी संजय भंडारी मामले में रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ दूसरी चार्जशीट दायर की। आरोपों में विदेशी संपत्तियों और संदिग्ध वित्तीय लेन-देन की बात कही गई है। वाड्रा इन आरोपों को राजनीति-प्रेरित बताते हैं। मामला अब कानूनी, राजनीतिक और सार्वजनिक विमर्श—तीनों मैदानों में नई बहस खड़ी कर रहा है।
📍New Delhi 🗓️ 20 November 2025 ✍️Asif Khan
राजनीति, कारोबारी रिश्ते और जांच एजेंसियों की जटिल कहानी
रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ़ ईडी की नई चार्जशीट ने पुराने विवाद को फिर जीवित कर दिया है। कहानी में ताज़गी कम है, लेकिन परतें ज़्यादा हैं। यही वजह है कि यह मामला महज़ एक संपत्ति, एक व्यापारी या एक जांच एजेंसी का सवाल नहीं रह गया। यह सत्ता, व्यापार, रिश्तों और जवाबदेही—इन सबका मिला जुला सबक बन चुका है।
ईडी का कहना है कि ब्रिटेन के हथियार व्यापारी संजय भंडारी से जुड़े जो लेन-देन सामने आए थे, उनमें कुछ कड़ियाँ ऐसी हैं जिन्हें लेकर सवाल उठते हैं। 2016 की आयकर छापेमारी में जो ईमेल और दस्तावेज़ मिले, वह जांच का शुरुआती आधार बने। इनमें लंदन की एक संपत्ति के नवीनीकरण का ज़िक्र था और एजेंसी इस नवीनीकरण को वाड्रा से जुड़े बिचौलियों के इशारों से जोड़ती है।
यहाँ पर दस्तान दिलचस्प हो जाती है। वाड्रा का कहना है कि यह सब राजनीति का हिस्सा है और किसी भी संपत्ति का उनसे कोई संबंध नहीं। उनका दावा है कि जो काग़ज़ात पेश किए जा रहे हैं, उन पर आधारित व्याख्याएँ अधूरी और गलत समझ पर टिकती हैं। दूसरी ओर ईडी का तर्क यह है कि अगर विदेश में किसी accused के पास undisclosed assets हैं और उसका संपर्क influential circles में दर्ज है, तो जांच का दायरा बढ़ना स्वाभाविक है।
सवाल यह है कि आखिर सच्चाई कहाँ है? अदालत इस मामले की असली कसौटी है, लेकिन सार्वजनिक विमर्श अक्सर अदालत से पहले अपना फैसला सुना देता है। किसी मामले में तकनीकी कानूनी बारीकियाँ जितनी महत्वपूर्ण होती हैं, उतना ही जनता का perception भी। हर हाई-प्रोफाइल केस इन दोनों दुनिया के बीच झूलता रहता है।
भंडारी के देश से भागने, उन्हीं पर लगे पुराने आरोपों और ब्रिटेन की अदालत द्वारा extradition request के खारिज होने ने कहानी में और धुंध भर दी है। यही धुंध narrative का खेल तय करती है। एक पक्ष का कहना है कि यह selective investigation है। दूसरा पक्ष कहता है कि कानून की पकड़ सब पर बराबर होनी चाहिए। सच इन दोनों के बीच कहीं मौजूद होता है, लेकिन शोर इतना होता है कि संतुलन ढूँढना मुश्किल हो जाता है।
भारत में जांच एजेंसियों की credibility लंबे समय से बहस का विषय है। कोई भी कार्रवाई होती है तो दो हिस्से तुरंत बन जाते हैं—एक जो इसे कानून का आवश्यक कदम बताते हैं, और दूसरा जो इसे सियासी रणनीति समझते हैं। एजेंसियों की ज़िम्मेदारी यही है कि वे पारदर्शिता और सबूतों की मजबूती से अपना भरोसा बचाए रखें।
यह केस भी उसी परीक्षा का हिस्सा है। अगर आरोप सही साबित होते हैं, तो यह दर्शाएगा कि प्रभावशाली लोगों की भी जांच हो सकती है। अगर आरोप साबित नहीं होते, तो सवालों की दिशा उलट जाएगी। दोनों ही स्थितियों में यह केस भारत की राजनीतिक और न्यायिक दृष्टि को परखने वाला मोड़ साबित होगा।
अंत में महत्वपूर्ण यही है कि आरोप, प्रत्यारोप, बयान और counter-narrative—इन सबके बीच न्यायिक प्रक्रिया को आगे बढ़ने दिया जाए। राजनीति चाहे जितनी गरमी पैदा करे, अदालत की निष्पक्षता ही वह मंच है जो इस कहानी का अंतिम अध्याय लिखेगी। अभी जो दिख रहा है, वह सिर्फ़ बहस का मध्य भाग है, निष्कर्ष नहीं।




