
69,000 teacher recruitment candidates protest outside Mayawati's residence in Lucknow
उत्तर प्रदेश 69000 शिक्षक भर्ती आंदोलन ने फिर पकड़ी रफ़्तार
आरक्षण विवाद पर फिर भड़का यूपी 69000 शिक्षक भर्ती आंदोलन
📍 लखनऊ
🗓️ 26 अक्टूबर 2025
✍️ Asif Khan
उत्तर प्रदेश में 69000 शिक्षक भर्ती का मामला एक बार फिर सुर्खियों में है। आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी सुप्रीम कोर्ट में लंबित केस पर त्वरित सुनवाई और निष्पक्ष आरक्षण की मांग कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में 69000 शिक्षक भर्ती का मुद्दा एक बार फिर राजनीतिक और सामाजिक बहस का केंद्र बन गया है। बीते कुछ दिनों में लखनऊ की सड़कों पर फिर से नारों की गूंज सुनाई दी। बेसिक शिक्षा मंत्री संदीप सिंह के आवास के बाहर प्रदर्शन और फिर बसपा सुप्रीमो मायावती के घर के बाहर धरना—ये सब दिखाता है कि बेरोज़गार अभ्यर्थियों का धैर्य अब जवाब दे चुका है।
मायावती के घर के बाहर क्यों हुआ प्रदर्शन?
अभ्यर्थियों का कहना है कि मायावती ने हाल की रैली में योगी सरकार की प्रशंसा की थी। इस बयान के बाद छात्रों ने यह उम्मीद जताई कि वो मुख्यमंत्री से मिलकर इस केस में पैरवी करवाएँगी। उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में केस एक साल से लंबित है और सरकार की ओर से कोई प्रभावी वकील पेश नहीं हो रहा। इससे फैसला टलता जा रहा है और हज़ारों युवाओं का भविष्य अधर में है।
धरना और ज्ञापन का सिलसिला
शनिवार को अभ्यर्थियों ने बेसिक शिक्षा मंत्री संदीप सिंह के घर के बाहर नारे लगाए—“न्याय दो, हक दो, नियुक्ति दो।” अगले ही दिन वे मायावती के लखनऊ स्थित आवास पहुंचे। मॉल एवेन्यू पर सैकड़ों की संख्या में युवा इकट्ठा हुए, जिन्होंने मायावती से सुप्रीम कोर्ट में हस्तक्षेप की अपील की। मौके पर पुलिस ने कुछ लोगों को हिरासत में लेकर इको गार्डन भेजा, जो कि राजधानी में तय प्रदर्शन स्थल है।
अभ्यर्थियों का आरोप क्या है?
अभ्यर्थी, खासकर ओबीसी, एससी और एसटी वर्ग से, कह रहे हैं कि आरक्षण में भारी गड़बड़ी हुई। पर्वतीय दलित संयुक्त मोर्चा समेत कई संगठनों का दावा है कि
ओबीसी को 27% की जगह केवल 3.86%
एससी को 21% के बजाय 16.2%
आरक्षण मिला।
इससे बड़ी संख्या में योग्य उम्मीदवार बाहर रह गए।
कानूनी पहलू
सुप्रीम कोर्ट में यह केस पिछले एक साल से लंबित है। अगस्त 2024 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकार को तीन महीने में नियुक्ति प्रक्रिया पूरी करने का आदेश दिया था, लेकिन अब तक अमल नहीं हुआ। कोर्ट में हर सुनवाई टल रही है क्योंकि सरकार की तरफ से सक्रिय पैरवी नहीं हो रही। यही वजह है कि आंदोलनकारियों ने अब राजनीतिक दलों से उम्मीद लगाई है।
सरकार की स्थिति
योगी सरकार का रुख अब तक सीमित बयानबाज़ी तक ही रहा है। बेसिक शिक्षा विभाग का कहना है कि मामला सुप्रीम कोर्ट में है और अंतिम आदेश का इंतज़ार किया जा रहा है। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि लाखों युवा पिछले पाँच साल से इंतज़ार में हैं। बेरोज़गारी का दबाव और भविष्य की अनिश्चितता ने इस आंदोलन को फिर तेज़ कर दिया है।
मायावती की भूमिका पर सवाल
बसपा प्रमुख मायावती की स्थिति इस पूरे परिदृश्य में दिलचस्प है। एक तरफ वो दलित समाज की आवाज़ मानी जाती हैं, दूसरी तरफ उनकी सरकार समर्थक टिप्पणियों ने अभ्यर्थियों को नाराज़ कर दिया है। आंदोलनकारियों ने उनसे उम्मीद जताई है कि वह योगी सरकार से बात करें और सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण से जुड़ी विसंगतियों पर पैरवी करें।
आंदोलन की सामाजिक पृष्ठभूमि
ये आंदोलन केवल नौकरी पाने की लड़ाई नहीं रह गई है। यह सामाजिक न्याय की भी मांग है। दलित, पिछड़ा और आदिवासी वर्ग के युवाओं का कहना है कि आरक्षण संविधान का हक है, कोई दया नहीं। जब सरकारी तंत्र उस हक को कम करता है, तो संघर्ष ज़रूरी हो जाता है।
लखनऊ, प्रयागराज, बनारस, कानपुर और गोरखपुर जैसे शहरों में ये आंदोलन धीरे-धीरे फैल रहा है।
राजनीतिक आयाम
यह मामला अब सियासी रंग ले चुका है। विपक्ष इस मुद्दे को सरकार की जवाबदेही से जोड़ रहा है। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस दोनों ने इसे युवाओं के हक की लड़ाई बताया है। वहीं भाजपा नेताओं का कहना है कि मामला न्यायालय में है, इसलिए सरकार को दोष देना अनुचित है। लेकिन राजनीतिक दृष्टि से यह विषय चुनावी राज्यों में बड़ा असर डाल सकता है।
ग्राउंड रिपोर्ट और युवाओं की बात
इको गार्डन में बैठे सैकड़ों अभ्यर्थी बताते हैं कि वे सालों से तैयारी कर रहे हैं। किसी ने परिवार से उधार लेकर कोचिंग की, किसी ने छोटे-मोटे काम करके पढ़ाई जारी रखी। अब जब परीक्षा पास हुई और चयन रुका हुआ है, तो निराशा स्वाभाविक है।
लखनऊ के एक अभ्यर्थी आरिफ़ कहते हैं, “हमारा रिज़ल्ट आया, लेकिन जॉइनिंग नहीं मिली। कोर्ट में केस अटका है और सरकार खामोश है। हम बस न्याय चाहते हैं।”
इसी तरह प्रयागराज की सीमा यादव बताती हैं, “हम ओबीसी हैं, पर आरक्षण में कटौती से बाहर हो गए। ये हमारी मेहनत और हक दोनों का अपमान है।”
कानूनी विशेषज्ञों की राय
कानूनी जानकारों का कहना है कि अगर सरकार सक्रिय पैरवी करे तो केस जल्द निपट सकता है। सुप्रीम कोर्ट केवल नियमों की व्याख्या चाहता है, लेकिन जब पक्षकार गंभीरता नहीं दिखाते, तो न्याय में देरी होती है।
पूर्व एडवोकेट सुधांशु मिश्रा के मुताबिक, “राज्य सरकार की ओर से मजबूत लॉ फर्म को नियुक्त करना चाहिए ताकि आरक्षण के प्रतिशत पर स्पष्टता आए और भर्ती प्रक्रिया जल्द बहाल हो।”
मीडिया और जनभावना
सोशल मीडिया पर यह मुद्दा फिर से ट्रेंड कर रहा है। ट्विटर (अब X), फेसबुक, और इंस्टाग्राम पर #69000TeacherBharti और #JusticeForOBC जैसे टैग्स लगातार इस्तेमाल हो रहे हैं।
कई युवा व्हाट्सएप ग्रुप्स में अपने ज्ञापन और कोर्ट दस्तावेज़ शेयर कर रहे हैं। इससे यह स्पष्ट है कि यह सिर्फ लखनऊ का आंदोलन नहीं, बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश के युवाओं का सवाल बन चुका है।
सरकार और विपक्ष दोनों के लिए चुनौती
एक तरफ विपक्ष इसे बेरोज़गारी और आरक्षण की असमानता का प्रतीक बता रहा है, दूसरी तरफ सरकार इसे “कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा” कहकर टाल रही है। लेकिन जनता अब इस बहाने को स्वीकार नहीं कर रही।
जब युवा पांच साल से बिना नौकरी के हैं, तो किसी भी राजनीतिक तर्क का असर सीमित होता है।
समाज पर असर
शिक्षक भर्ती का रुकना सिर्फ रोजगार का संकट नहीं है। इससे सरकारी स्कूलों की शिक्षा गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है। कई स्कूलों में शिक्षक पद रिक्त हैं, जिससे ग्रामीण इलाकों में पढ़ाई ठप सी है। इस वजह से शिक्षा का अधिकार भी प्रभावित हो रहा है।संतुलित दृष्टिकोण से निष्कर्ष
अभ्यर्थियों की मांगें तर्कसंगत हैं—निष्पक्ष आरक्षण, कोर्ट में समय पर सुनवाई और नियुक्ति प्रक्रिया की पारदर्शिता।
सरकार का कर्तव्य है कि वह युवाओं की आवाज़ सुने और न्याय प्रक्रिया को तेज़ करे।
साथ ही, प्रदर्शनकारियों को भी संवैधानिक दायरे में रहकर आंदोलन जारी रखना चाहिए ताकि यह मुद्दा कानून और व्यवस्था की दृष्टि से शांतिपूर्ण रहे।
इस संघर्ष का समाधान केवल न्यायिक आदेश से नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति से होगा।






