
New change in India-US oil equation: Russia still on top, but strategic signals clear.
अमेरिकी तेल पर भारत की बढ़ती निर्भरता: नई रणनीति या मजबूरी?
Shah Times Exclusive Editorial
भारत ने अक्टूबर में अमेरिका से कच्चे तेल का आयात 2022 के बाद सबसे ऊँचे स्तर पर पहुँचाया है — 5.4 लाख बैरल प्रतिदिन। जबकि रूस अब भी सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है, यह रुझान भारत की बदलती ऊर्जा रणनीति और वैश्विक भू-राजनीतिक समीकरणों का नया संकेत है।
📍नई दिल्ली 🗓️ 28 अक्टूबर 2025 ✍️ आसिफ़ ख़ान
नई दिल्ली की फिजा में कुछ गर्म सवाल तैर रहे हैं —
क्या भारत ने रूस-अमेरिका तेल समीकरण में कोई नया रास्ता निकाल लिया है?
क्या यह बदलाव आर्थिक मजबूरी है या रणनीतिक तैयारी?
और क्या डोनाल्ड ट्रंप की अमेरिका वापसी ने नई दिल्ली को ऊर्जा नीति में एक पॉलिटिकल ट्यूनिंग के लिए मजबूर कर दिया है?
तेल की नई चाल
ऊर्जा परामर्श कंपनी Kpler के आंकड़ों के मुताबिक, अक्टूबर 2025 में भारत ने अमेरिका से 5,40,000 बैरल प्रतिदिन कच्चा तेल खरीदा। यह 2022 के बाद का सबसे ऊँचा स्तर है। महीने के अंत तक यह आँकड़ा 5,75,000 बैरल प्रतिदिन तक पहुँच सकता है।
यानि भारत अब सिर्फ मॉस्को के भरोसे नहीं है, बल्कि वॉशिंगटन की रिफ़ाइनरी से भी नई डीलें बना रहा है।
रूस अब भी “Energy King”
सच यह है कि रूस भारत के लिए अब भी सबसे बड़ा कच्चा तेल आपूर्तिकर्ता है — लगभग एक-तिहाई हिस्सेदारी के साथ।
इराक और सऊदी अरब दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
लेकिन अमेरिका की हिस्सेदारी में जो उछाल दिख रहा है, वो सिर्फ आर्थिक नहीं, राजनीतिक संदेश भी है।
आर्थिक गणित: डॉलर बनाम डिस्काउंट
भारतीय रिफाइनरियों के लिए यह फैसला पूरी तरह market-driven दिखता है।
ब्रेंट और WTI क्रूड के बीच दामों का अंतर बढ़ा, चीन की मांग घटी, और अमेरिकी तेल ने सस्ते में सौदा पेश कर दिया।
WTI Midland और Mars जैसे ग्रेड्स ने भारतीय कंपनियों को एक लचीला विकल्प दिया।
एक सरकारी अधिकारी के शब्दों में — “रूसी तेल सस्ता था, पर अब geopolitical cost ज़्यादा है; अमेरिकी तेल महँगा है, पर diplomatic comfort ज़्यादा।”
रणनीतिक संकेत
पश्चिमी प्रतिबंधों के चलते रूसी कंपनियाँ Rosneft और Lukoil सीमाओं में बँध गई हैं।
भारत ने भी अमेरिकी पक्ष को संकेत दिया है कि वह Diversification Strategy पर काम कर रहा है।
यह वही समय है जब ट्रंप प्रशासन ने भारत से कुछ आयातों पर 50% तक शुल्क लगाया — जिसमें 25% “रूसी तेल खरीद जारी रखने” के जुर्माने के तौर पर बताया गया था।
कई विशेषज्ञों का मानना है कि भारत यह दिखाना चाहता है कि वह रूस से दूरी नहीं बना रहा, लेकिन अमेरिका से समीकरण भी संभाल रहा है।
ट्रंप फैक्टर और डिप्लोमैटिक बैलेंस
डोनाल्ड ट्रंप की रिटर्न ने वैश्विक ऊर्जा डिप्लोमेसी में फिर से हलचल मचाई है।
ट्रंप हमेशा America First की नीति पर रहे हैं — और उन्हें यह देखना पसंद आएगा कि भारत अमेरिकी तेल खरीद में रिकॉर्ड बना रहा है।
इससे न सिर्फ वॉशिंगटन को आर्थिक राहत मिलेगी, बल्कि भारत के लिए भी यह एक Strategic Insurance Policy बन सकती है — ताकि रूस या ईरान पर नए प्रतिबंधों की स्थिति में आपूर्ति न रुके।
आयात विविधीकरण: नीति या आवश्यकता?
भारत की कुल तेल जरूरतों का 85% हिस्सा आयात पर निर्भर है।
इसलिए energy security का सवाल सिर्फ अर्थशास्त्र नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जुड़ा है।
अगर रूस पर पश्चिमी दबाव और बढ़ता है, तो भारत के पास अमेरिका एक वैकल्पिक सप्लायर रहेगा।
लेकिन यह दीर्घकालिक समाधान नहीं। क्योंकि अमेरिकी तेल हल्का है, रिफाइनिंग महंगी पड़ती है, और ढुलाई लागत भी ज़्यादा।
केप्लर का विश्लेषण
केप्लर के रिफाइनिंग और सप्लाई विश्लेषक सुमित रितोलिया ने कहा,
“अमेरिका से कच्चे तेल का बढ़ता आयात भारत की रिफाइनिंग लचीलापन और अवसरों को भुनाने की क्षमता को दर्शाता है।
यह एक अस्थायी रुझान है, लेकिन इसका रणनीतिक संदेश बहुत स्पष्ट है।”
ऊर्जा डिप्लोमेसी का नया चेहरा
भारत अब तीन मोर्चों पर संतुलन साध रहा है —
रूस से सस्ते तेल की निरंतरता
अमेरिका से रणनीतिक साझेदारी
खाड़ी देशों से पारंपरिक आपूर्ति
यह तीन-तरफ़ा समीकरण भारत की विदेश नीति का वह ‘Energy Doctrine’ बनता जा रहा है जिसमें आर्थिक लाभ और भू-राजनीतिक संतुलन दोनों साथ चल रहे हैं।
नतीजा
भारत ने अपने तेल के बास्केट को विविध बनाकर एक बड़ा संदेश दिया है —
“हम किसी के दबाव में नहीं, बल्कि अपने हित में निर्णय लेते हैं।”
अमेरिका के साथ व्यापारिक तनाव घटाना, रूस के साथ संतुलन रखना और चीन की मांग में कमी का फ़ायदा उठाना — यह सब मिलकर भारत को एक Energy Superplayer की दिशा में ले जा रहा है।




