
Mamata Banerjee's scathing letter to the Election Commission and the scrutiny of the voter list
SIR विवाद में बंगाल की राजनीति और ज़मीनी सच
पश्चिम बंगाल में SIR प्रक्रिया को लेकर सरकार और चुनाव आयोग में तनाव बढ़ गया है। ममता बनर्जी ने इसे अव्यवस्थित बताया, BLO की मौत से हालात और गंभीर हुए। टकराव अब प्रशासनिक से बढ़कर राजनीतिक आकार ले चुका है।
📍कोलकाता 🗓️ 22 नवम्बर 2025✍️ Asif Khan
पश्चिम बंगाल में चल रही SIR प्रक्रिया को लेकर जो माहौल बना है, वह किसी साधारण प्रशासनिक कवायद का शोर नहीं, बल्कि एक गहरा institutional friction है। यह friction उस बिंदु पर आ गया है जहाँ राज्य सरकार, चुनाव आयोग और ज़मीनी अफ़सर—तीनों अपनी-अपनी सीमाओं और दबावों में उलझकर एक ऐसे मोड़ पर पहुँच चुके हैं जहाँ transparency, dignity और accountability—सभी एक-दूसरे से टकराती नज़र आती हैं। और इस पूरे हालात में सबसे अधिक दबाव में वे लोग हैं जो सिस्टम के निचले स्तर पर रोज़ दहलीज़-दर-दहलीज़ जा रहे हैं।
इस कहानी की शुरुआत उस वक़्त तेज़ हुई जब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त को एक विस्तृत पत्र लिखकर कहा कि SIR प्रक्रिया अव्यवस्थित, खतरनाक और बिना तैयारी के चलाई जा रही है। यह आरोप सिर्फ़ एक राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि यह इशारा है कि ground reality में कोई बड़ा strain बन चुका है। जब किसी प्रशासनिक प्रक्रिया में ऐसा बिंदु आता है जहाँ लोग अपनी जान तक गँवाने लगें, तो यह स्पष्ट है कि कहीं न कहीं प्रणाली में कोई बड़ी दरार है।
BLO की जिम्मेदारी कागज़ पर जितनी सरल दिखती है, ज़मीनी हक़ीक़त उतनी ही जटिल है। घर-घर जाकर दस्तावेज़ collect करना, identity verify करना, लोगों के असली पते का मिलान करना, और यह सब एक limited timeline में पूरा करना—इन सबमें एक ऐसी दबावपूर्ण दिनचर्या बन जाती है जो इंसानी सहनशक्ति को भी चुनौती देती है। जलपाईगुड़ी में एक BLO की मौत ने इस दबाव को एक बेहद दर्दनाक reality में बदल दिया। परिवार का आरोप था कि वह लगातार तनाव में थीं। ऐसी घटनाएँ न केवल एक परिवार को तोड़ती हैं, बल्कि सिस्टम पर भी सवाल उठाती हैं कि आखिर इतना ज़बरदस्त दबाव किस planning failure का नतीजा है।
ममता बनर्जी ने अपने पत्र में यह बात साफ़ कही कि SIR प्रक्रिया को जिस तरह लागू किया जा रहा है, उसमें न पर्याप्त ट्रेनिंग है, न स्पष्ट दिशा-निर्देश, न ही वह तैयारी जो एक इतनी बड़ी exercise के लिए अनिवार्य होती है। उनका कहना है कि अधिकारियों पर ऐसा बोझ डालना जिसमें वे अपनी सीमाओं से बाहर जाकर काम करने को मजबूर हो जाएँ, न केवल अनैतिक है बल्कि खतरनाक भी।
लेकिन यहाँ एक दूसरा पक्ष भी है। चुनाव आयोग का दावा है कि BLO को पर्याप्त ट्रेनिंग दी गई थी, और process एक सिद्ध व्यवस्था के तहत चल रही है। चुनाव आयोग के अनुसार voter list की purity democracy की बुनियादी ज़िम्मेदारी है। और अगर irregularities की शिकायतें आती हैं—चाहे किसी भी political side से—तो आयोग पर pressure होता है कि वह इसे address करे और rolls को accurate बनाये। यह तर्क पूरी तरह समझने योग्य है, क्योंकि किसी भी चुनावी प्रक्रिया की credibility voter list की authenticity पर टिकी होती है।
सवाल यह है कि फिर friction पैदा कहाँ हुआ?
असल में यह friction तीन जगहों से आता है—
पहला, timing
दूसरा, planning
तीसरा, communication gap
SIR को fast-track करने का मतलब था कि BLO को बहुत कम समय में बहुत अधिक काम करना होगा। जब deadlines ground reality को ignore कर देती हैं, तो अफ़सरों के पास यही लगता है कि उन्हें “impossible targets” दिए गए हैं। इसमें गलती सिर्फ़ कार्य-पद्धति की नहीं, बल्कि इस mindset की भी है जिसमें ऊपर से नीचे तक communication broken हो जाए तो ground staff खुद को अकेला समझने लगता है।
दूसरा बड़ा सवाल है—क्या यह पूरा विवाद सिर्फ़ प्रशासनिक है या राजनीतिक? यहाँ से analysis और interesting हो जाता है।
बंगाल की राजनीति पहले ही polarised है—TMC और BJP के बीच लगातार accusation और counter-accusation चलता रहा है। BJP लंबे समय से कहती रही है कि voter list में bogus entries और fake voters की संख्या काफी है। और SIR प्रक्रिया इस narrative को strengthen करती है क्योंकि यह voter list को साफ़ करने का दावा करती है। दूसरी तरफ़, TMC इस प्रक्रिया को अचानक लागू किये गये “pressure tool” की तरह देख रही है, और यह भी मानती है कि चुनाव आयोग पर राजनीतिक प्रभाव डालकर state administration को target किया जा रहा है।
यह वही जगह है जहाँ politics और administration आपस में बुरी तरह उलझ जाते हैं। और ground level पर काम करने वाले BLO या anganwadi workers को इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ता है।
अब प्रश्न उठता है—क्या ममता बनर्जी की आपत्ति genuine है?
यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि यह सिर्फ़ political objection है। कई राज्यों में SIR के दौरान इसी तरह की शिकायतें उठीं। Bihar में भी, Rajasthan में भी, और Kerala में भी। BLO की मौत की खबरें पहले भी आईं। इसका मतलब यह है कि यह issue structural है, ना कि केवल Bengal-specific।
लेकिन यह भी सच है कि Bengal की political climate इस issue को और गर्म बना रही है।
यह पूरा विवाद हमें एक अहम सच्चाई बताता है—
जब किसी प्रक्रिया में इंसान और सिस्टम के बीच तालमेल बिगड़ जाता है, तो प्रक्रिया अपने मूल उद्देश्य से भटकने लगती है। SIR का असली उद्देश्य voter list को transparent और updated रखना है। लेकिन जब यही प्रक्रिया अधिकारियों और नागरिकों के लिए डर, तनाव और बोझ बन जाए, तो यह अपने ही उद्देश्य को कमज़ोर कर देती है।
यहाँ एक और angle देखने की ज़रूरत है—administrative dignity.
सिस्टम को efficient बनाना ज़रूरी है, पर यह efficiency “insensitivity” के रूप में नहीं आनी चाहिए। BLO रात-दिन काम करें, लगातार field में रहें, deadlines की चिंता में मानसिक तनाव झेलें—तो यह प्रक्रिया sustainable नहीं हो सकती। एक लोकतांत्रिक ढाँचा तभी mature माना जाता है जब वह अपने lowest-rung workers की dignity को priority दे। वरना ऊपर बनी हुई democratic structure hollow हो जाती है।
अब सवाल यह है—क्या SIR प्रक्रिया को रोक देना चाहिए?
इसका उत्तर सीधा नहीं है। रोक देना शायद सही कदम न हो, क्योंकि voter list की authenticity fundamental है। लेकिन इसे pause करके streamline करना ज़रूरी है। timelines को humane बनाना ज़रूरी है। documentation clarity देना अनिवार्य है। और सबसे बढ़कर, BLO को psychological और administrative support देना immediate need है।
अगर यह balance नहीं बना, तो conflict और गहराएगा, और यह सिर्फ़ political loss नहीं होगा—यह democratic ecosystem का नुकसान होगा।
Bottom Line यह है कि Bengal को इस समय एक ऐसी प्रक्रिया की ज़रूरत है जो transparent भी हो, practical भी, और सबसे महत्वपूर्ण—humane भी। Election Commission और State Government दोनों को partnership की सोच से काम करना होगा। यह tug-of-war किसी के लिए भी फायदेमंद नहीं। Democracy consensus से चलती है, confrontation से नहीं।




