
उत्तर प्रदेश की सियासी लठ राजनीति: बयानबाज़ी से बढ़ती तल्ख़ियाँ
सरधना से निकली जुबानी जंग: अतुल प्रधान बनाम संगीत सोम
उत्तर प्रदेश की सियासत में एक बार फिर बयानबाज़ी का दौर तेज़ हो गया है। सरधना में पूर्व विधायक ठा. संगीत सोम और सपा विधायक अतुल प्रधान के बीच जुबानी जंग ने माहौल गर्मा दिया है। सोम के “लठ वाले बयान” पर अतुल प्रधान ने पलटवार करते हुए कहा कि अगर भाजपा नेताओं को लठ चलाने का इतना ही शौक है, तो वो बॉर्डर पर जाएं और देश की सेवा करें। यह बयान सिर्फ एक राजनीतिक तकरार नहीं, बल्कि यूपी की सियासी विचारधारा की दो दिशाओं का टकराव है—”नफ़रत बनाम मोहब्बत” की राजनीति।
📍 सरधना, मेरठ |07 अक्टूबर 2025। ✍️शावेज़ खान
यूपी की सियासत में गरमी तेज़—लठ चले या लफ़्ज़
सरधना की हवा इन दिनों कुछ ज़्यादा ही गर्म है। दशहरे के मौके पर पूर्व विधायक ठा. संगीत सोम ने कहा—“पुलिसकर्मी अपने लठ पर तेल लगाकर रखें, जो माहौल बिगाड़ेगा, उसका इलाज पुलिस करेगी।” इस बयान ने सोशल मीडिया से लेकर चौपालों तक बहस छेड़ दी।
सपा विधायक अतुल प्रधान ने भी पलटवार में कोई कमी नहीं छोड़ी। उन्होंने कहा, “अगर भाजपा नेताओं को लठ चलाने का इतना ही शौक है, तो बॉर्डर पर जाएं।” यह वाक्य न सिर्फ़ एक जवाब था, बल्कि राजनीतिक प्रतीकवाद का बयान भी। यूपी की सियासत में ‘लठ’ अब केवल हथियार नहीं, बल्कि सत्ता के प्रतीक बन चुके हैं।
नफ़रत बनाम मोहब्बत की राजनीति
संगीत सोम भाजपा के उन नेताओं में से हैं, जो “हिंदुत्व के फायरब्रांड” माने जाते हैं। उनकी ज़ुबान हमेशा आग उगलती रही है। वहीं अतुल प्रधान की राजनीति समाजवादी तर्ज़ पर आधारित है—जहाँ नफ़रत की जगह “इन्साफ़” और “मोहब्बत” की बात की जाती है।
ये टकराव असल में दो विचारधाराओं का संघर्ष है—एक वो जो डर दिखाकर राजनीति करती है, और दूसरी जो बराबरी की बात करती है।
चुनावी सालों में बयानबाज़ी का बढ़ता चलन
हर बार चुनावी साल नज़दीक आते ही नेताओं की ज़ुबान गर्म हो जाती है। चाहे वो पंचायत चुनाव हों या विधानसभा—हर मंच पर बयान ऐसे दिए जाते हैं, जैसे सियासत अब केवल माइक और सोशल मीडिया पर ही लड़ी जा रही हो।
यूपी में लठ की जगह असल में अब “लफ़्ज़” चल रहे हैं—जो कभी जनता को जोड़े रखते हैं, तो कभी बाँट देते हैं।
सरधना का सियासी इतिहास
सरधना विधानसभा सीट पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सबसे संवेदनशील सीटों में से मानी जाती है। यह सीट सांप्रदायिक घटनाओं, भीड़ हिंसा और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए जानी जाती रही है। संगीत सोम यहाँ के कद्दावर नेता रहे हैं और मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद से हिंदू वोट बैंक पर उनकी पकड़ मज़बूत रही।
वहीं अतुल प्रधान नई पीढ़ी के सपा नेताओं में हैं, जो खुद को “ग्राउंड से जुड़े” नेता बताते हैं। उनका बयानबाज़ी में उतरना संकेत देता है कि अब सपा भी हिंदुत्व के नैरेटिव का जवाब “संविधान और समानता” की भाषा में दे रही है।
जनता की सोच में बदलाव
कभी जो जनता इन बयानों से प्रभावित होती थी, अब उसका रुझान धीरे-धीरे बदलता दिख रहा है। आम लोग अब ‘रोज़गार’, ‘मंहगाई’ और ‘क़ानून व्यवस्था’ की बात करना चाहते हैं।
अतुल प्रधान का कहना है कि “देश डॉ. भीमराव अंबेडकर के संविधान से चलेगा, न कि भाजपा नेताओं के इशारे पर।”
यह कथन लोगों के भीतर जागरूकता के उभरते भाव को दिखाता है—जहाँ लोकतंत्र का अर्थ अब केवल वोट डालना नहीं, बल्कि सवाल पूछना भी है।
2027 की तैयारी और सपा का आत्मविश्वास
अतुल प्रधान ने यह दावा भी किया कि 2027 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनना तय है। यह बयान विपक्ष की एक नई रणनीति का हिस्सा माना जा सकता है—जहाँ सपा खुद को भाजपा के वैकल्पिक नेतृत्व के रूप में पेश करना चाहती है।
हालांकि ज़मीनी राजनीति में समीकरण अब भी जटिल हैं, लेकिन जनता की सोच में परिवर्तन के संकेत मिल रहे हैं।
नज़रिया
उत्तर प्रदेश की राजनीति में “लठ और लफ़्ज़” दोनों चल रहे हैं। पर असली सवाल ये है कि जनता किससे थक जाएगी पहले—लठ से या लफ़्ज़ से?
राजनीति अब केवल शक्ति प्रदर्शन नहीं, बल्कि नैतिक ज़िम्मेदारी का भी इम्तिहान है। यूपी की जनता जिस दिन सियासत में “मोहब्बत” को “नफ़रत” पर तरजीह देगी, उसी दिन लठ की जगह लफ़्ज़ जीत जाएंगे।




