
Gaza-Israel talks in Cairo—hope for peace or political ploy?
ट्रंप प्लान और हमास का समझौता: मध्य पूर्व में नई शुरुआत या पुराना भ्रम?
गाज़ा-इस्राइल संघर्ष: दो साल बाद शांति की कोशिशें क्या रंग लाएंगी?
📍 काहिरा
🗓️ 8 अक्टूबर 2025
✍️ Asif Khan
गाज़ा में दो सालों से जारी खूनी संघर्ष के दरमियान अब उम्मीद की एक नई किरण दिखाई दी है। हमास ने पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मध्यस्थता वाली शांति योजना पर बातचीत के लिए हामी भरी है। मिस्र, क़तर और अमेरिका के वरिष्ठ प्रतिनिधि इस वार्ता में शामिल हैं। सवाल ये है — क्या यह शांति की शुरुआत है या केवल एक और अधूरी कोशिश?
मिडिल ईस्ट की ज़मीन पर जब भी कोई नया सूरज उगता है, उसके साथ धूल, बारूद और उम्मीदें भी उठती हैं। गाज़ा और इस्राइल के बीच यह संघर्ष अब दो साल का हो चुका है। इन दो बरसों में साठ हज़ार से ज़्यादा ज़िंदगियां खत्म हो गईं, लाखों लोग बेघर हो गए, और शहर मलबों में बदल गए। अब जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक नई शांति योजना पेश की है, तो सबकी निगाहें क़ाहिरा में चल रही बातचीत पर टिक गई हैं।
हमास ने कहा है कि वह युद्ध खत्म करने के समझौते के लिए तैयार है — मगर कुछ गारंटी चाहता है। उसका कहना है कि अगर यह डील होती है तो सुनिश्चित किया जाए कि दोबारा युद्ध न भड़के। इसी बीच क़तर के प्रधानमंत्री और अमेरिकी प्रतिनिधि मिस्र पहुंच गए हैं। जैरेड कुश्नर और स्टीव विटकॉफ़ की मौजूदगी से संकेत मिल रहा है कि यह केवल औपचारिक मुलाक़ात नहीं, बल्कि गंभीर वार्ता है।
इस संघर्ष की जड़ें गहरी हैं। जब 1948 में इस्राइल दुनिया के नक़्शे पर आया, तभी से फलस्तीनियों के दिलों में जख्म भी बने। हमास और इस्राइल की लड़ाई महज़ दो देशों की नहीं — यह ज़मीन, पहचान और हक़ की लड़ाई है।
ट्रंप प्लान का मकसद
ट्रंप की योजना काफ़ी हद तक पहले के “डील ऑफ़ द सेंचुरी” की याद दिलाती है। लेकिन इस बार फर्क ये है कि फलस्तीनी अथॉरिटी को भी शामिल किया गया है। ट्रंप सरकार पहले इस्राइल की खुली हिमायती रही है, इसलिए इस बार का रुख़ कई लोगों को चौंकाता है।
अमेरिका चाहता है कि गाज़ा में स्थायी युद्धविराम हो और बंधकों की रिहाई का रास्ता खुले। मगर सवाल ये है कि क्या दोनों पक्ष एक-दूसरे पर भरोसा कर सकते हैं?
इस्राइल को डर है कि हमास समझौते के बाद भी फिर हथियार उठा सकता है। वहीं हमास को यकीन नहीं कि इस्राइल शांति के नाम पर अपनी सैन्य कार्रवाई कम करेगा।
वार्ता की दिशा
काहिरा में चल रही बातचीत के पहले दिन माहौल थोड़ा तनावपूर्ण था, लेकिन अब सूत्रों के मुताबिक “बेहतर” है। बुधवार को होने वाली मुलाक़ात निर्णायक साबित हो सकती है।
हमास के वरिष्ठ नेता खलील अल-हय्या ने कहा कि वे “गंभीर और जिम्मेदार” बातचीत के लिए आए हैं। उन्होंने कहा — “हम शांति चाहते हैं, लेकिन गारंटी चाहिए कि यह हमेशा के लिए होगी।”
ये बयान बताता है कि अब गाज़ा में थकान और तबाही दोनों हद पार कर चुके हैं। लोग अब सिर्फ़ जंग से नहीं, बल्कि जंग की राजनीति से भी थक चुके हैं।
गाज़ा की हक़ीक़त
गाज़ा आज एक ऐसा इलाक़ा बन चुका है जहां ज़िंदगी और मौत दोनों साथ चलते हैं। बिजली कुछ घंटों की, पानी नसीब से, और अस्पताल जख्मों से भरे।
लोग कहते हैं — “हम बस इतना चाहते हैं कि हमारे बच्चे बिना डर के स्कूल जाएं।” मगर यही सबसे बड़ा सपना बन गया है।
यह क्षेत्र अब किसी जियो-पॉलिटिकल एक्सपेरिमेंट का मैदान नहीं रह गया। यह दो करोड़ से ज़्यादा जिंदगियों का घर है। और यही दुनिया को समझना होगा — गाज़ा सिर्फ़ एक संघर्ष नहीं, एक मानवीय त्रासदी है।
जल्दबाज़ी न हो
ट्रंप चाहते हैं कि पहले दौर की योजना इस हफ्ते में ही पूरी हो जाए, लेकिन शांति कोई व्यापारिक डील नहीं। अगर जल्दबाज़ी में कोई अधूरी स्क्रिप्ट लिख दी गई, तो आने वाली पीढ़ियां फिर उसी जंग की पटकथा पढ़ेंगी।
इस्राइल, हमास और उनके पीछे खड़ी ताक़तों को समझना होगा कि हर समझौता सिर्फ़ काग़ज़ पर नहीं, दिलों में भी होना चाहिए।
क्या यह नया सवेरा है?
कई विश्लेषकों का कहना है कि अगर यह डील सफल होती है, तो यह मध्य पूर्व में स्थायी स्थिरता की शुरुआत हो सकती है। मगर कुछ लोग चेतावनी दे रहे हैं कि जब तक दोनों पक्षों के बीच विश्वास की बुनियाद नहीं बनेगी, तब तक कोई भी समझौता टिक नहीं सकेगा।
मिस्र, क़तर और अमेरिका की भूमिका अब अहम है। तीनों को यह साबित करना होगा कि वे सिर्फ़ मध्यस्थ नहीं, बल्कि मानवीय हितों के प्रहरी भी हैं।
नज़रिया
मिडिल ईस्ट का इतिहास गवाह है — हर शांति वार्ता के बाद वहां एक नई जंग पनपी है। मगर इस बार हालात कुछ अलग हैं। गाज़ा अब और नहीं झेल सकता।
अगर यह वार्ता नाकाम होती है, तो केवल राजनीति नहीं, इंसानियत भी हार जाएगी।
अब देखना यह है कि क्या गाज़ा की रेत में उगता यह नया सूरज वाकई रोशनी लाएगा, या फिर वही धुआं और खामोशी वापस लौटेगी।






