
“मुँह में राम, बग़ल में छुरी” मायावती का सपा-कांग्रेस पर सियासी तंज़
मायावती बोलीं – कांशीराम के नाम पर वोट की राजनीति बंद करो
मायावती का पलटवार: सपा-कांग्रेस पर कांशीराम विरोधी राजनीति का आरोप
बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पर तीखा हमला बोलते हुए कहा कि ये दोनों दल बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर और कांशीराम के मिशन के असली विरोधी हैं। उन्होंने सपा पर जातिवादी सोच और कांशीराम की विरासत के अपमान का आरोप लगाया। यह बयान 9 अक्टूबर को कांशीराम की पुण्यतिथि से पहले आया, जिससे यूपी की सियासत में नया ताप बढ़ गया है।
📍लखनऊ | 07 अक्टूबर 2025✍️आसिफ़ ख़ान
दलित राजनीति की नई जंग: बसपा बनाम सपा-कांग्रेस
उत्तर प्रदेश की सियासत में बयानबाज़ी का मौसम फिर लौट आया है। मायावती का ताज़ा हमला सपा और कांग्रेस पर सिर्फ़ राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि बहुजन राजनीति के पुराने दर्द का पुनः उद्घाटन है।
मायावती ने अपने बयान में साफ़ कहा कि “सपा और कांग्रेस दोनों दलित-पिछड़े विरोधी रवैये वाले हैं।” उनका इशारा सिर्फ़ इतिहास की ओर नहीं था, बल्कि आने वाले चुनावों के सामाजिक समीकरणों की ओर भी था।
बसपा सुप्रीमो ने याद दिलाया कि कांशीराम के निधन पर न सपा ने राज्य में शोक दिवस घोषित किया, न कांग्रेस ने केंद्र में राष्ट्रीय शोक। यह तथ्य मायावती के लिए सिर्फ़ भावनात्मक नहीं, बल्कि राजनीतिक हथियार भी है।
बहुजन आंदोलन की रूह और सियासत की रेखाएँ
कांशीराम का आंदोलन महज़ एक पार्टी की कहानी नहीं था। यह उस वर्ग की आवाज़ थी, जो सदियों तक हाशिये पर रहा। बाबा साहेब आंबेडकर के “शासक वर्ग बनाने” के सपने को ज़मीनी रूप देने वाले कांशीराम ने दलित-बहुजन समाज को आत्मसम्मान की नई परिभाषा दी।
मायावती का कहना है कि सपा ने न केवल कांशीराम के जीवनकाल में आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की, बल्कि 2008 में “कांशीराम नगर” का नाम बदलकर भी जातिवादी सोच का परिचय दिया।
उनका यह आरोप सिर्फ़ नाम बदलने तक सीमित नहीं है। वह कहती हैं कि सपा सरकार ने कांशीराम के नाम पर बने विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और अस्पतालों के नाम तक बदल दिए। यह मायावती के अनुसार “घोर दलित विरोधी चाल, चरित्र और चेहरा” है।
राजनीतिक प्रतीक और स्मृति की राजनीति
भारत की सियासत में स्मृति और प्रतीक हमेशा वोट का हिस्सा रहे हैं। अंबेडकर, कांशीराम, लोहिया, गांधी—हर नाम सत्ता की राजनीति में एक ब्रांड की तरह इस्तेमाल हुआ।
मायावती ने जब कहा कि “सपा और कांग्रेस का रवैया ‘मुँह में राम, बग़ल में छुरी’ जैसा है”, तो यह दरअसल इस प्रतीकात्मक राजनीति पर सीधा हमला था।
उनका यह तंज़ सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की उस घोषणा के जवाब में था, जिसमें उन्होंने 9 अक्टूबर को कांशीराम की पुण्यतिथि पर कार्यक्रम करने की बात कही थी। मायावती के शब्दों में यह “घोर छलावा” है।
सियासी संदर्भ और भविष्य की तस्वीर
बहुजन राजनीति की ज़मीन अब पहले जैसी नहीं रही। सपा ने पिछड़ी जातियों में अपनी जड़ें मज़बूत की हैं, तो बसपा दलितों के साथ-साथ मुसलमानों को फिर से जोड़ने की कोशिश कर रही है।
ऐसे में मायावती का यह हमला चुनावी माहौल से पहले एक सटीक सियासी संदेश है—“बसपा अब भी बहुजनों की असली प्रतिनिधि है।”
राजनीति के जानकार मानते हैं कि यह बयान दलित वोटरों को यह याद दिलाने के लिए है कि सपा या कांग्रेस जैसी पार्टियाँ केवल चुनावी वक्त पर कांशीराम को याद करती हैं, पर असल में उनकी नीतियाँ अलग दिशा में जाती हैं।
जनता के बीच संदेश और प्रभाव
मायावती की यह पोस्ट सोशल मीडिया पर भी काफ़ी वायरल हुई। उनके समर्थकों ने इसे “दलित स्वाभिमान की आवाज़” बताया, जबकि विपक्षी नेताओं ने इसे “पुराना रिकॉर्ड” कहकर खारिज किया।
पर सच्चाई यह है कि दलित वोट बैंक अब भी यूपी की सत्ता का सबसे निर्णायक तत्व है। और इस पर दावा जताने की कोशिश हर पार्टी कर रही है।
मायावती का यह बयान उस समय आया है जब बसपा संगठनात्मक रूप से कमजोर मानी जा रही है। मगर बयानबाज़ी के ज़रिए उन्होंने दिखाया है कि बहुजन राजनीति का नैरेटिव अभी भी उन्हीं के हाथ में है।
नज़रिया
राजनीति में बयान सिर्फ़ शब्द नहीं होते, वे समाज के मानस को झकझोरने की कोशिश भी करते हैं। मायावती का यह बयान कांशीराम की विरासत की रक्षा से ज़्यादा, उस विरासत पर “हक़” जताने की घोषणा है।
इस विवाद से यह तो साफ़ है कि यूपी की राजनीति में जातीय समीकरणों की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई।
सवाल सिर्फ़ इतना है—क्या यह बयान बसपा को नए राजनीतिक जीवन का संचार देगा, या सपा-कांग्रेस के जवाबी रणनीति से फिर धुँधला जाएगा?
समय इसका उत्तर देगा, लेकिन एक बात तय है—कांशीराम का नाम फिर से यूपी की सियासत के केंद्र में आ गया है।




