
Indian players celebrating victory over Pakistan in Dubai with the tricolour, a moment of patriotism beyond the boundary – Shah Times
ऑपरेशन सिंदूर के बाद दुबई में भारत की शानदार जीत
भारत ने पाकिस्तान को हराया: क्रिकेट में राष्ट्रवाद की गूंज
भारत ने दुबई में पाकिस्तान को सात विकेट से हराकर जीत भारतीय सेनाओं को समर्पित की। क्या खेल अब सरहदों से आगे राष्ट्रवाद का आईना बन चुका है?
खेल, ख़ासकर क्रिकेट, अक्सर मुल्क़ों के दरमियान नफ़रत और मोहब्बत दोनों का पैग़ाम लेकर आता है। जब भारत और पाकिस्तान आमने-सामने होते हैं तो क्रिकेट महज़ एक स्पोर्ट्स इवेंट नहीं रह जाता, बल्कि जज़्बा-ए-वतन का इम्तिहान बन जाता है। दुबई में हुआ हालिया मुक़ाबला भी इसी सिलसिले की एक नई कड़ी साबित हुआ।
पहलगाम हमले के बाद दोनों मुल्क़ों के रिश्ते पहले से ज़्यादा तल्ख़ हुए। ऐसे हालात में मैदान-ए-जंग यानी क्रिकेट ग्राउंड एक अलग सियासी-सामाजिक मायने रखता है। रविवार को खेले गए मैच में इंडिया ने पाकिस्तान को सात विकेट से शिकस्त दी। मगर असली बहस सिर्फ़ जीत-हार पर नहीं, बल्कि उस जज़्बे पर है जो इस जीत के पीछे छुपा है।
दुबई का मैदान: जंग का मंजर या खेल का जश्न?
मैदान में माहौल ऐसा था मानो कोई स्पोर्ट्स इवेंट नहीं बल्कि ऑपरेशन का सिलसिला हो। भारतीय खिलाड़ी और दर्शकों की आँखों में सिर्फ़ जीत नहीं, बल्कि “वतन के लिए जीत” की चमक थी। यही वजह है कि कप्तान सूर्यकुमार यादव ने मैच के बाद ऐलान किया – “यह जीत भारतीय सशस्त्र सेनाओं को समर्पित है।”
क्या क्रिकेट अब महज़ बॉल और बैट का खेल रह गया है? या फिर ये मुल्क़ी शान-ओ-शौकत का आईना बन चुका है?
पाकिस्तान की पारी: दबाव और नाकामी
पाकिस्तान की टीम ने टॉस जीतकर बल्लेबाज़ी चुनी। लेकिन शुरुआत से ही दबाव साफ़ नज़र आया। पहले ही ओवर में हार्दिक पांड्या और जसप्रीत बुमराह ने दो बड़े विकेट निकालकर दुश्मन की कमर तोड़ दी।
साहिबजादा फ़रहान ने थोड़ी देर तक जद्दोजहद की, लेकिन कुलदीप यादव की जादुई गेंदबाज़ी ने उनकी कोशिशों को बेकार कर दिया। पाकिस्तान 20 ओवर में महज़ 127 रन ही बना सका।
ये स्कोर बता रहा था कि टीम कितनी टेंशन और दहशत के साए में खेल रही थी। मैदान पर हाथ मिलाने की परंपरा तक गायब थी। ये चुप्पी अपने आप में बहुत कुछ कह रही थी।
भारतीय जवाब: आत्मविश्वास और अटूट यक़ीन
भारतीय टीम का अंदाज़ शुरू से ही जुदा था। अभिषेक शर्मा ने शाहीन अफ़रीदी की पहली ही गेंद पर चौका और फिर छक्का जड़कर साफ़ कर दिया कि मुकाबला सिर्फ़ रन चेज़ का नहीं बल्कि एक इरादे का है।
हालाँकि शुभमन गिल जल्दी आउट हो गए, लेकिन सूर्या और तिलक वर्मा ने खेल को स्थिर किया। सूर्या ने छक्के के साथ मैच ख़त्म कर यह पैग़ाम दिया कि टीम इंडिया की ताक़त महज़ क्रिकेट स्किल्स में नहीं, बल्कि उस हिम्मत में है जो हर खिलाड़ी अपने मुल्क़ के लिए दिल में रखता है।
जीत से बढ़कर: एक पैग़ाम
क्रिकेट मैच जीतना अपने आप में बड़ी बात है, लेकिन इसे फौज को समर्पित करना उस जीत को राष्ट्रवादी रंग देता है। सुनील गावस्कर ने ठीक कहा – “यह जीत सिर्फ़ जीत नहीं, बल्कि टूर्नामेंट में भारत की मंशा और स्ट्रैटेजी का इशारा है।”
मगर सवाल यह भी उठता है कि क्या खेल को हमेशा सियासी और फ़ौजी जज़्बे से जोड़ना चाहिए? या फिर उसे एक ‘स्पोर्ट्स’ के दायरे में रखना बेहतर है?
खेल बनाम सियासत
भारत-पाकिस्तान के रिश्ते इतने उलझे हुए हैं कि खेल भी सियासत से जुदा नहीं रह पाता। एक ओर लोग कहते हैं कि क्रिकेट रिश्तों को बेहतर बना सकता है, दूसरी ओर हालात ऐसे हैं कि हर गेंद, हर चौका, हर विकेट “क़ौमी इज़्ज़त” का सवाल बन जाता है।
यहां सवाल उठता है – क्या ये बोझ खिलाड़ियों पर बहुत भारी नहीं पड़ता? क्या खेल का असल मक़सद यानी ‘जुड़ना’ कहीं गुम नहीं हो रहा?
सोशल मीडिया और जनभावना
मैच के बाद सोशल मीडिया पर ट्रेंड साफ़ था – #JaiHind, #OperationSindoorVictory, #BoycottPakistan. लाखों ट्वीट और पोस्ट्स ने इस जीत को खेल से कहीं आगे बढ़ाकर एक क़ौमी जश्न बना दिया।
फैंस ने दुबई स्टेडियम को तिरंगे से भर दिया। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ जीत मानो एक “प्रतीकात्मक बदला” लग रही थी। यही खेल की ताक़त है – मैदान से बाहर निकलकर समाज की नसों में असर डालना।
क्रिकेट और राष्ट्रवाद का नया चेहरा
ये मैच हमें ये सोचने पर मजबूर करता है कि क्या वाक़ई खेल अब सरहदों से ऊपर जा सकता है? या फिर हर जीत-हार मुल्क़ों की सियासी नफ़रत और मोहब्बत का आईना बनी रहेगी?
भारत के लिए ये जीत न सिर्फ़ एक स्पोर्ट्स रिज़ल्ट थी बल्कि वतन परस्ती का ऐलान थी। यह उस सोच का हिस्सा है जहां खिलाड़ी मैदान पर महज़ टीम के लिए नहीं, बल्कि पूरे मुल्क़ के लिए उतरते हैं।
नतीजा
दुबई में भारत की जीत महज़ एक क्रिकेट मैच नहीं थी। यह उस जज़्बे की दास्तान थी जो हर हिंदुस्तानी के दिल में वतन के लिए धड़कता है। खेल यहां स्पोर्ट्स से ज़्यादा एक इबादत बन चुका है – इबादत वतन की, फौज की और उस शान की जो तिरंगे के साथ जुड़ी है।
मगर साथ ही हमें ये भी याद रखना चाहिए कि खेल अगर पुल बने तो बेहतर है, दीवार बने तो अफ़सोसजनक। जज़्बा-ए-वतन अपनी जगह है, मगर खेल का असली मक़सद जुड़ाव और इंसानियत भी होना चाहिए।




