
Nepal protests against social media ban, police firing on demonstrators, Kathmandu curfew – Shah Times
काठमांडू संकट: संसद पर धावा, पुलिस फायरिंग में 200 घायल, बॉर्डर सील
नेपाल की सियासत जल रही: सोशल मीडिया बैन के खिलाफ युवाओं का विद्रोह
काठमांडू में सोशल मीडिया बैन और भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रदर्शन हिंसक, 20 की मौत, 200 घायल। कर्फ्यू लागू, देखते ही गोली मारने का आदेश।
Kathmandu,(Shah Times) । नेपाल इन दिनों एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है जिसने मुल्क़ की सियासत और समाज़ दोनों को हिला कर रख दिया है। सोशल मीडिया बैन और हुकूमत के खिलाफ गहराता ग़ुस्सा अब सड़कों पर लहू में तब्दील हो चुका है। काठमांडू समेत मुल्क़ के कई हिस्सों में हज़ारों नौजवानों की भीड़ संसद के बाहर जमा हो गई, जिसके बाद पुलिस और फौज की फ़ायरिंग में 20 से ज़्यादा लोगों की मौत और 200 से अधिक के घायल होने की तस्दीक़ हो चुकी है।
हालात की तस्वीर
सोमवार सुबह संसद भवन के गेट नंबर 1 और 2 पर नौजवान बैरिकेड्स फांदकर दाख़िल हो गए। “Gen-Z” कही जाने वाली ये नई नस्ल अपने हाथों में प्लेकार्ड्स, नारे और QR कोड वाले पोस्टर्स लेकर निकली थी। उनका सीधा इल्ज़ाम है कि सरकार ने उनकी आवाज़ दबाने की साज़िश की है।
हुकूमत ने 3 सितंबर को फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब समेत 26 सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स को बैन कर दिया था। वजह ये बताई गई कि कंपनियों ने नेपाल में रजिस्ट्रेशन नहीं कराया। लेकिन नौजवानों के लिए ये बैन उनकी “आवाज़ की हत्या” साबित हुआ।
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नेपाल की सियासी तारीख़ में ये शायद पहला मौका है जब इतने बड़े पैमाने पर नौजवान सीधे संसद तक पहुँच गए। यह सिर्फ़ “सोशल मीडिया बैन” का मामला नहीं, बल्कि उस गहरी बे-इत्तेफाक़ी का नतीजा है जो नौजवानों और हुकूमत के दरमियान पैदा हो चुकी है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ ग़ुस्सा: कई सालों से सरकारी दफ़्तरों में रिश्वतखोरी और बड़े घोटालों की कहानियाँ आम हैं। नई नस्ल इसे बर्दाश्त करने को तैयार नहीं।
अभिव्यक्ति की आज़ादी: सोशल मीडिया नौजवानों की ताक़त है। उसके बैन ने उन्हें सीधा निशाना बनाने जैसा असर डाला।
आर्थिक दबाव: नेपाल से हर साल लाखों नौजवान रोज़गार के लिए बाहर जाते हैं। मुल्क़ के अंदर बे-रोज़गारी और महँगाई ने ग़ुस्से में ईज़ाफ़ा किया।
अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
इस तहरीक़ ने सरहदों को भी हिला दिया है। भारत-नेपाल बॉर्डर सील कर दी गई है। बिहार के कई ज़िलों में कारोबार ठप हो गया क्योंकि बहुत-सा छोटा व्यापार WhatsApp और Facebook जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स पर चलता था।
पश्चिमी कंपनियों ने नेपाल सरकार की सख़्त शर्तें मानने से इंकार कर दिया, क्योंकि उन्हें लोकल ऑफ़िस खोलना और यूज़र डेटा शेयर करना महँगा और मुश्किल लगा। इसका नतीजा ये निकला कि छोटे मुल्क़ के नौजवान सीधे “Global Tech Giants बनाम Local Government” की जंग का हिस्सा बन गए।
विपक्ष और सिविल सोसाइटी की आवाज़
पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ और कई सियासी रहनुमाओं ने नौजवानों की मांगों को जायज़ बताया। मशहूर नेपाली कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने भी आवाज़ बुलंद की कि “युवा सिस्टम के खिलाफ नहीं, बल्कि गलतियों और भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ हैं।”
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने साफ कहा कि सरकार को गोली चलाने के बजाय बातचीत का रास्ता अपनाना चाहिए। मरने वालों के परिवार को मुआवज़ा और घायलों का मुफ्त इलाज करने की भी मांग उठी।
तर्क-वितर्क
हुकूमत का कहना है कि बिना रजिस्ट्रेशन सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर Fake ID, Hate Speech और साइबर क्राइम को बढ़ावा मिल रहा था। लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार ने इस क़ानून को लागू करने का वक़्त और तरीक़ा सही चुना?
सरकार का पक्ष: नेशनल सिक्योरिटी और सोसायटी की हिफ़ाज़त के लिए बैन ज़रूरी था।
प्रदर्शनकारियों का पक्ष: यह सीधे बोलने की आज़ादी पर हमला है।
विशेषज्ञ राय: छोटे मुल्क़ों में ग्लोबल कंपनियाँ भारी निवेश से हिचकिचाती हैं। नेपाल के लिए यह “Digital Sovereignty” की कोशिश है, लेकिन उसकी कीमत नौजवान चुका रहे हैं।
निष्कर्ष
नेपाल के मौजूदा हालात एक इशारा हैं कि नौजवान अब सिर्फ़ दर्शक नहीं रहे, बल्कि बदलते दौर के असली किरदार बन चुके हैं। Gen-Z की आवाज़ सोशल मीडिया से निकलकर अब सड़कों पर है।
सरकार के लिए चुनौती ये है कि वह डिजिटल नियंत्रण और लोकतांत्रिक आज़ादी के बीच संतुलन कैसे बनाए। गोली और कर्फ़्यू से हालात और बिगड़ेंगे। नेपाल को अब तहरीक़ को दबाने के बजाय डायलॉग और पारदर्शिता से हल निकालना होगा।