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One Nation one Election ShahTimes
हमारा देश ऋतुओं के मामले में भी काफी विविधता लिए हुए। सर्दी-गर्मी, बरसात और वसंत के अलावा भी यहां कई तरह के मौसम हैं। इनमें त्योहारों और शादियों के सीज़न भी हैं। यहां तक तो ठीक है लेकिन हमारे यहां चुनावों का भी मौसम आता है। एक खत्म नहीं होता कि अगले चुनाव की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। इनमें काफी समय, धन और संसाधनों बर्बाद होता है।
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मोहम्मद शहजाद
(लेखक हिंदुस्थान समाचार की उर्दू सेवा के हेड हैं)
हमारा देश ऋतुओं के मामले में भी काफी विविधता लिए हुए। सर्दी-गर्मी, बरसात और वसंत के अलावा भी यहां कई तरह के मौसम हैं। इनमें त्योहारों और शादियों के सीज़न भी हैं। यहां तक तो ठीक है लेकिन हमारे यहां चुनावों का भी मौसम आता है। एक खत्म नहीं होता कि अगले चुनाव की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। इनमें काफी समय, धन और संसाधनों बर्बाद होता है। यही वजह है कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की मांग लंबे समय से उठती रही है। प्रधानमंत्री मोदी की भी लंबे अरसे यही दिली तमन्ना रही है। इसलिए गाहे-बगाहे वह अपनी इस इच्छा का उद्गार करते रहे हैं। हाल ही में उनकी सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की संभावनाओं की समीक्षा के लिए एक उच्चस्तरीय कमेटी गठित कर इस मुद्दे को फिर से छेड़ दिया है।
देश में एक साथ चुनाव की अवधारणा नई नहीं है। आजादी के बाद 1951-52 में पहले चुनाव से लेकर 1967 तक एक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते रहे लेकिन 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के समय से पूर्व भंग होने के कारण यह चलन जारी नहीं रह सका। कारणवश इसका चक्र टूट गया और अब तो परिस्थितियां ऐसी हो गई हैं कि हर एक-दो साल के अंतराल पर किसी न किसी बड़ी विधानसभा के चुनाव करने पड़ते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ न होने से चुनावों में लगने वाले लंबे-चौड़े अमले, नेताओं और जनता के बहुमूल्य समय के साथ-साथ अकूत धन का क्षरण होता है। साथ ही बार-बार होने वाले चुनावों से विकास की गति बाधित होती है क्योंकि हर चुनाव की घोषणा के साथ ही आचार संहिता से लागू हो जाती है। फिर आचार संहिता इतनी लंबी चलती है कि अगले दो-ढ़ाई महीने तक तरक्की पर ब्रेक लग जाता है। निःसंदेह एक साथ चुनाव से इन तमाम विसंगतियों पर काबू पाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री मोदी भी यही तर्क देकर कभी लाल किला की प्राचीर से तो कभी पीठासीन अधिकारियों की सम्मलेन में इसकी पुरजोर वकालत करते रहे हैं। उनके कार्यकाल में ही लॉ कमीशन, नीति आयोग और संसद की स्थाई समिति के जरिए इसकी समीक्षा की जा चुकी है। इस तरह मोदी सरकार द्वारा रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित यह चौथी समिति है। हालांकि इससे पूर्व की समितियों की सिफारिशों पर अब तक वर्तमान सरकार ने कोई निर्णय लिया है। इसकी वजह यह है कि यह कहन-सुनने में जितना व्यवहारिक और उचित लगता है, उतना शायद भारत जैसे संघीय और संवैधानिक ढांचे वाले मुल्क में आसान नहीं है।
उद्देश्य अगर केवल समय और धन की बचत है तो फिर यह भी दलील दी जा सकती है कि हर पांच वर्ष में ही चुनाव क्यों कराए जाएं? उनकी समयावधि बढ़ाकर छः-सात वर्ष क्यों न कर दी जाए? इससे समय और धन की बचत तो हो जाएगी लेकिन कई और समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। मसलन अगर इनमें जीत दर्ज करने वाली कोई सियासी पार्टी अच्छा काम नहीं कर रही है और जन अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर रही है तो उसे फिर जनता को पांच से अधिक वर्षों तक बर्दाश्त करने के लिए विवश होना पड़ेगा। हमारे देश में वैसे ही इसकी संभावनाएं प्रबल हैं क्योंकि चुनावी वादे करके भूलना हमारे नेताओं और राजनीति दलों की आदत में शुमार है। ऐसे में चुनाव सुधारों के तौर पर मतदाताओं को अक्षम जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार देने की मांग बेमानी हो जाएगी।
लोकसभा और विधानसभा चुनाव फिलहाल अलग-अलग होने के बावजूद इसे शांतिपूर्वक सम्पन्न कराना निर्वाचन आयोग और सुरक्षा बलों के लिए बड़ी चुनौती होती है। इसमें काफी समय लगता है। मसलन 2019 के आम चुनाव सात चरणों में संपन्न हुए और इसमें 39 दिन अर्थात सवा महीने का समय लगा। इस दौरान कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए लगभग 2.7 लाख अर्द्धसैनिक बलों और 20 लाख पुलिस फोर्स का सहारा लेना पड़ा। इसी तरह बड़े राज्यों के विधानसभा चुनावों को कई फेज में कराना पड़ता है जिनके लिए काफी सुरक्षा बलों की तैनाती करनी पड़ती है। ऐसे में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव करवाने में लगने वाले समय और संसाधन का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है।
बात केवल इतनी भर नहीं है। असल में विविधता वाले हमारे देश में राजनीतिक परिस्थितियां इसके अनुकूल नहीं हैं। बहु-दलीय राजनीतिक व्यवस्था वाले हमारे देश में जनता के चुनावी मुद्दे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र, एक राज्य से दूसरे राज्य और फिर राज्य से राष्ट्रीय स्तर तक अलग-अलग हैं। मुद्दों के साथ-साथ उनकी चुनावी प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं। किसी राज्य में लोग अपने यहां के क्षेत्रीय दलों को पसंद करते हैं तो किसी राज्य के राष्ट्रीय दलों को तरजीह देते हैं। भू-सामाजिक और राजनैतिक वैविधता से लोगों के सामने बहुत से विकल्प खुले होते हैं और जन-मानस अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ही अलग-अलग प्रशासनिक स्तर पर दलों का चयन करते हैं। ऐसे में एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय दलों को काफी नुकसान होगा और उनकी संभावनाएं क्षीण होती जाएंगी क्योंकि बदली हुई निर्वाचन प्रणाली में राष्ट्रीय मुद्दों और जनभावनाओं का प्रभुत्व होगा।
हमारे देश में वैसे ही गठबंधन सरकारों का एक लंबा दौर रहा है। कई बार किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने और फिर आपस में गठबंधन की सहमति नहीं बन पाने से त्रिशंकु जैसे हालात पैदा हो जाते हैं। एक साथ चुनाव कराने की स्थिति में अगर केंद्र में किसी दल या गठबंधन की सरकार बन जाती है और किसी राज्य में त्रिशंकु परिस्थितियां उत्पन्न हो गईं, ऐसे में हालात बड़े विचित्र हो जाएंगे। फिर यही बात केंद्र के लिए भी लागू होती है। ऐसी परिस्थितियों में क्या त्रिशंकु लोकसभा या विधानसभाओं को अगले पांच वर्षों तक फिर से एक साथ चुनाव होने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी या फिर से फौरन चुनाव करवा कर समय, धन और संसाधनों की बर्बादी की जाएगी? हम सभी जानते हैं कि बार-बार चुनाव होने से राजनीतिक दलों के प्रति जनता की जवाबदेही तय होती है और उन्हें इस बात का डर रहता है कि ठीक ढंग से काम नहीं करने पर अवाम अगले ही चुनाव में बदला ले लेगी।
भारतीय संविधान में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के अपने-अपने अधिकार प्रदत्त हैं। इनके अनुसार ही यह कार्य करती हैं और जनहित वाली योजनाओं का सृजन करती हैं। इसके अतिरिक्त शासन का तीसरा स्तर भी है जो स्थानीय निकायों के जरिए चलता है। इसका मकसद स्थानीय सतह पर योजनाओं को सुचारू रूप से क्रियान्वित करना है। लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव करवाने से स्थानीय निकायों में भी इसका प्रयोग किए जाने की मांग उठने लगेगी। सबसे बड़ी दिक्कत तो संसद के उच्च सदन राज्यसभा के सामने पेश आएगी जिसके सदस्यों का कार्यकाल 6 साल का होता है और इसमें से हर दो वर्ष पर एक-तिहाई सदस्यों का कार्यकाल समाप्त होता है।
ऐसे में जाहिरी तौर पर तो चुनाव संबंधी धन-संसाधन एवं समय की बर्बादी को कम करने, स्थिर शासन और बार-बार चुनाव से होने वाले अवरोधों को कम करने के लिए एक साथ चुनाव प्रासंगिक लगते हैं लेकिन क्या यह व्यावहारिक भी हैं। इसका जवाब तलाश करने के लिए इसपर व्यापक चर्चा जरूरी है।